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रविवार, 30 जून 2013

पत्रकारिता के नाम पर दुकान चलाने की स्वतंत्रता का मैं पक्षधर नहीं हूं

सुरेंद्र प्रताप सिंह से कुमार नरेंद्र सिंह की बातचीत

प्र.- पत्रकारिता में आने के पीछे आपका क्या उद्देश्य था?
उ.- पत्रकारिता में मैं दुर्घटनावश ही आया। इसलिए कहूं कि कोई महान उद्देश्य लेकर आया था तो यह झूठ होगा। हां, आने के बाद धीरे-धीरे उद्देश्य मेरे सामने स्पष्ट होने लगे। पत्रकारिता का जीवनदर्शन खुलने लगा। यह प्रक्रिया आज भी चल रही है।

प्र.- सफल पत्रकार आप किसे कहेंगे?
उ.- सफल पत्रकार मैं उसे कहूंगा जो देश, समाज और व्यक्ति (मैं समाज में अंतिम व्यक्ति की बात कर रहा हूं) के हित में इस काम को करता है या जो उसे करना चाहिए, उसमें वह सफल है। सफलता के कई मानदंड हो सकते हैं। हो सकता है कि कोई व्यक्ति पत्रकार के रूप में सफल न हो, पर पत्रकार का रूप धर कर सफल व्यक्ति बन जाए। बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके लिए पत्रकारिता अन्य कुछप्राप्त करने का साधन है। पत्रकारिता के जरिए कोई राजनीति में जाना चाहता है, कोई पैसा बनाना चाहता है और कोई नाम कमाना चाहता है। मैं समझता हूं कि इस तरह की सफलता पत्रकारिता की नहीं, बल्कि व्यक्ति की सफलता के मानदंड हैं। पत्रकार तो वही सफल है जो उसका सफलतापूर्वक संप्रेषण करता है, जिसे वह कहना चाहता है। यानि जो कुछ वह कहता है लोग उसे उसी तरह ग्रहण करते हैं। उसके कहने के पीछे कोई दूसरा कारण नहीं ढूंढते। इस मायने में मैं अरुण शौरी को एक सफल
पत्रकार मानता हूं। (यद्यपि उनके विचारों से मैं घोर असहमति रखता हूं।) वे जो कुछ कहते हैं उसको लोग गंभीरता से लेते हैं।

प्र.- पत्रकारिता में आप अपने को कितना सफल मानते हैं?
उ.- मैंने पत्रकारिता का लंबा और टेढा रास्ता चुना। सीधा रास्ता यह है कि अपने विचारों को धड़ाधड़ लिखकर पत्रकारिता में अपनी जगह और पहचान बना लें। लेकिन पता नहीं किन कारणों से मैंने यह रास्ता नहीं चुना। जो रास्ता मैंने चुना, वह जरा कठिन है। यह बात मैं कोई शहीदी मुद्रा या प्रशंसा पाने के उद्देश्य से नहीं कह रहा हूं। मुझे लगा कि मेरे लिए यही रास्ता ठीक है। पाठक तक एक व्यक्ति की बात पहुंचाने की बजाय मैंने सोचा कि हम ऐसा साधन विकसित करें जिससे बात संस्थागत रूप में पाठक तक पहुंचे। मैं रहूं या न रहूंव्यक्ति रहे या न रहे, लेकिन वह बात लोगों तक पहुंचती रहे। इसमें मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि मैं क्या लिख रहा हूं बल्कि मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण था कि और लोग क्या लिख रहे हैं। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हम किस तरह की पत्रिका निकाल रहे हैं या हमने किस तरह की टीम बनाई है। पत्रकारिता के अपने शुरुआती दिनों में मैं खूब लिखता था। पर जैसे-जैसे समझ बढ़ी, मुझे लिखने से डर लगने लगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं। मुझे लगा कि लेखकों की पत्रकारिता में पूरी-की-पूरी पहचान बनाने का काम एक टीम के
रूप में ही किया जा सकता है। रविवारके माध्यम से थोड़ा-बहुत ऐसा करने का प्रयास मैंने किया। नवभारत टाइम्समें आने के बाद भी मैंने इस काम को जारी रखा। पर नवभारत टाइम्सएक बहुत बड़ा अखबार है। इसका एक जमा हुआ तंत्र है इसलिए उसमें काफी समय लगा। मुझे खुशी है कि आज पत्रकारिता उसी दिशा में बढ़ रही है जिस दिशा में मैंने उसे बढ़ाने का प्रयास किया था। अच्छी पत्रकारिता की दिशा में मैंने ठोस कदम उठाने का प्रयास किया, इसे ही आप मेरी सफलता या उपलब्धि मान सकते हैं।

प्र.- अखबार की कोई निश्चित विचारधारा होनी चाहिए या नहीं?
उ.- अखबार का मतलब मैं दैनिक समाचार पत्र समझता हूं और अगर वह किसी विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में माना जाता है तो यह उसकी असफलता है। इसमें मैं थोड़ा परंपरावादी हूं। मैं मानता हूं कि समाचारपत्र के तीन काम हैं- सूचना देना, जन शिक्षण करना और मनोरंजन करना। सूचना के भी दो अंग हैं- समाचार और विचार। समाचार के मामले में मैं चाहता हूं कि पत्रकार बहुत ही वस्तुनिष्ठ हों, निर्मम और निरपेक्ष हों। उस घटना का समाचार भीजिसका प्रभाव लोगों पर भिन्न-भिन्न रूपों में पड़ता हो, चाहे वह घटना कितनी भी बड़ी क्यों न हो, और उसका प्रभाव बड़े से बड़े समूह पर क्यों न पड़े, पत्रकार को निरपेक्ष होकर देना चाहिए। बड़ा दुख होता है कि पत्रकार ऐसी घटनाओं के प्रति निरपेक्ष नहीं रह पाते। देश के अंदर की घटनाओं पर तो निरपेक्ष रहते भी हैं, पर जहां भारत और पाकिस्तान का मामला आता है, हम निरपेक्ष नहीं रह पाते। विचार के मामले में बहुत वस्तुनिष्ठ नहीं हुआ जा सकता। पत्रिकाएं निश्चित विचारधारा की हो सकती हैं और होनी भी चाहिए। इसमें कोई बुराई नहीं है। पांचजन्यनिकलने से मुझे कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि हमें मालूम है कि वे कौन लोग हैं, उनकी विचारधारा क्या है और वे किस उद्देश्य से निकाल रहे हैं। इसी तरह अन्य दलों या व्यक्तियों की पत्रिकाएं भी हो सकती हैं।

प्र.- अखबार में क्या छपे, इसका अंतिम अधिकार मालिकान को होना चाहिए या संपादक कोसंपादकीय विभाग की स्वतंत्रता के आप किस हद तक पक्षधर हैं?
उ.- देखिए, इस अधिकार का निर्णय रोज-रोज नहीं होता। मालिकान और संपादकों के संबंध का भी निर्धारण रोज-रोज नहीं होता। वैज्ञानिक तरीका यह है कि मालिक जिस दिन संपादक को नियुक्त करता है उसी दिन उसे बता देता है कि हमारे अखबार की नीति क्या है। उस गाइडलाइन के अंदर अखबार को कैसे निकाला जाएगा, कौन सा समाचार जाएगा, यह सारा कार्य संपादक का होता है, उसमें मालिक कहीं नहीं आता। निर्धारित गाइडलाइन्स के अनुसार संपादक काम कर रहा है या नहीं, यह देखने का काम मालिक का है।  जहां तक संपादकीय विभाग की स्वतंत्रता का सवाल है, तो उसमें बहुत साफ लाइनें खिंची हुई हैं यानि समाचार देने में वे स्वतंत्र नहीं हैं। समाचार जो हैं, वे हैं और उन्हें जाना चाहिए। पर कहीं न कहीं स्वतंत्रता की सीमारेखा खींचनी होगी और वह सीमारेखा है संपादक। पत्रकारिता के नाम पर दुकान चलाने की स्वतंत्रता का मैं पक्षधर नहीं हूं। तर्कपूर्ण ढंग से
और सुसंस्कृत भाषा में लिखे गए विचारों को समाचारपत्रों में स्थान मिलना चाहिए- चाहे
वे जैसे भी विचार हों।

प्र.- संपादकीय विभाग और प्रबंधकों के बीच विवाद की मुख्य वजह क्या है और इसका समाधान क्या है?
उ.- मैं समझता हूं कि इसकी मुख्य वजह संपादकीय नीति का अभाव है, जिसके चलते प्रबंधकों एवं संपादकों के विचारों में टकराहट होती है। अपने देश में दिक्कत यह है कि प्रबंधक कोई संपादकीय नीति नहीं बनाना चाहते। संपादकीय नीति बनाना तलवार की धार पर चलने के समान है। इसमें प्रबंधकों को कहना पड़ेगा कि उनके संस्थान की संपादकीय नीति यह है या यह नहीं है, पर उनमें इतना साहस नहीं है। वे तो गंगा आए गंगादास, जमुना आए जमुना दासहोते हैं। नरसिंह राव की सरकार है तो नरसिंह राव का गुणगान, आडवाणी जी आएंगे तो आडवाणी जी महान और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसा कवि तो देखा ही नहीं। यानि जिसकी सत्ता उसका खेल उन्हें खेलना होता है। इसमें जो द्वंद्व चलता है, वह अखबार में भी प्रकट होता है। पश्चिम के देशों में संपादकीय नीति है। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में जब चुनाव होते हैं तो संपादक संपादकीय लिखता है कि वह अमुक पार्टी या अमुक उम्मीदवार का समर्थन करता है। मतदाताओं से उस दल के उम्मीदवार को वोट देने की अपील भी
करता है। पर यह बात रिपोर्टिंग में नहीं झलकनी चाहिए। अपने यहां तो संपादक सबको खुश करने की नीति अपनाते हैं। अखबार से पैसा भी कमाएंगे, मिशन भी बनाएंगे, उसे अंधेरे में बेच भी देंगे और पवित्रता की बात भी करेंगे। प्रबंधक और संपादक, दोनों ही नहीं चाहते कि कोई संपादकीय नीति बने।
इसका समाधान मैं समझता हूं कि अखबार का नियंत्रण पेशेवर (प्रोफेशनल) लोगों के हाथ में होना चाहिए। अन्य प्रोफेशनल्स जैसे डाक्टर, वकील, चार्टर्ड एकाउंटेंट आदि अपनी शर्तों पर काम करते हैं पर अखबारी पेशे का समीकरण कुछ इस तरह बना और बिगड़ा कि प्रोफेशनल्स अखबार के नियंत्रण में हैं। इसका समाधान तभी होगा जब ऐसी संस्थाएं बनेंगीजिनमें कुछ संपादक या लेखक ही अखबार निकालंगे। मुझे दीख रहा है कि यह दिन दूर नहीं है। इसमें सब कुछ खुला होगा। पांच संपादक बैठकर तय कर लेंगे कि उनकी संपादकीय नीति क्या होगी। जिनके लिए अखबार निकाला जाता है, जो अखबार निकालते हैं या जिन्हें निकालना चाहिए- उस पर यदि उनका नियंत्रण होगा तो स्थिति सुधरेगी, वरना ऐसे ही चलती रहेगी छापामार लड़ाई।

प्र.- आप अखबार के प्रबंधन को अन्य उत्पाद इकाइयों के समान ही मानते हैं या उससे भिन्नआप पत्रकार को एक विशिष्ट बुद्धिजीवी कर्मचारी मानते हैं या अन्य के समकक्ष एक सामान्य कर्मचारी?
उ.- मैं समझता हूं कि हर उत्पाद का प्रबंधन दूसरे से अलग होता है। उस मायने में अखबार का प्रबंधन भी दूसरे से अलग होता है। आखिर जूता बनाने और डालडा बनाने का प्रबंधन एक तो नहीं हो सकता। मैं इस तरह का वर्गीकरण नहीं कर सकता कि अखबार के प्रबंधन का एक वर्ग और बाकी उत्पाद इकाइयों का दूसरा वर्ग। अखबार को एक उत्पाद के रूप में तो देखना ही पड़ेगा, पर अखबार निकालने का उद्देश्य सिर्फ बेचना नहीं हो सकता। क्योंकि अगर सिर्फ बेचना ही उद्देश्य होता तो वह अन्य उत्पाद इकाई भी बैठा सकता है। किसी ने अखबार निकाला है तो निश्चित रूप से उसका उद्देश्य सिर्फ बेचना नहीं है, कुछ और भी है और यही उद्देश्य इसे अन्य उत्पादों से अलग करता है।
मैं पत्रकार को कोई विशिष्ट बुद्धिजीवी कर्मचारी नहीं मानता। क्या डाक्टर, वकीलइंजीनियर और कुशल मजदूर बुद्धिहीन होते हैं? पत्रकार लिखने का विशिष्ट कार्य अवश्य करता है पर वह अकेला बुद्धिजीवी नहीं है।

प्र.- अखबारों में सेवा शर्तों के संबंध में प्रबंधकों के मनमानेपन की स्थिति बरकरार क्यों है?
उ.- यह स्थिति हर क्षेत्र में है। मैं प्रबंधकों की मनमानी को डिफेंड नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि जिस तरह का समाज हमने बनाया है, उसमें मजदूरी करने वाले लोगों के साथ लगातार अन्याय होता आ रहा है, चाहे वह कोई भी क्षेत्र या धंधा हो। यह सिर्फ अखबारों की स्थिति नहीं है। पत्रकार संगठित रूप से उनके मनमानेपन का विरोध नहीं कर रहे हैं। अखबारों में मजबूत ट्रेड यूनियन की परंपरा रही है। वह परंपरा नष्ट हो रही है इसलिए प्रबंधकों के मनमानेपन की स्थिति बरकरार है।

प्र.- इस संदर्भ में आखिर बछावत आयोग की सिफारिशें क्यों लागू नहीं की जातीं?
उ.- बछावत आयोग अपने आप में इस समस्या का समाधान नहीं है। बछावत तो उनके लिए है जो नियम मानने के लिए तैयार हैं। आज पत्रकारिता में, खासकर हिंदी पत्रकारिता में, ऐसी स्थिति है कि जो लोग अखबार निकाल रहे हैं, सेवा शर्तों की बात तो छोड़ दीजिएवे किसी भी नियम-कानून को नहीं मानते।

बछावत आयोग इसलिए लागू नहीं होता कि मालिक पैसा नहीं देना चाहते हैं। बहुत साधारण बात है कि अगर मालिक का काम दो पैसे देकर चल जाता है तो वह पचास पैसे क्यों देगा? इस देश में कौन सा कानून लागू होता है? आप जिस समाज में रहते हैं उसी का तो कानून लागू होगा। ऐसा तो है नहीं कि पत्रकारिता के लिए अलग स्थिति है।  

प्र.- अखबार में क्या आप यूनियन के पक्षधर हैं?
उ.- मैं हमेशा यूनियन का पक्षधर रहा हूं, क्योंकि मैं समझता हूं कि यूनियन एक ऐसी संस्था है जो दूसरे पक्ष को वैज्ञानिक तरीके से सामने लाती है। समझौते में अगर दूसरा पक्ष संस्था के रूप में सामने नहीं बैठेगा तो प्रबंधन के किसी निर्णय की प्रतिक्रिया कई रूपों में प्रकट होगी और इससे सिर्फ ऊर्जा का नाश होगा। मैं समझता हूं कि किसी संस्था में यूनियन का होना उतना ही आवश्यक है, जितना एक अच्छे प्रबंधक का होना।

प्र.- अखबार में सत्ता के राजनीतिक दखल को क्या उचित मानते हैं? क्या आप मानते हैं कि सत्ता से तालमेल किए बिना आसानी से अखबार नहीं चलाया जा सकता?
उ.- अखबार में सत्ता के राजनीतिक दखल को मैं बहुत अनुचित मानता हूं। वैसे बहुत सारे अक्षम लोग इसे अपने निकम्मेपन की ढाल भी बनाते हैं। अपने 20-22 सालों की पत्रकारिता में ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं पड़ता जब मेरे ऊपर सत्ता का दबाव पड़ा हो। अगर आप बेईमान नहीं हैं, राजनीतिकों से पैसा नहीं लेते या उनकी राजनीति नहीं करते, तो आपके ऊपर सत्ता का दबाव नहीं डाला जा सकता। लेकिन आप अगर चोर-चोर मौसेरे भाईहैं तो आप पर सत्ता का दबाव पड़ेगा। मैं ऐसा कतई नहीं मानता कि सत्ता से तालमेल किए बिना अखबार नहीं चलाया जा सकता।

प्र- आप पर भी सत्ता की राजनीति करने के आरोप लगाए जाते हैं, खासकर जनता दल का समर्थन
करने के लिए। इस संदर्भ में आपका क्या कहना है?
उ.- जब तक जनता दल सत्ता में रहा, तब तक के अखबार निकालकर देख लीजिएपता चल जाएगा कि मैं जनता दल का समर्थन कर रहा था या नहीं। यह तो ऐसी चीज़ है कि जिसे आप चाहकर भी छिपा नहीं सकते। मैं जनता दल का समर्थक हूं या नहीं, यह तो अखबार से ही देखा जा सकता है। सौभाग्य या दुर्भाग्यवश उस समय मैंने बहुत कम लिखा। मैं तो सिर्फ समाचारों का संयोजन करता था, वह भी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर। मैंने लिखना तब शुरू किया जब मंडल और मंदिर का मुद्दा सामने आया। उस समय जनता दल के समर्थक तो क्या, जनता दल के खुद के नेता जनता दल के विरोधी हो गए थे। अगर कोई यह समझता है कि मैं मंडल का समर्थन कर रहा था इसलिए जनता दल का समर्थन कर रहा था तो उससे बड़ा मूर्ख मैं किसी को नहीं समझता। वह तो मेरे लिए अलोकप्रियता
के पाताल में ले जाने वाला कदम था, पर मैंने वह कदम इसलिए उठाया क्योंकि मैं वैचारिक रूप से उसे उचित मानता था। उसमें भी मैं समाचारों में कोई दखलअंदाज़ी नहीं करता था। संपादकीय नीति राजेन्द्र माथुर तय करते थे और चूंकि मेरी राय भी उनसे मिलती थी, इसलिए एक तरह की नीति चलती थी। वैसे संपादकीय नीति निर्धारण में सूर्यकांत बाली, विष्णु खरे या राजकिशोर आदि भी सहयोगी होते थे। मैं जो उचित समझता था, उसे मैं अपने नाम से लिखता था और इसके लिए मुझे कहीं कोई शर्म या मलाल नहीं है। आपको सूचित कर दूं कि सत्ता की राजनीति करके पूरे जनता दल के शासन काल में मैं विश्वनाथ प्रताप सिंह से एक बार भी नहीं मिला।

प्र.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रसार क्या हिंदी पत्रकारिता के लिए चुनौती नहीं है? इन चुनौतियों का सामना कैसे किया जा सकता है?
उ.- यह चुनौती खुद पत्रकारिता के लिए है। हां, हिंदी पत्रकारिता कोई विशेष पत्रकारिता है, ऐसा मैं नहीं समझता। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया छपे हुए शब्दों के लिए चुनौती है। मैं इसे खतरा नहीं मानता। मैं सूचना के मुक्त बहाव में विश्वास करता हूं, चाहे वह किसी भी स्रोत से प्राप्त हो। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौती का सामना करने के लिए समाचारपत्रों को और विश्वसनीय बनाना पड़ेगा, इसे समाज से और जोड़ना पड़ेगा। समाचारपत्र के विचार पक्ष को और सुदृढ़ करना होगा क्योंकि दृश्य-श्रव्य माध्यम की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि दर्शक के दिमाग से शब्द बड़ी तेजी से गायब होते हैं। यहीं पर प्रिंट माध्यम की भूमिका शुरू होती है। अखबार की बात को महीनों, वर्षों और सदियों तक सुरक्षित रखा जा सकता है पर इसके लिए आपको तय करना होगा कि अखबार से आपपरचून की दुकान चलानी है या विचारों का लेन-देन करना है।

प्र.- क्या आप पत्रकारिता जगत में आई चारित्रिक गिरावट की बात स्वीकार करते हैं? अगर हांतो  इसकी वजह क्या है?
उ.- चारित्रिक गिरावट से आपका क्या मतलब है? क्या आप कहना चाहते हैं कि पत्रकार चरित्रहीन हो गए हैं, सवाल को थोड़ा स्पष्ट कीजिए।
प्र.- मेरा मतलब है कि पत्रकारिता के जरिए कुछ पत्रकार अन्य सुविधाएं और उद्देश्य हासिल करने में लगे हुए हैं।
उ.- इस तरह की चारित्रिक गिरावट निश्चित रूप से आई है, पर यह गिरावट समाज के हर अंग में आई है। अखबार पलटकर देख लीजिए, आपको पता चल जाएगा कि कानून की रक्षा करने वाली पुलिस स्वयं हर प्रकार के संगीन जुर्म में शामिल है। ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जो पत्रकार के रूप में नेतागिरी करते हैं और नेता बनने के बाद पत्रकारिता करते हैं। पत्रकार कोई देवदूत नहीं होता। इनमें भी बहुत सारे दलाल घुसे हुए हैं। समाज के बाहर रहकर पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह कैसे हो सकता है कि समाज तो भारत का हो और पत्रकारिता फ्रांस की हो? समाज में आई चैतरफा गिरावट पत्रकारिता में भी परिलक्षित हो रही है। पत्रकारों की विश्वसनीयता अवश्य कम हुई है पर मेरे लिए यह कोई ज्यादा चिंताजनक बात नहीं है। मेरे लिए चिंताजनक बात यह है कि लोगों का विश्वास राज्य की सत्ता से ही उठता जा रहा है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन और सरकार पर से लोगों का विश्वास उठ रहा
है। मैं इसे पत्रकारिता की विशेष समस्या नहीं मानता।

प्र.- कई संस्थानों में मालिक ही संपादक भी हैं। संपादकीय कामों के बगैर किसी कार्यानुभव के क्या किसी को संपादक होना चाहिए?
उ.- मालिक संपादक हो, इसके खिलाफ मैं नहीं हूं। ऐसे बहुत से अच्छे संपादक हैं जो मालिक भी हैं। एन राम (हिंदू), हरि किशोर (डेक्कन हेराल्ड), कर्पूर चन्द्र कुलिश (राजस्थान पत्रिका), लाला जगत नारायण, विजय कुमार (पंजाब केसरी), नरेन्द्र मोहन (जागरण) आदि अच्छे संपादक रहे हैं और हैं। लेकिन जो लोग संपादक के रूप में सिर्फ अपना नाम देना चाहते हैं या जिनके लिए संपादक का नाम छपने से मंत्रियों के दरवाजे खुल जाते हैं, उस पर मुझे आपत्ति है।

प्र.- मौजूदा समस्याओं मसलन सांप्रदायिकता, जातीयता आदि को बढ़ाने में क्या प्रेस की भी भूमिका रही है? इस संदर्भ में उसे किस तरह की नीति अख्तियार करनी चाहिए?
उ.- बहुत बुरी भूमिका रही है। मैं समझता हूं कि एक दौर, जिसमें सैंकड़ों नौजवानों ने अपने को जलाकर मार डाला, के पीछे सबसे बड़ी भूमिका अखबारों की रही है। कुछ अखबारों ने बाकायदा इस पर कैम्पेनचलाया। मंडल का विरोध उन्हें तब तक संतुष्ट नही कर पाया जब तक नौजवान जलकर मरने नहीं लगे। जलकर मरने वालों का समाचार जब न्यूज़रूम में पहुंचता था तो वहां जैसे उल्लास का एक वातावरण बन जाता था। उसी तरह राम मंदिर मामले में भी देखने को मिला कि पत्रकार कार सेवक बन बैठे। मैं यह नहीं कहता कि पत्रकार धार्मिक भावना से अछूता रहे, पर इतना मैं जरूर सोचता हूं कि पत्रकार को चाहिए कि इस भावना को दबाकर, समेटकर रखे। इसका प्रचार अखबार के माध्यम से न करे।

प्र.- प्रभाष जोशी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघवादी जैसे संगठनों को कमजोर करने के लिए पत्रकारों को भाजपा का समर्थन करना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो सारे देश में पंजाब जैसी स्थिति हो जाएगी। उनकी इस टिप्पणी पर आप क्या सोचते हैं?
उ.- मैं चूंकि यह नहीं जानता हूं कि प्रभाष जोशी जी ने किस संदर्भ में यह बात कही है। वैसे इतना मैं जरूर कहूंगा कि विहिप, बजरंग दल, आरएसएस को भाजपा से अलग मानकर अगर वे कोई विश्लेषण करते हैं तो मैं विनम्रतापूर्वक इससे असहमत होना चाहूंगा। मैं भाजपा को विहिप, आरएसएस और बजरंग दल से अलग कोई सत्ता नहीं मानता और न मैं यह मानता हूं कि भाजपा में आडवाणी जी खराब हैं या अटल जी अच्छे हैं। मैं इन सबको एक ही परिवार, संघ परिवार का सदस्य मानता हूं।

(15 नवंवर 1992, राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप)


पत्रकारिता का महानायक- सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयनः पृष्ठ 404-410

'इतनी सुखद स्थिति हिन्दी की कभी नहीं रही’


प्र.- हिंदी के अखबार और बची हुई पत्रिकाओं की क्या दशा है
? आप उनको किस स्थिति में पाते हैं?
      
उ.- हिन्दी के अखबारों की स्थिति बहुत अच्छी है। अगर उनकी तुलना पिछले पांच, दस, पन्द्रह व बीस सालों से की जाए तो स्थिति अच्छी है। नेशनल रीडरशिप सर्वे की पांचवीं रिपोर्ट आई है। जो मोस्ट आथेंटिक रिपोर्ट है। उसमें देश के दस बड़े अखबारों में इस बार पांच अखबार हिन्दी के हैं। पहले नंबर पर हिंदी का अखबार पंजाब केसरी है। चार और हिन्दी के अखबार हैं-  दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, मध्य प्रदेश का नवभारत और दैनिक भास्कर। आज तक ऐसी स्थिति नहीं रही। 1977 में हिंदी का एक अखबार पहली बार एक लाख की सरकुलेशन पर पहुंचा था। आज 17-18 साल बाद स्थिति यह है कि देश के दस बड़े अखबारों में पांच हिंदी के हैं। उन दस में से हिंदी के अखबारों का शेयर 52 प्रतिशत है और 48 प्रतिशत में देश के बाकी अखबार हैं जिसमें अंग्रेजी और सभी भारतीय भाषाओं के अखबार हैं।

पत्रिकाओं में स्थिति और भी ज्यादा अच्छी है। देश की दस बड़ी पत्रिकाओं में से सात हिन्दी की पत्रिकाएं हैं। बाकी तीन अंग्रेजी की हैं। इस देश में इतनी सुखद स्थिति तो हिन्दी की कभी रही ही नहीं, पत्रिकाओं व दैनिकों- सभी में हिन्दी शिखर पर है। जितना लोग बता रहे हैं उतनी स्थिति बुरी नहीं है। पाठकों की संख्या बढ़ रही है। अखबारों की संख्या बढ़ रही है। अखबारों की पृष्ठ संख्या बढ़ रही है। अखबारों में रंग बढ़ रहा है। विज्ञापन बढ़ रहा है। सब कुछ बढ़ रहा है। सिर्फ एक रोने का माहौल भी साथ-साथ चल रहा है।

प्र.- कंटेंट के स्तर पर ये कहां है?
उ.- कंटेंट केस्तर पर देखने की बात अलग है। मुझे लगता है हिन्दी का पूरा का पूरा जो माहौल है वह रोने का एक माहौल है। मैं पिछले कई सालों से देख रहा हूं कि लोग विलाप में लगे हुए हैं कि हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं समाप्त हो रही हैं। कुछ पत्रिकाएं बंद हो रही हैं। उनमें टाइम्स आफ इंडिया प्रकाशन समूह की कुछ पत्र व पत्रिकाएं बंद हो गई हैं। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हिन्दी में कोई भारी संकट आया हुआ है। जो भी उनका स्तर है, अंग्रेजी से उनकी तुलना करना मैं समझता हूं उचित नहीं है। अंग्रेजी की अपनी सारी की सारी इकॉनामी अलग होती है। उसके काम का स्केल अलग होता है। 32, 64 पेज का वह अखबार निकालते हैं, बेचते हैं। वह अलग मामला है। जहां तक अन्य भारतीय भाषाओं का सवाल है, उनमें हिन्दी के अखबार तुलनात्मक दृष्टि से बहुत बुरे नहीं हैं।

प्र- लेकिन कंटेंट के स्तर पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
उ.- कंटेंट के स्तर पर हिन्दी के अखबार कितने महान थे जरा आप मुझे बताएंगे? पहले हिन्दी के चार पेज के राष्ट्रीय अखबार हुआ करते थे, बाद में छह पेज के हुए। फिर आठ पेज के हुए। हिन्दी पत्रकारिता का जिसे स्वर्णयुग कहते हैं तब भी छह से आठ पृष्ठों के अखबार हुआ करते थे। जिनमें आप कहीं भी कुछ भी उलटा-सीधा भरा करते थे। कोई महान परम्परा थी हिन्दी पत्रकारिता, जो कि पिछले पांच साल में नष्ट हो गई हो-  ऐसा नहीं है।

प्र. पत्रिकाओं की दृष्टि से एक सूनापन नजर आता है।
उ.- सारी दुनिया में जहां पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक्प्लोजन हो रहा है उसमें पत्रिकाओं की स्थिति थोड़ा खराब होगी। इनमें वही पत्रिकाएं टिकेंगी जिनका अपना एक खास पाठक वर्ग है। जिन्होंने अपनी पत्रिकाओं का एकदम फोकस कर रखा है कि कसके लिए, किन विशेष पाठकों के लिए निकाल रहे हैं। जब मैं यह कह रहा हूं कि देश की दस बड़ी पत्रिकाओं में सात हिन्दी की हैं तो सातों पत्रिकाएं ऐसी हैं जिनका फोकस बहुत साफ है। सरिता, मनोरमा या माया जो भी हैं अपने-अपने पाठक वर्ग के प्रति उनका दिमाग साफ है-  किसके लिए वह निकल रहे हैं।

इससे पहले हिन्दी की जो पत्रिकाएं थीं, जो कि सफल पत्रिकाएं थीं, घालमेल पत्रिकाएं थीं। धर्मयुग था सबके लिए। साप्ताहिक हिंदुस्तान था सबके लिए। उसमें दो पन्ने बच्चों के लिए। दो पन्ने महिलओं के लिए। एक पन्ने में विज्ञापन। एक पन्ने में अमुक। एक पन्ने में चर्चा, साहित्य। वह स्थिति तभी तक चल सकती थी। एक तो दैनिक कमजोर थे, उनके संडे एडिशन बहुत ही कमजोर थे। उनमें कलर नहीं था। अखबारों में सिर्फ सरकार की दी हुई खबरें छपती थीं और ये मनोरंजन मुहैया नहीं कर पाते थे। इसलिए पत्रिकाएं उनके पूरक के रूप में चलती थीं। आज हिंदी के अखबार इतने मजबूत हो रहे हैं, उनकी क्वालिटी की बात मैं अभी नहीं करूंगा, कि वे समाचार देते हैं, विचार देते हैं, फीचर देते हैं, रंगीन पृष्ठ देते हैं।

दूसरी तरफ टेलीविजन आपके सिर पर चढ़कर बैठा हुआ है। तो इसमें से पत्रिकाएं जिनके दिमाग में यही साफ-साफ नहीं है कि किस पाठक वर्ग के लिए वह पत्रिका निकाल रहे हैं, पिटनी थीं और पिट गईं, इसमें रोना क्या?

प्र- तो क्या बेहतर अखबार निकलेंगे?
उ.- जिस तरह के अखबार निकल रहे हैं, इनमें धीरे-धीरे प्रतियोगिता शुरू हो रही है। इसके कारण मुझे लग रहा है कि थोड़ी बेहतरी तो आ ही रही है। पहले एजेंसी की खबरों से सिर्फ अखबार भरते थे। जिनको बड़े-बड़े राष्ट्रीय अखबार कहते हैं वे भी सिर्फ एजेंसी की खबरों से छपते थे। आजकल मध्य प्रदेश के अखबारों को या उत्तर प्रदेश के अखबारों को ही लीजिए तो वे कोशिश करते हैं कि उनके प्रतिनिधि हों। मैंने दिल्ली में हिन्दी अखबारों के इतने बड़े-बड़े ब्यूरो कभी नहीं देखे।जितने बड़े ब्यूरो चल रहे हैं, वे विशेष खबरें देते हैं। बाहर संवाददाता भेजने लगे हैं। कहीं बड़ी घटना हो तो वहां अपने संवाददाता भेजने लगे हैं। जैसे-जैसे प्रतियोगिता बढ़ेगी वैसे-वैसे क्वालिटी बढ़ेगी। आप देखिए पहले हिन्दी के अखबारों में व्यापार की कितनी खबरें होती थीं। अमर उजाला को ही लीजिए। वहां पर न सिर्फ रोज व्यापार की खबरें होती हैं बल्कि सप्ताह में दो बार वे रंगीन बिजनेस सेक्शन देने लगे हैं। मैं समझता हूं कि यह बहुत बड़ा इम्प्रूवमेंट है।

प्र.- पत्रकारिता में प्रतिबद्धता का अभाव साफ नजर आता है?
उ.- प्रतिबद्धता किसके प्रति? अब हम यह तुलना करें कि अपनी पत्रकारिता आजादी से पहले जैसी हिन्दी पत्रकारिता हो या और कोई पत्रकारिता हो तो मैं समझता हूं कि यह लोगों से बहुत अव्यावहारिक अपेक्षा है। आजादी से पहले जो पत्रकारिता थी एक तो हम उसके स्केल को नहीं समझते हैं। लोग आजादी की लड़ाई के हथियार के रूप में पत्र निकालते थे। लेकिन उन पत्रों की लागत क्या होती थी? उनमें कितना पैसा लगता था? उस पैसे को लेकर आप एक लड़ाई लड़ सकते थे और रिस्क भी ले सकते थे। आज एक पत्र निकालना एक व्यक्ति के बूते की बात नहीं। पत्र निकालने के लिए लाखों-करोड़ों की पूंजी लगाएगा जाहिर है कि वह उस पूंजी से कुछ पैसा निकालेगा तभी तो लगाएगा। वरना क्यों लगाएगा? जो आदमी दुकान करता है हम उससे अपेक्षा नहीं करते हैं कि अपनी पूंजी लगा कर वह प्रतिबद्धता के लिए सारी की सारी पूंजी लुटा दे। जो कारखाना लगाता है उससे नहीं करते। एक किसान अपना हल, बीज, खाद, पानी डाल कर जो करता है वह भी अपनी लागत निकालने के लिए आंदोलन करता रहता है और कोशिश करता है कि उसे सही कीमत मिले। लेकिन अखबार में जो आदमी पैसा लगाता है उससे हम यह अपेक्षा करते हैं कि नहीं साहब, वह कमर्शियल न हो, वह मिशन के तौर पर निकाले। मिशन के तौर पर गीता प्रेस गोरखपुर तो निकल सकता है। वहां किसी एक संस्था का पैसा है। या कोई भी इस तरह की संस्था निकाल सकती है। लेकिन व्यक्ति या कोई उद्योग समूह पूंजी लगाएगा तो जाहिर है कि उसमें से पैसा निकालने की कोशिश करेगा। जब पैसा निकालने की कोशिश करेगा तो उसकी प्रतिबद्धता कई स्तरों पर होगी।

एक प्रतिबद्धता तो होगी पेशे के प्रति प्रतिबद्धता। सबसे ज्यादा मेरे लिए महत्वपूर्ण यह है कि एक पत्रकार है और वह अपनी पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्ध है तो मैं समझता हूं कि वह ईमानदारी का काम कर रहा है। हम जो अखबार निकाल रहे हैं उसका उद्देश्य यह है कि हम लोगों के सामने अपनी कोई बात कहना चाहते हैं। क्या बात कहनी है? यह हमने तय किया है कि अमुक बात कहनी है और मैं उस बात को कहने जा रहा हूं। उसके प्रति ईमानदारी हो और सारा का सारा ध्यान उस पर लगा रहे कि उस बात को हम लोगों से कैसे कह सकते हैं और उसको चलाने के लिए जितने पैसे की आवश्यकता हो उसमें से पैसा भी निकलता रहे। उसमें से लाभ भी होता रहे। लेकिन उसे हम किसी दूसरे टूल के रूप में इस्तेमाल न करें, तो वहां तक की प्रतिबद्धता तो हमारे समझ में आती है।

जैसे कि मैं समझता हूं कि एक शिक्षक की प्रतिबद्धता शिक्षण के प्रति होगी या एक वकील की प्रतिबद्धता अपने वकालत के पेशे के प्रति होगी। वैसे ही एक पत्रकार की प्रतिबद्धता पत्रकारिता के प्रति होनी चाहिए। लेकिन कहें कि नहीं साहब इसे छोड़-छाड़ कर आप हमारे अमुक कॉज के लिए प्रतिबद्ध रहिए। अमुक कॉज के लिए आप प्रतिबद्ध हैं तो उस संस्था से कहिए या उस कॉज में विश्वास करने वाले लोगों से कहिए। उस तरह की पत्रिका निकालें और चलाएं। उसकी इकॉनॉमिक्स क्या हो, उसका व्यापार का तंत्र क्या हो उसे वह समझें व चलाएं। वह उनकी अपनी परेशानी है। क्रांति के लिए निकालना चाहते हैं तो क्रांति का अखबार निकालिए। लेकिन अपने क्रांतिकारी ढंग से उसकी पूंजी जुटाएं। लेकिन आप कोशिश करें कि नहीं, हमारा अखबार तो सेठ निकालें, सारे खर्चे सेठ बर्दाश्त करें और उसमें बैठकर क्रांति मैं करूं तो मैं समझता हूं कि यह अनुचित मांग है।

प्र.- जैसे ही सत्ता बदलती है, शासक वर्ग बदलता है तो वैसे ही अखबार अपने को बदल लेते हैं।
उ.- जाहिर है बदलने के पीछे कुछ-एक कारण तो शुद्ध व्यावसायिक ही होते हैं। वही लोग बदलते हैं जिनकी पत्रकारिता के प्रति अपनी कोई प्रतिबद्धता नहीं है। जिनकी पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्धता है, उनकी अपने जीवन दर्शन के प्रति प्रतिबद्धता है। उन्हें मालूम है कि सरकार बदले, राज बदले या काज बदले हम जिस उद्देश्य के लिए पत्र निकाल रहे हैं उस उद्देश्य के लिए पत्र निकालते रहेंगे। 175 साल से लंदन से इकॉनामिस्ट पत्रिका निकलती है। उसका जो उद्देश्य है उसमे आज तक एक कॉमा का परिवर्तन नहीं आया है। वह अपने हर अंक में ओपनिंग पृष्ठ पर उस उद्देश्य को प्रकाशित करते हैं। कितने राज आए, कितने काज गए, कितने मंत्री गए, कितनी सरकारें बदलीं, पर वे उसे नहीं बदलते।
मैं समझता हूं कि पूंजीवाद की सबसे अच्छी प्रतिनिधि पत्रिका इकॉनामिस्ट है। पूंजीवाद के प्रति भी आप प्रतिबद्ध हैं तो भी अपनी प्रतिबद्धता को रखते हुए निकालेंगे, लेकिन आपकी प्रतिबद्धता पूंजीवाद के प्रति नहीं है और अवसरवाद के प्रति प्रतिबद्ध हैं तो जब जैसा आएगा आप वैसा बनते जाएंगे। गंगूराम आए तो आप गंगूवादी हो गए, मंगूराम आए तो आप मंगूवादी हो गए। तो उनकी बात क्या करनी है।

प्र.- कुछ ऐसे अखबार निकल रहे हैं और जैसा सुनने में आ रहा है कि कुछ और निकलने वाले भी हैं जिनका उद्देश्य अपने हितों की रक्षा के लिए ही अखबार निकालना है।
उ.- दरअसल ये हित हैं क्या? एक चिटफंड वाली कंपनी है। जिनका काम यह है कि गरीबों के पास जाकर, उन्हें अपने धोखेबाजी की योजना में फंसा लिया जाए और उसके बाद उनके पास से ज्यादा से ज्यादा पैसा खींचा जाए और उससे जो परेशानियां पैदा हों उनसे बचने के लिए आप एक अखबार निकाल लेते हैं। आपको समाज में प्रतिष्ठा मिलती है। प्रतिष्ठा से ज्यादा आपके पास ब्लैकमेलिंग का एक औजार हो जाता है। मैं समझता हूं कि यह सरासर गलत है और इसके लिए अखबार निकल रहे हैं। सिर्फ इसी के लिए क्यों, आप टटपूंजिए राजनीतिज्ञ हैं, अपनी राजनीति चलाने के लिए अखबार निकाल लेते हैं, आप मोहल्ले के गुंडे हैं अपनी गुंडई को चलाने के लिए अखबार निकाल लेते हैं, आप शराब के व्यापारी हैं और मजदूर नेता की हत्या करा देते हैं और अपने को बचाने के लिए अखबार निकाल लेते हैं। इस तरह के जो अखबार हैं उनको अखबार नहीं कहना चाहिए। उनके प्रति हमें कोई बहुत ज्यादा चिंतित भी नहीं होना चाहिए। जिस पाप के रास्ते में वे पैदा हुए हैं उसी पाप के रास्ते से समाप्त भी हो जाएंगे। वे हमारी बातचीत के विषय के योग्य नहीं हैं।

प्र.- जिस प्रतिष्ठान से अंग्रेजी और हिन्दी दोनों के अखबार निकल रहे हैं तो यह बात सामने आती है कि वह हिन्दी की उपेक्षा करते हैं।
उ.- हिन्दी से पैसा नहीं आता है इसलिए उपेक्षा करते हैं। आप संयुक्त परिवार में देखिए कि वह बेटा जो सबसे ज्यादा पैसा कमाता है उस पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है। घर में पांच बेटे कमा रहे हों, जो सबसे ज्यादा पैसे लाता है उसे हलवा पूरी सबसे पहले देते हैं। जो सबसे कम लाता है, चाहे जितना मेहनती, ईमानदार और जितना भी सच्चरित्र हो, उसे सबसे आखिर में खाने का मौका मिलता है। उसे सूखी रोटी ही दी जाती है। यह तो हम लोगों का भारतीय समाज है। इसमें अगर बड़े संस्थान में लोग ज्यादा धन अपने अंग्रेजी अखबारों को दे रहे हैं जिनसे ज्यादा पैसा मिल रहा है तो इस बात के लिए दोष क्यों देना है। इसे समझने की कोशिश कीजिए।

प्र.- तो क्या हिन्दी के अखबार लाभ में नहीं आ सकते हैं।
उ.- हिन्दी के अखबार बहुत लाभ की ओर जा रहे हैं। देश के दस बड़े अखबारों में जिन पांच अखबारों का मैने नाम बताया वे पांच ऐसे अखबार हैं जो किसी बड़े औद्योगिक या किसी बड़े अखबार समूह के बाइ-प्रोडक्ट के रूप में नहीं निकल रहे हैं। वे अपने बूते पर निकलते हैं। उन अखबारों के बूते पर उन संस्थानों का नाम है। और वे उसी को आगे बढ़ाते जा रहे हैं। दिन दोगुना, रात चौगुना पैसा उसमें कमा रहे हैं। उनका पूरा ध्यान उसी में रहता है। अमर उजाला, दैनिक जागरण, भास्कर या राजस्थान पत्रिका के जो मालिक वहां पर हैं, इस तरह की दुविधा उनके मन में नहीं है। दुविधा उनके मन में है जहां हिन्दी के अखबारों के निकालने के ऐतिहासिक कारण हैं।

हिन्दी के अखबार क्यों निकले थे? वे हिन्दी के प्रेम के कारण नहीं निकले थे। आजादी के बाद लोगों को यह लगा था कि शायद इस देश में से अंग्रेजी समाप्त हो जाएगी। अंग्रेजों के जाते ही अंग्रेजी समाप्त हो जाएगी और हिन्दी राष्ट्रभाषा बन जाएगी। तो रातों रात इन लोगों ने हिन्दी के अखबार निकाल लिए। आप देखें कि टाइम्स आफ इंडिया का नवभारत टाइम्स 1946-48 के बीच निकला। जब आजादी की लड़ाई समाप्त हो रही ती और लग रहा था कि देश आजाद हो रहा है, तो उसी समय हिंदुस्तान भी निकला। इनके अंग्रेजी के अखबार बहुत पहले से हैं। और तो और जनसत्ता बाद में भले ही निकला हो लेकिन करीब 1953 में वह पहले निकल चुका है। उस समय इन लोगों ने सोचा था कि राजनीतिज्ञों की जो नई पीढ़ी आ रही है वे शायद हिन्दी जानने वाले होंगे। उन्हें प्रभावित करने के लिए हिन्दी भाषा का अखबार चाहिए। इन्हें ये भी लगा होगा कि शायद हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा बन जाए। हम व्यापार में न पिछड़ जाएं इसलिए हिन्दी के अखबार निकाल लिए। ओलिवेटी जैसी कम्पनी जो टाइपराइटर बनाती है, ने उस समय (1947-48) में हिन्दी का टाइपराइटर यह सोच कर निकाल दिया था कि शायद देश में हिन्दी के लाखों टाइपराइटरों की जरूरत पड़े। फिर सब का भ्रम खत्म हो गया। इस देश में अंग्रेजी ही रहेगी, जाने वाली नहीं है। ओलिवेटी का भी भ्रम खत्म हो गया। उसने भी माडल बनाना बंद कर दिया। सेठों का भी भ्रम खत्म हो गया। वे भी अंग्रेजी में जुट गए। तो इनकी तब भी प्रतिबद्धता व्यापार के प्रति थी। तब भी कमिटमेंट उससे उतना ही व्यापारिक लाभ लेने के प्रति था। हिन्दी, हिन्दी समाज या हिन्दी भाषी पाठकों के प्रति नहीं था। तो अपने काम को अब वे नंगे रूप में कर रहे हैं।

प्र.- संपादक नाम की संस्था को खत्म किया जा रहा है। क्षेत्रीय अखबारों में तो मालिक ही संपादक है। लेकिन महानगरों से निकलने वाले बड़े अखबारों में संपादक का कद कम कर दिया है। वहां मैनेजर या कारपोरेट के लोग ज्यादा हावी हैं। इससे पत्रकारिता पर किस तरह का असर पड़ेगा।
उ.- कई तरह के असर पड़ेंगे। एक तो पत्रकारिता का जो प्रोफेशनल स्वरूप है, वह समाप्त हो रहा है। काम तो कोई भी चला लेता है। आप बहुत बड़ा कारखाना लगाएं। उसमें आप मैकेनिकल इंजीनियर रखने की बजाए एक मैकेनिक को रख दीजिए, तो वह काम तो चला ही लेगा। लेकिन वह काम ही चला सकता है उसे कोई नई दिशा नहीं दे सकता है। उसे कहीं आगे नहीं बढ़ा सकता है। उसका कोई विजन नहीं होगा। तो वह अब अखबारों में साफ झलतने लगा है।
मालिक का संपादक होना, मैं कोई बुरा नहीं मानता। अगर मालिक है और उसके योग्य है कि संपादक हो तो उसमें कोई बुराई नहीं है। मैं बहुत सारे मालिकों को जानता हूं जो कई बहुत सारे प्रोफेशनल संपादकों से बहुत अच्छे संपादक हैं। यहीं (आज तक, इंडिया टुडे ग्रुप) जहां मैं बैठा हुआ हूं मैं समझता हूं कि अरुण पुरी इस देश के सर्वश्रेष्ठ संपादको में से एक हैं। उनकी अयोग्यता इसलिए नहीं होनी चहिए कि वह मालिक हैं इसलिए संपादक नहीं बन सकते। पहले मैं जहां (टेलीग्राफ में) था, अभिक सरकार (आनंद बजार पत्रिका) मैं समझता हूं कि बहुत ही उच्च कोटि के संपादक हैं। हिंदू अखबार है, जहां एन राम या उनके परिवार के लोग बैठक हैं, बहुत ही अच्छे संपादक हैं। ऐसा भी नहीं है कि मालिक संपादक कोई पहली बार हुआ है। आजादी की लड़ाई में जो भी अखबारों की बड़ी भूमिका थी वे मालिक संपादक लोग ही थे। बाद के भी प्रोफेशनल संपादक कब आए?

आजादी के बाद संपादकों की एक पीढ़ी आई जो बड़े घरानों ने बनाई। उस समय भी उनको पता नहीं था कि इनकी कितनी आवश्यकता है। इनकी क्या भूमिका है। फिर बाद में पता चला कि अरे, यह तो बहुत सारे बिना रीढ़ के लोग संपादक बन कर आए हैं, जिनका काम ही था मालिकों की जी हजूरी करना। मालिकों के काम के लिए उनकी दलाली करना, सरकार में दलाली करना, ब्यूरोक्रेसी में दलाली करना, सत्ता में दलाली करना। जब उनको लगा कि ऐसे संपादक हैं जो दलाली का ही काम करते हैं और दलाली का काम करके हमें लाभ पहुंचा रहे हैं तो उन्हें बिचौलियों की भूमिका की आवश्यकता नहीं रही। जहां तगड़े संपादक थे वहां संपादक हैं। संपादक जो स्पीसीज़ है, इसको कोई समाप्त नहीं कर पाएगा क्योंकि ये प्रोफेशनल ट्रेंड-हुनर जाने वाले लोग हैं। इनकी आवश्यकता हमेशा रहेगी। आप अच्छा अखबार निकालने जाएंगे, बड़े बनने की कोशिश करेंगे तो आपको संपादक की आवश्यकता पड़ेगी। आप उसे संपादक कहें, कार्यकारी संपादक कहें, सह संपादक कहें या मुख्य उप संपादक कहें। जहां भी बिना संपादक के अखबार निकल रहे हैं वहां संपादक तो हैं, आपने उसका पदनाम बदल दिया है। उसकी बार्गेनिंग क्षमता कितनी है, इसका उसकी तनख्वाह से पता चलता है। यह संक्रमण काल है थोड़े दिनों तक ऐसा चलेगा फिर अपने आप ठीक हो जाएगा।

मैं नाम गिना सकता हूं ऐसे संपादकों के, जिनकी पूरी की पूरी जेनेरेशन निकल गई है। जो चाटुकार थे, दलाल थे, बिचौलिए थे, कमीशनखोर थे। वे ससुरे रहें या न रहें उससे हमें क्या खास फर्क पड़ता है। न हमें फर्क पड़ता है और न ही हिन्दी पत्रकारिता को।

प्र.- असल में जो लाइजनिंग करने वाले हैं उनकी संख्या काफी बढ़ी है।
उ.- बढ़ेगी ही। क्योंकि पूरा का पूरा विस्तार इस तरह से हो रहा है। पहले क्या था, कि कोई एक जूट मिल का मालिक एक अखबार निकल लेता था तो पूरे जूट उद्योग का स्वार्थ उसके साथ साथ था। अब ऐसा नहीं है। अब एक चिटफंड जो सिर्फ अलीगढ़ में चलता है, अखबार निकाल कर बैठा है। दूसरा चिटफंड सिर्फ गोरखपुर में चलता है वह भी निकाले बैठा है। कोई माफिया है, शराब बना कर बेच रहा है तो वह अखबार निकाले बैठा है और अखबारों की जो स्थिति है उसमें पत्रकारों की भूमिका कोई कम नहीं है। इस दलाली को बढ़ाने में पत्रकारों की भी अहम भूमिका है। दलाली भी बढ़ी है। लेकिन मैं कह रहा हूं उसमें अच्छी पत्रकारिता भी हो रही है उसी में आप दुनिया-भर की ऐसी रिपोर्टें भी देख रहे हैं जो कि इसके पहले आप कल्पना नहीं कर सकते थे। जिसको हम भारतीय पत्रकारिता का स्वर्णयुग कहते हैं उसमें एक इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग हुई हो, आप मुझे एक उदाहरण नहीं दे सकते। किसी सरकार की आलोचना हुई हो ऐसा एक संपादकीय मुझे नहीं दिखा सकते। 50, ‘60 और ‘70 के दशक तक आते-आते कोई नहीं। सरकार जो करे महान। नेहरू जी संसार के सबसे बड़े नेता। हमारा देश समाजवादी देश। कहीं आपने सुनी कोई आलोचना। तो आज जो यह दलाल पत्रकारिता है, आज जो चाटुकार पत्रकारिता है, यह कम से कम कुछ एक सवाल तो खड़े करती है। आप कहेंगे जिन कारणों से भी करती हो, नक्कारखाने में तूती की आवाज हो लेकिन होती है।

इस देश में इससे पहले तो पूरी की पूरी भाट व चारण पत्रकारिता थी। अब मैं नाम नहीं लूंगा। आप खुद कल्पना कीजिए बड़े-बड़े अखबारों के कौन-कौन संपादक हुए हैं और उनके क्या-क्या काम थे। किन-किन कारणों से संपादक हुए और क्यों बनाए जाते थे। क्यों रहते थे। क्या करते थे और क्या लिखते थे। इमरजेंसी के बाद, 77 के बाद जाकर हिन्दी पत्रकारिता की थोड़ी सी एक पहचान बनी। थोड़ी सी उसकी एक जबान आई। थोड़ी तल्खी आई। लोगों ने थोड़ी खोजबीन शुरू की। लेकिन चूंकि हम लोग पास्ट (भूत) में जीने के आदी हैं। महान, इतना महान स्वर्ण युग था, समाप्त हो गया। देखिए साहब! बैठकर रो रहे हैं। बिना मतलब छाती पीट रहे हैं। ऐसा कुछ नहीं था। मैं वही जानने के लिए एक बार नेशनल आरकाइव्ज़ में जाकर पुराने पत्रों को, जो महान पत्र कहे जाते थे, पढ़ कर देख आया कि कितनी क्रांतिकारिता हुई।

प्र.- इलेक्ट्रानिक मीडिया अखबारों के सामने किस तरह की चुनौती रख रहा है।
उ.- बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। उसके कारण अखबारों को बदलना पड़ रहा है। मैं तो हाल ही में इस मीडियम में आया हूं। मैं देख रहा हूं कि यह मीडियम बहुत ज्यादा अनुशासन मांगता है। इसका व्याकरण अलग है। इसमें फालतू बात की गुजाइश नहीं है। इसमें अनाप-शनाप खबरें देने में मुश्किल आती है। अखबार में तो आप बैठे-बैठे लिख देते हैं कि सूत्रों ने बताया और कोई भी काल्पनिक कहानी लिख देते हैं। यहां तो कोई रिपोर्ट बनाने से पहले आपको जिस आदमी ने बताया उसको दिखाना पड़ता है। उसको बोलते हुए दिखाना पड़ता है। तो जैसे-जैसे इसका विस्तार होगा वैसे-वैसे अखबरों पर दबाव पड़ेगा। इस माध्यम से हम जो रिपोर्ट बता रहे हैं उसमें वह आदमी बोलता है। हम कहें कि उस घटनास्थल पर लाखों की भीड़ मौजूद थी, तो लाकों की भीड़ के सामने एक बार कैमरा आपको ले जाना पड़ता है।

प्र.- इसमें अखबार टिक पाएंगे?
उ.- टिकना होगा अखबारों को। यानी दुनिया में अखबार टिके हैं। जहां बीबीसी, सीएनएन निकलता है, वहां अखबार टिके हुए हैं। लेकिन अखबार अपने आप को बदलते हैं। उनकी रिपोर्टिंग का तरीका बदलता है। छपाई बदलती है। रंग बदलते हैं। उनका सोचने का सारा ढंग बदलता है। आज हमारे अखबारों में क्या है। कोई अखबार उठा कर देख लीजिए। अगर पीआईबी और सरकारी सूत्रों से खबर आनी बंद हो जाए तो अखबार चलाने मुश्किल हो जाएंगे। तो आपको वह सारा बदलना पड़ेगा, जिसे भोजपुरी में कहते हैं अपना जांगर ठठाना पड़ेगा। घटनास्थल पर जाएंगे। देखेंगे खबरों को ढूंढेंगे। वास्तविक खबर देंगे।

हमें पत्रकारिता में छोटी सी बात बताई गई थी कि आप भविष्य काल की खबरें देना बंद कर दें तो फिर देखें। पुल बनेगा, सड़क बनेगी, टेलीफोन लगेगा, दो सौ करोड़ रुपये आएंगे। अमुक होगा... गा-गे-गी निकाल दें तो फिर देखिए कितने समाचार बचते हैं। जो समाचार बचते हैं वह समाचार हैं। भाषण निकाल दें। भाषण गा-गे-गी होता है। गा-गे-गी निकाल कर जो समाचार करना शुरू करेंगे, वे बचेंगे। जो नहीं करेंगे, समाप्त हो जाएंगे। बाजार की मार वहां पड़ेगी और इसके लिए भी विलाप करने की आवश्यकता नहीं है। जो समाप्त हो गए, सो हो गए।

(29 फरवरी, 1996, समकालीन जनमत)

पत्रकारिता का महानायक- सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन, पृष्ठ 413-420