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शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

जद-भाजपा एक छायायुद्ध लड़ रहे हैं

भारतीय जनता पार्टी कुछ विचित्र सशोपंज में है। न तो उसे राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार को निगलते बन रहा है और न ही उगलते। कश्मीर-पंजाब समस्या हो या रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का समाधान ढूंढ़ने की चेष्टा, चाहे मंडल आयोग की सिफारिशें लागू या न लागू करने का मामला हो या मूल्यवृद्धि के प्रश्न पर सरकार की असफलता का सवाल। भाजपा करीब हर महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार के काम या नीतियों से नितांत अप्रसन्न है। पर विडम्बना कुछ ऐसी है कि सरकार से हाथ खींचने की बात तो दूर, वह जमकर आलोचना भी नहीं कर पा रही है।

भाजपा भले ही यह कहे कि इस सरकार को गिराने से कांग्रेस को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि गैर-कांग्रेसी पार्टियां सरकार चला नहीं सकतीं, इसलिए वह अपने सीने पर मजबूरन पहाड़ ढो रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस सरकार की रीति- नीति के कारण भाजपा का अंकगणित थोड़ा गड़बड़ा गया है। उसे लग रहा है कि आज यदि सरकार गिर जाती है, तो सबल एवं एकल विकल्प बनने का भाजपा का सपना पूरा नहीं हो सकता, जिसके लिए यह पार्टी सरकार बनने के पहले दिन से ही कोशिश कर रही है। सच तो यह है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार और उसका जनता दल तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सारे ऊपरी प्रेम और सौहार्द्र के बावजूद अंदर ही अंदर लगातार एक-दूसरे को काटने में लिप्त रहे हैं।

इन लोगों ने यह सोचा कि राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस विफल हो चुकी है और यह पार्टी अगले चुनाव तक इस काबिल नहीं रह पाएगी कि सार्थक चुनौती के रूप में उभर सके। इसलिए अगली लड़ाई तो विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व पर धर्मदीप्त राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी शक्तियों के बीच लड़ी जाएगी। यही सोचकर दोनों पक्ष सरकार गठन के पहले दिन से ही अगले निर्वाचन को लक्ष्य बनाकर अपनी गतिविधियां संजो रहे हैं। फर्क सिर्फ यह है कि एक नंगी लड़ाई लड़ने की बजाए दोनों पक्ष शतरंज बिछाकर एक अच्छे मित्रा की तरह अपनी-अपनी चाल चल रहे हैं और क्षमतानुसार अगली तीन-चार चालों के बारे में सोच रहे हैं।

मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए सरकारी निर्णय के ठीक पहले तक शतरंज का यह खेल अपने अपने प्यादों को एक-एक कर आगे सरकाने तथा सिर्फ घेरेबंदी करने तक सीमित था। भाजपा का कहना था कि लामबंदी थोड़े दिनों तक इसी तरह चलती रहेगी कि अचानक मंडल आयोग के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इनका एक महत्त्वपूर्ण प्यादा मार डाला और इस तरह खेल को खूनी दौर तक पहुंचाने की पहल कर डाली। भाजपा ने जवाबी हमले के रूप में सोमनाथ से अयोध्या तक 10 हजार किलोमीटर की रथयात्रा का अपना इरादा घोषित किया और पहली बार विश्वनाथ प्रताप सिंह को भाजपा ने शह देने की कोशिश की।

रामजन्म भूमि के प्रश्न पर भारतीय जनता पार्टी बहुत चतुराई से अब तक अपना खेल खेलती रही है। ऐसे सारे काम, जिनसे एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा की साख बढ़े और अगले चुनाव तक यह पार्टी देश में एक सक्षम विकल्प के रूप में उभर सके, भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व खुद करता रहा है। अन्य सारे काम, जिनसे हिंदू उग्रवाद को बढ़ावा मिले और देश में हिंदू एकता का ऐसा माहौल बने, जो आगे चलकर भाजपा के लिए मजबूत और विश्वसनीय वोट बैंक बन सके, विश्व हिंदू परिषद के जिम्मे है। इस खेल में तीसरा महत्त्वपूर्ण भागीदार है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो इन दोनों संगठनों से थोड़ी पृथक राय रखता है, लेकिन उसके क्रिया-कलाप अंततः उसी दिशा की ओर ले जाते हैं। अपने समर्थन, विरोध, आलोचना, प्रत्यालोचना तथा नरम- गरम नीतियों के बीच में तीनों संगठन राम जन्मभूमि के प्रश्न को अपनी वांछित दिशा में ले जाकर इसका सम्पूर्ण लाभ सिर्फ अपने पक्ष में उठाने का योजनाबद्ध काम कर रहे थे कि मंडल आयोग के रूप में इस योजना से भारी व्यवधान आ गया।

हो सकता है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिशों को ताबड़तोड़ लागू करने की घोषणा की, उस समय उनके सामने एक सीमित लक्ष्य सिर्फ यही रहा हो कि कैसे अगले दिन देवीलाल की रैली फ्लाॅप कर सकें और इसके दूरगामी परिणामों के बारे में उन्होंने ध्यान न दिया हो। पर अब जो बौखलाहट भाजपा नेतृत्व में लक्ष्य की जा रही है, उससे ऐसा नहीं लगता कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सिर्फ देवीलाल को ठिकाने लगाने के लिए ही यह मंडलास्त्र छोड़ा था।

अब तो इस विश्वास के लिए पूरा आधार दीख रहा है कि जो लड़ाई विश्वनाथ प्रताप सिंह और भाजपा शतरंज के बिसात पर सद्भावनापूर्ण वातावरण में लड़ रहे थे, उसकी अगली कड़ी निश्चय ही मंडल आयोग को लागू करने का निर्णय थी। अगस्त का पूरा महीना मंडल आयोग के उदर में समा गया और यह वही महीना है जिसे विश्व हिंदू परिषद ने कार सेवकों की सेना इकट्ठी करने, उन्हें ग्राम, शहर, ब्लॉक तथा जनपद स्तर पर संगठित करने तथा गांव स्तर पर उन वीरों का स्वागत करने के लिए चुना था। देशभर में यह कार्यक्रम कितना सफल-असफल हुआ, इसके बारे में कोई आधिकारिक जानकारी फिलहाल उपलब्ध नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश से जो सूचनाएं आई हैं वे विश्व हिंदू परिषद तथा उससे सहानुभूति रखने वालों को निश्चय ही चिंता में डालने वाली हैं। इस राज्य के 63 जिलों में से 16 में ही जिला स्तर पर स्वयंसेवकों का जत्था संगठित किया जा सका। बाकी राज्य आरक्षण के विरोध-समर्थन के माध्यम से बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था से उपजे असंतोष तथा अन्य सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक पिछड़ेपन तथा गैर बराबरी की सार्थक बहस में शामिल हो गया और रामजन्म भूमि का मामला पीछे पड़ गया। आरक्षण का विरोध या उसके समर्थन में आयाजित जुलूस और रैलियां आज भले ही एक जाति युद्ध का आभास दे रही हों लेकिन वास्तविकता यही है कि इस प्रक्रिया से ही वह सार्थक बहस प्रारंभ होगी जो सदियों से जड़ हिंदू समाज में कोई हलचल पैदा कर पाएगी। यह काम कोई राम शिला या राम ज्योति नहीं कर सकती, यह एहसास ही विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रमों की उत्तर प्रदेश में विफलता का मुख्य कारण है।

वि.हि.प. के कार्यक्रमों की विफलता की परिणति अंततः भाजपा और आरएसएस के राजनीतिक सपने के धराशायी होने में होगी, भाजपा नेतृत्व इस बात को अच्छी तरह समझता है। यही कारण है कि हर मोर्चे पर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की असफलता भाजपा के लिए अचानक मुखर चिंता का विषय हो गई है। सोमनाथ से अयोध्या तक की लंबी रथयात्रा का नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी खुद करें और अपने विधायकों-सांसदों को रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण में सक्रिय भागीदारी की अनुमति दें, यह राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के प्रति भाजपा के उग्र और नए आक्रामक तेवर की शुरुआत है। प्रश्न भविष्य में सत्ता की पूर्ण भागीदारी का है, इसलिए देश को इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि यह छायायुद्ध उग्र से उग्रतर भी हो सकता है, पूर्ण युद्ध में भी परिणत हो सकता है या फिर एक ऐसे यादवी संघर्ष का रूप ले सकता है जिसके अंत में सिर्फ वही कांग्रेस बची रह सकती है जिसका अंत अंतिम मानकर यह लड़ाई छेड़ी गई है।

(18 सितंबर 1990, नवभारत टाइम्स)

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

उत्तराखंड अपवाद है

उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों में आरक्षण के विरोध में एक व्यापक जनांदोलन छिड़ गया है। आंदोलन इतना व्यापक और सर्वग्राह्य है कि करीब-करीब सभी दल, जो राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण का समर्थन करते हैं, इस क्षेत्रा में मजबूरन इसका विरोध कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा मूलतः सवर्ण मानसिकता की पार्टियां हैं। मंडल आयोग के विरुद्ध जो हिंसक आंदोलन हुआ था उसमें निजी तौर पर इन्हीं दलों के नेताओं की सक्रिय भागीदारी थी। पर बाद में, जब मंडल आयोग लागू करने के अलावा कोई चारा नहीं था, तब सार्वजनिक और सैद्धांतिक रूप से आरक्षण के समर्थन में भी आगे आ गईं।

उत्तराखंड में जो पिछड़ों को आरक्षण दिए जाने के विरुद्ध आंदोलन छिड़ा हुआ है, उसमें इस तरह की भी कोई मजबूरी नहीं है। सभी राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां तथा छात्र-अध्यापक-बुद्धिजीवी इस आंदोलन में सक्रिय हैं। वे भी जो हर क्षेत्रा में आरक्षण का बढ़-चढ़कर समर्थन करते हैं, इस बार यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार के इस निर्णय का समर्थन आखिर कैसे करें। उत्तराखंड की सामाजिक संरचना मैदानी क्षेत्रों से बिल्कुल अलग है। यह बात सिर्फ उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों पर ही लागू नहीं होती, सारे पर्वतीय क्षेत्रों की सामाजिक संरचना मैदानों से भिन्न है। चाहे वह हिमाचल प्रदेश हो या पश्चिम बंगाल का पर्वतीय क्षेत्रा। इन क्षेत्रों में पिछड़ी जातियों के लोगों की संख्या नगण्य है। या तो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के रूप में सवर्ण हैं या दलित, अनुसूचित जातियों के लोग। बीच की जातियां यहां सिरे से नदारद हैं।

इसलिए यदि इन क्षेत्रों में भी मैदानी क्षेत्रों की तरह ही आरक्षण का प्रावधान किया गया तो इससे अनेक परेशानियां पैदा होंगी। एक अंदाज के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के कुमाऊं तथा गढ़वाल क्षेत्रा में अन्य पिछड़ी जाति के लोगों का प्रतिशत डेढ़ से दो के करीब है और ये लोग भी हाल के दिनों में ही मैदानों से चलकर पहाड़ों पर पहुंचे हैं। अब यदि उतर प्रदेश में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा जाता है और उसे पहाड़ी जिलों पर भी लागू कर दिया जाता है तो इसका अर्थ यह होगा कि मैदानी क्षेत्रा के लोग आरक्षण का लाभ लेकर पहाड़ी क्षेत्रा की नौकरियों पर कब्जा कर लेंगे।

इसमें कई मसले हैं। एक, एक ही राज्य में दो तरह के विधान कैसे चल सकते हैं कि जो नियम पूरे राज्य पर लागू होगा वह कुछ जिलों में नहीं लागू किया जाएगा। इस तर्क में दम है लेकिन इसकी अपनी सीमाएं भी हैं। यह तर्क तब दमदार होता, जब पूरे राज्य को एक इकाई के रूप में माना जाता। यहां तो यह स्थिति है कि इन जिलों के लोग अरसे से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं। आप उत्तराखंड कह लें या उत्तरांचल, इसकी मांग लंबे समय से चल रही है और इसे इस क्षेत्रा की आम जनता का व्यापक समर्थन भी मिल रहा है। अलग राज्य बनाने के लिए सक्रिय उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) को व्यापक समर्थन इसलिए नहीं मिलता कि उस क्षेत्र के राष्ट्रीय दल भी अलग राज्य का ही समर्थन करते हैं। पिछली सरकार ने विधासनसभा में प्रस्ताव पास करके केंद्र सरकार के पास भेज दिया था कि उत्तरांचल राज्य शीघ्र गठित कर दिया जाए।

पिछले चुनाव में भले ही मुलायम सिंह के गठबंधन को इस क्षेत्रा से सिर्फ एक सीट मिली हो पर वे भी सार्वजनिक रूप में उत्तराखंड निर्माण के पक्ष में रहे हैं और प्रशासनिक कार्यवाही का भी आश्वासन देते रहे हैं। यानी कुल मिलाकर राज्य में एक तरह की सर्वानुमति रही है कि पहाड़ी जिलों की आवश्यकताएं अलग हैं इसलिए इनकी व्यवस्था भी अलग होनी चाहिए। अलग उत्तराखंड राज्य भले ही अब तक न बना हो पर राज्य इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है कि वह एक न एक दिन अवश्य बनेगा तथा उसकी आवश्यकता भी है। ऐसी स्थिति में आरक्षण के प्रावधान को उसी तरह उस क्षेत्रा में भी लागू करने का क्या तुक है जहां अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों की संख्या दो प्रतिशत भी नहीं है। यदि ऐसा होता कि मुलायम सिंह यादव उत्तराखंड को अलग करने के विरोध में होते तो उनका यह तर्क समझ में आता कि एक राज्य में वे अनेक तरह के कानून नहीं लागू कर सकते, पर ऐसा भी नहीं है।

इसका मसला और भी गंभीर है। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रा की अर्थनीति भी बिल्कुल भिन्न है। वहां न तो ढंग के उद्योग धंधे हैं और न ही खेती। कोई भी व्यक्ति किसानी के सहारे अपनी जिंदगी नहीं चला सकता। हिमाचल प्रदेश में भी अलग राज्य बनने से पहले यही स्थिति थी, लेकिन अब बागवानी और उससे सम्बद्ध उद्योगों के कारण परिस्थितियां भिन्न हैं। चूंकि उत्तर प्रदेश की सारी राजनीति का केंद्र मैदानी क्षेत्रा रहे हैं इसलिए पहाड़ी क्षेत्रों पर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। इसलिए उस क्षेत्रा में आमदनी का साधन सिर्फ सरकारी नौकरियां हैं। काफी लोग सेना या पुलिस में हैं। बड़ी संख्या में लोग क्षेत्रा के बाहर नौकरियां करते हैं। इसलिए कभी-कभी मजाक में इस क्षेत्रा की अर्थनीति को मनीऑर्डर अर्थनीति भी कहते हैं। इस स्थिति में यदि यहां की नौकरियों में आरक्षण के कारण बाहर के लोग भरे गए तो निश्चय ही सामाजिक संतुलन बिगड़ जाएगा और यदि यह आरक्षण शिक्षा संस्थानों में भी लागू होता है तो पहाड़ी युवाओं का भविष्य और अंधकारमय हो जाएगा।

मुलायम सिंह को इस विशेष परिस्थिति को समझना चाहिए और धमकी तथा चेतावनी की भाषा से बचना चाहिए। यह सामाजिक न्याय का रास्ता नहीं है। यह सच है कि हमारे देश में आरक्षण की अत्यंत आवश्यकता है। इसमें भी कोई बुराई नहीं कि आरक्षण को आबादी के औसत तक भी पहुंचा दिया जाए, पर यह करते हुए यह ध्यान भी रखना पड़ेगा कि इसे लागू करने की मूल इकाई क्या हो, राज्य या जिला? स्वाभाविक है कि यह इकाई राज्य ही हो सकती है, पर कुछ क्षेत्रों में अपवाद बनाने होंगे। पश्चिम बंगाल के पहाड़ी क्षेत्रा या बिहार, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों के लिए इस विधान में संशोधन करना ही पड़ेगा, वरना अनेक सामाजिक तनाव होंगे।

तमिलनाडु यदि आरक्षण बढ़ाकर 69 प्रतिशत करना चाहता है तो उसमें दम है। उस राज्य में सिर्फ ब्राह्मण ही ऊंची जाति है बाकी सारी आबादी या तो पिछड़ी है या अनुसूचित। इसी तरह बिहार में यदि लालू प्रसाद यादव आरक्षण को 80 प्रतिशत तक ले जाने की धमकी दे रहे हैं तो उसके पीछे भी एक तर्क है। कर्नाटक में भी कमोबेश यही स्थिति है। यदि संविधान में संशोधन करके इसे लागू किया जाता है तो कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। पर लालू प्रसाद को यह ध्यान तो रखना ही पड़ेगा कि इस आरक्षण नीति के कारण कहीं छोटा नागपुर के आदिवासी बहुल इलाकों में उनके भाईबंद तो थोक में नहीं पहुंच रहे हैं। सामाजिक न्याय की तार्किक परिणति यही है कि हर व्यक्ति को उसके समाज में उसका उचित और तर्कसंगत स्थान मिले। इसलिए यह देखना पड़ेगा कि यदि पूरे राज्य में 80 प्रतिशत आरक्षण लागू होता है तो उन क्षेत्रों में जहां आदिवासी ज्यादा हैं, वहां कम-से-कम उनकी आबादी के अनुपात में तो स्थान मिले।

जब तक उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बन जाता तब तक उत्तर प्रदेश में रहते हुए भी इसका समाधान हो सकता है। उत्तर पूर्व के कई राज्यों की तरह पहाड़ के मूल लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जा सकता है। फिर उनका आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के अनुपात तक बढ़ाकर इस समस्या का समाधान हो सकता है। इसके लिए थोड़ी-सी समझदारी और दूर-दृष्टि से काम लेना होगा, न कि धमकी की भाषा से। इस तरह की भाषा बोलकर मुलायम सिंह न सिर्फ अपनी राजनीति का कबाड़ा कर रहे हैं बल्कि सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर भी प्रहार कर रहे हैं। वैसे ही कोई कम विरोध नहीं है।

24 अगस्त 1994, अमर उजाला

गोया सवर्ण जातिवादी नहीं होते

जाति फिर चर्चा में है। यह बात आजकल कहीं भी सुनने को मिल जाएगी कि कैसे जाति-पांति की बुराई फिर से सिर उठाने लगी है। ईमानदारी की बात तो यह है कि जाति-पांति का जोर सचमुच कोई खास नहीं बढ़ा है। फर्क सिर्फ यह आया है कि जिन्हें हम सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा, दलित या अल्पसंख्यक कहते हैं, उनमें से कुछ लोग थोड़ी ज्यादा प्रमुखता पाने लगे हैं। कुछ पिछड़ी जातियों के लोग चुनकर आए हैं। उनमें से कुछ मंत्री और मुख्यमंत्री बन गए हैं।

ऐसे नौकरशाह जो हर बाधा-विपत्ति से टकराते हुए अब भी किसी तरह बचे रह गए, उनमें से कुछ की अच्छे पदों पर नियुक्तियां होने लगी हैं। ये थोड़े-बहुत परिवर्तन हो रहे हैं पर इनका असर न के बराबर है। हलचल सिर्फ सतह पर है। मूलभूत परिवर्तन की दूर-दूर तक संभावना नहीं दिखाई देती। जिन्हें जाति-पांति फैलाने का अपराधी माना जा रहा है वे चाहकर भी हर पद पर अपने लोगों को नहीं रख सकते। लोग वहां हैं ही नहीं। हां, आरोप खूब लग रहे हैं।

वंचित तबके के लोग उस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का प्रयत्न भी प्रारंभ करें तो उन पर जातिवाद फैलाने का आरोप लग जाता है। अभी राज्यसभा के टिकट बंट रहे थे। आप कोई भी अखबार उठा लीजिए अगर चर्चा उत्तर प्रदेश और बिहार की हो रही है तो अक्सर टिप्पणीकार यह अवश्य लिखते थे कि लालू यादव और मुलायम सिंह यादव अपनी जाति के लोगों को तो अवश्य टिकट देंगे ही। कहीं किसी ने यह पढ़ा कि राव अपनी जाति के लोगों को अवश्य टिकट देंगे।

कांग्रेस ने राज्यसभा के अपने उम्मीदवारों की जो सूची जारी की है उसमें 50 प्रतिशत स्थान ऊंची जातियों को दिया गया जिसमें 26 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। कल्पना कीजिए कि ऐसा ही कोई काम लालू या मुलायम कर दें तो अखबारों में आज कुहराम मचा होता, पर सवर्णों द्वारा फैलाई गई जाति-पांति को हमारे समाचार माध्यम जाति-पांति की बुराई नहीं मानते। अभी दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक क्रंतिकारी काम हो गया।

अनुसूचित जाति-जनजाति के कोटा से आए छात्रों ने मांग की कि पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं में दाखिले के लिए आरक्षण समाप्त कर दिया जाए। मेरिट के आधार पर दाखिला हो। सवर्ण छात्रों का कहना था कि उनका अपना अलग से आरक्षण बना रहना चाहिए। कल्पना कीजिए, दलित मेरिट की बात कर रहे हैं। सवर्ण आरक्षण मांग रहे हैं। वे समाचारपत्रा जो मंडल आयोग आंदोलन के समय आरक्षण का विरोध करते हुए मेरिट और योग्यता की बात कर रहे थे क्या उनमें से किसी भी अखबार में इसके बारे में कुछ भी पढ़ने को मिला?

आज अचानक बड़े-बड़े लेख, विश्लेषण और संपादकीय इसीलिए लिखे जा रहे हैं क्योंकि दलितों, वंचितों और पिछड़ों के अदंर एक नई चेतना आ रही है। भद्र समाज में लोग कहते मिल जाएंगे कि देखिए, अपराध बढ़ते जा रहे हैं आदि। फिर अचानक बड़ी-बड़ी खबरें छपने लगती हैं कि पश्चिम उत्तर प्रदेश अपराधियों का स्वर्ग बनता जा रहा है। कोई कैमरा टीम बिहार पहुंचकर किसी नरसंहार का चित्र ले आएगी। हमेशा इसी तरह माहौल बनाया जाता है। यह अक्सर सफल भी होता है। इस बार भी यही कोशिश हो रही है। जाति-पांति की बुराई बढ़ने की खबरें आजकल इसलिए आम हैं।

15 फरवरी 1994, मतांतर, इंडिया टुडे

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

राजनीति का मुहावरा बदल रहा है

विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीति जहां समाप्त होती है, मुलायम सिंह यादव की राजनीति का वह प्रारंभिक बिंदु है। इस दृष्टि से मुलायम सिंह, वीपी सिंह से एक कदम आगे हैं। वीपी सिंह ने मंडल आयोग यानी सामाजिक न्याय का नारा सिर्फ देवीलाल को पीछे छोड़ने के लिए दिया था, मैं इस बात से कभी सहमत नहीं रहा, लेकिन था वह कुल मिलाकर चुनावी नारा ही, इससे ज्यादा कुछ नहीं। मुलायम सिंह के लिए यह उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, वे उसी राजनीति की पैदावार हैं, लोहिया की ट्रेनिंग, अपनी निजी जातिगत पृष्ठभूमि और उसकी राजनीति करने के कारण मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव की प्रतिबद्धता जनता दल के अन्य नेताओं से थोड़ी ज्यादा रही।

पांच राज्यों से इस बार जिस तरह के चुनाव परिणाम आए हैं, उससे यह साफ हो गया है कि सिर्फ तदर्थवाद की राजनीति नहीं चलेगी, जो जिस मुद्दे पर पूरी तरह खड़ा है और लोगों को लगा कि यह ज्यादा ईमानदारी से खड़ा है, उसके साथ लोग जाने वाले थे। जनता दल का सारा का सारा समर्थन-आधार मुलायम सिंह की तरफ जाने का सबसे बड़ा कारण यही था। मुस्लिम और कांशीराम फैक्टर उसी का विस्तार है।

उग्र पिछड़ापन या कि दलित उभार बहुत दिनों से रुका हुआ था। कुछ कांग्रेस ने रोक रखा और और कुछ प्रमुख वामपंथी दलों ने। ये मुद्दों को भटकाते रहे। जो नीचे का आदमी था उसे लग रहा था कि ये हमारे लिए काम कर रहे हैं। कांशीराम से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं पर जब वे कहते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, सीपीआई और सीपीएम, ब्राह्मणवाद की ए, बी, सी, डी, ई, पांच टीमें हैं तो बहुत गलत नहीं कहते। ए टीम ने 40 साल बरबाद किए, बी टीम पांच साल और बरबाद करेगी। इतना समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है। सीधी लड़ाई लड़ के एक साथ परास्त कर दो सभी टीमों को। तो यह बात उनके सामाजिक आधार को प्रभावित करती है। मुलायम को मैं कैंडे का (इंटिग्रेटेड) राजनीतिक नहीं मानता। तरह-तरह के समझौते करते हैं फिर भी औरों से थोड़ा ठीक हैं। ये भले ही ज्यादा दिन न चलें, लेकिन यह राजनीति चलेगी।

देश की राजनीति में अब गुणात्मक परिवर्तन हो रहा है। यह दो तरफ से हो रहा है। एक, भारतीय जनता पार्टी के आने के कारण भाजपा उस काम को खुलेआम कर रही है जिसे कांग्रेस थोड़ा दबा-छिपा के, ढक-तोप के कर रही थी। ये दोनों उनकी पार्टियां हैं जिन्हें इस व्यवस्था से सबसे ज्यादा मिलने वाला है। ऐसे लोगों का ध्रुवीकरण एक तरफ हो रहा है। इसलिए जो चुनाव नतीजे आए हैं उसे इस बात का कोई बड़ा संकेतक नहीं माना जा सकता कि कांग्रेस वापस आ रही है या भाजपा हार रही है। ऐसा नहीं होगा, होगा तो यही कि या तो कांग्रेस रहेगी या भारतीय जनता पार्टी, और इसके बाद जिस तरफ राजनीति बढ़ रही है उससे आश्चर्य नहीं कि अब कांग्रेस नहीं रहेगी, रहेगी तो भाजपा।

कांग्रेस कभी भी सिर्फ एक राजनीतिक संगठन नहीं थी। इसके साथ-साथ कांग्रेस एक सामाजिक संगठन भी थी। इस देश में समाज को अलग करके कोई राजनीति नहीं हो सकती। वे समाज की सचाई को समझकर भी समझना नहीं चाहते। सिर्फ राजनीति और अर्थनीति को मुख्य मुद्दा बनाकर वे राजनीति करना चाहते हैं।

कांग्रेस ने इस सचाई को आजादी की लड़ाई के दौरान मजबूरी में ही सही, लेकिन समझ लिया था। वह इस यथास्थितिवाद को बनाए रखकर चल रही थी। उसमें ब्राह्मण भी था, दलित भी था, मुसलमान भी, पिछड़े भी लेकिन चातुर्वर्ण वाला जो हिंदू ढांचा था उसको बनाए हुए एक पार्टी चल रही थी, उसमें अब गड़बड़ी आ गई है। कांग्रेस अपने दलित आधार को पूरी तरह त्याग चुकी है। दलितों ने उसे नहीं छोड़ा है पूरी तरह, लेकिन कांग्रेस ने उसे छोड़ दिया है। कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को पूरी तरह त्याग दिया है। सुविधा की जिस राजनीति को अब कांग्रेस कर रही है उसमें किसी को इस सबको देखने का मौका नहीं रहता। पिछड़े कांग्रेस के साथ पूरी तरह से कभी भी नहीं थे। धीरे-धीरे उनको जब एक राजनीतिक वाणी मिलने लगी है तो वे अब अपनी दिशा में जा रहे हैं।

कांग्रेसी जमीन से इस तरह कट गए हैं कि कर्नाटक में उन्हें बंगरप्पा जैसे नेता को पार्टी से निकालना पड़ा और कुछ हो या न हो, बंगरप्पा अगले चुनाव में इन्हें हरा जरूर देंगे। कर्नाटक में कांग्रेस की हार अबकी पक्की है। वहां उच्च वर्ण जो कांग्रेस का आधार था, बीजेपी के साथ जा रहा है। दलितों को इन लोगों ने धक्का मार के बाहर कर दिया। पिछड़ों में देवगौड़ा हमेशा से ही बाहर रहे हैं। उनकी हालत मुलायम सिंह जैसी है। जहां उनको कोई दलित आधार मिला, पूरे राज्य को समेट ले जाएंगे। दक्षिण में जो ध्रुवीकरण हो चुका है वही ध्रुवीकरण अब उत्तर भारत में हो रहा है। यूपी में कांग्रेस अब लौटकर आने वाली नहीं है।

अगर भाजपा सचमुच पूरी तरह से दलितों की पार्टी बनना चाहे तो कांग्रेस की वापसी हो सकती है। ऊंची जाति के लोग कांग्रेस की तरफ वापस जा सकते हैं। लेकिन ऐसा होगा- लगता नहीं। आरएसएस के कुछ बड़े नेताओं की बातचीत से लग रहा है कि ये भाजपा को दलितों-पिछड़ों की पार्टी बनाने की बात तो जरूर कर रहे हैं लेकिन वे सचमुच में ऐसा करने नहीं जा रहे हैं। इससे उनका सारा का सारा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। इस बात को वे समझ रहे हैं। वे ऐसा नहीं करेंगे। इसलिए कांग्रेस की पुनर्वापसी की कोई संभावना उप्र में नहीं है। अगला राज्य दिखाई दे रहा है बिहार, जहां से कांग्रेस अगले चुनाव में साफ हो जाएगी।

जो भी नीतियां बनाई जा रही हैं या जो भी राजनीतिक समीकरण ऊपर से बनाए बिठाए जा रहे हैं, वे सारे के सारे इस देश के बहुसंख्यक समाज को कहीं से नहीं छूते। साठ फीसद लोग इस देश में पूरी तरह दरिद्र हैं जो किसी व्यवस्था में नहीं हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली
के जाल में नहीं हैं, किसी किस्म के आर्थिक विकास कार्यक्रम के जाल में नहीं हैं। डंकल आता है कि जाता है, इससे उनकी स्थिति पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। कांग्रेस क्या कर रही है, बीजेपी क्या कर रही है, गैट समझौता लागू हो रहा है या नहीं इस देश की
पिसी हुई जनता को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। ये लोग इतने नीचे जा चुके हैं। उनके सारे के सारे सरोकार बदल गए हैं। जिसको राजनीतिक दल संबोधित नहीं कर पा रहे हैं। इस देश में पूरी की पूरी दो दुनिया बन गई हैं। एक मध्यवर्ग की दुनिया- इसके अंदर सारे संगठित मजदूर, मझौले किसान, व्यापारी, सारे नौकरी-पेशा लोग, शहरी लोगदृ वे शहरी लोग भी जो झुग्गियों में रहते हैं लेकिन जिनके हाथ में थोड़े-से साधन हैं, सुविधा है, जो थोड़ी-सी अलग जिंदगी जी रहे हैंदृशामिल हैं। इन चालीस फीसद की राजनीति हो रही है बकिया साठ फीसद लोगों को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है।

जो सामाजिक आधार वाली पार्टियां हैं सतही रूप से ही सही, कहीं न कहीं उनकी भावनाओं को छू रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी एक चुनाव क्षेत्र को उठाकर देख लीजिए। भाजपा 70 हजार, तो बसपा 76 हजार, कांग्रेस 4 हजार और जनता दल 3 हजार। ध्रुवीकरण
की यह दिशा है। जो उस तरफ गए हैं वे इसलिए नहीं कि उन्हें कोई बड़ा भारी आश्वासन मिला है या कि कोई बड़ा भारी परिवर्तन होने वाला है। वो धक्के खाते-खाते ऐसी जगह पहुंचे हैं कि उन्हें लगता है कि यही है जो हमारी भाषा बोल रहा है। शायद उसके पास समाधान भी हो, न भी हो तो कम-से-कम मुहावरे के स्तर पर उनसे एक तादात्म्य हो रहा है। खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, बोली-बानी इस सबमें कहीं-न-कहीं उसे एक तादात्म्य दिख रहा है। उसे लग रहा है, फिर इसी को वोट दीजिए।

हो सकता है उसे वहां यह सब न मिले लेकिन वह उसी दिशा में आगे जाएगा। लौटकर पुनर्मूषकोभव नहीं होने वाला। भारत के अंदर एक यूरोप और एक अफ्रीका का यह जो विभाजन होता जा रहा है उसका अभी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व चल रहा है, लेकिन यह बहुत दिन नहीं चलेगा। दलितों-पिछड़ों, अल्पसंख्यकों में धीरे-धीरे यह बात साफ होती गई है कि ये ऊपर के लोग उन्हें कुछ दे भी रहे थे तो उनकी भलाई के लिए नहीं, उनके पास हमारी भलाई के लिए कोई दूरगामी योजना नहीं है। इनके मन में हमारे लिए कोई दर्द नहीं है। हमारे पास सिर्फ हमारा वोट था जो ये मांग लेते थे हमें कुछ दे देते थे। ज्यादा खुद खाते थे। अब यह एहसास बढ़ रहा है तो दूरी भी बढ़ रही है। ये बसपा के पास जाना, मुलायम सिंह के पास जाना या इस तरह की पार्टियों के पास जाना इसी एहसास का नतीजा है। उनका यह जाना अंतिम जाना (फाइनल) नहीं है लेकिन यह चेतना अब आ गई है तो उससे लड़ाई बहुत साफ, बहुत क्लियर कट होगी।

मुलायम-कांशीराम के रूप में जो चेतना दिखाई दे रही है वह स्थानीय चरित्र की कतई नहीं है। देश में राजनीति की एक अंडरकरेंट (अन्तर लहर) चल रही है। यह उसका एक क्षेत्रीय उभार या एक क्षेत्रीय अभिव्यक्ति है। देश में आगे, इन सामाजिक आधार वाली पार्टियों का उभार होगा। कहीं यह कांग्रेस के रूप में दिखाई दे रहा है, कहीं मुलायम-कांशीराम के रूप में। हो सकता है, कहीं भाजपा के रूप में भी दिखाई दे- महाराष्ट्र में भाजपा के मजबूत होने का सबसे बड़ा कारण वहां पिछड़ी जातियों का इसके साथ होना है। उप्र में कांशीराम जीत रहे हैं और विदर्भ में विश्वविद्यालय के नामांतरण के नाम पर चार लोग आत्मदाह कर लेते हैं- ये कोई विच्छिन्न घटनाएं नहीं हैं, जुड़ी हुई घटनाएं हैं।

उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ा उभार तो इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इस देश में अकेला उप्र ऐसा राज्य है जहां की पूरी हिंदू आबादी में सवर्णों की संख्या सबसे ज्यादा हैदृतीस-पैंतीस फीसद। उस राज्य में यह चेतना कितनी तीव्र हुई होगी कि इस तरह का ध्रुवीकरण होकर एक ऐसा नतीजा सामने आ गया। यह पूरे देश में फैलेगा। इसे रोका नहीं जा सकता। ये सामाजिक प्रश्न हमेशा से हमारे बीच थे। बस, हम लोग इसे अनदेखा कर रहे थे। अगर इन सामाजिक शक्तियों को प्रगतिशील पार्टियां उसी शिद्दत से उठातीं कि उनको लगता कि हमारी बात की जा रही है, हमारे साथ कोई बेईमानी नहीं हो रही है तो इस तरह की शक्तियों को बढ़ने का अवसर नहीं मिलता। जाहिर है, कहीं न कहीं से उनकी लगातार उपेक्षा की गई है।

यानी क्या कारण है कि जातिवाद-जातिवाद होने लगा? अचानक देश में जातिवाद बढ़ गया। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ब्राह्मण हैं, उनकी सलाहकार समिति में सारे ब्राह्मण हैं, उनके मंत्रिामंडल में सबसे ज्यादा मंत्राी ब्राह्मण हैं, देश का राष्ट्रपति ब्राह्मण है, देश का सेनापति ब्राह्मण है, पर कोई नहीं कहता कि देश में जातिवाद हो रहा है। एक मुलायम सिंह यादव कहीं एक यादव लाकर बैठा दे तो अखबारों में संपादकीय छपने शुरू हो जाते हैं कि जातिवाद बढ़ गया, अभी बहुत सारी बहसें जातिवाद पर चल पड़ी हैं।

इससे पहले जो सामाजिक समीकरण था, वह उच्च और निम्न वर्ण यानी ब्राह्मण और शूद्र के बीच था, बहुत दिनों तक इसे सफलतापूर्वक चलाया जाता रहा, जबकि उनके बीच खाई बहुत बड़ी थी। दलित और पिछड़ों के बीच भी खाई है- सामाजिक भी, आर्थिक भी, लेकिन एक छोटी सी बात देखिए, एक जमींदार जो भूमिहार, राजपूत या ब्राह्मण हो उसके और शूद्र जो खेतिहर मजदूर हैं उसके बीच जो संबंध हैं वह काफी टकराहट वाले थे। उसका कारण यह था कि ऊंची जाति का व्यक्ति शारीरिक श्रम में नहीं था। मालिक और नौकर या कहें राजा और प्रजा के संबंध थे, इससे दुराव, टकराव बहुत ज्यादा था, उसके बावजूद समीकरण चलता रहा।

पिछड़ी जातियों में जो अच्छी खेती-बाड़ी वाले लोग हैं, उन्होंने उसे अपनी मेहनत से अर्जित किया है। उनकी औरतें, मां-बाप, बेटे-बेटियां- सब मिलजुल के खेत में काम करते हैं। उन्हें जरूरत पड़ती है मजदूर की, अधिक से अधिक बुआई या कटाई के समय। बीच में उनका कोई संबंध नहीं होता। बहुत ही आर्थिक आधार पर वह संबंध निर्धारित होता है। उसमें बहुत तनाव की गुंजाइश नहीं होती। तीन दिन का काम हुआ और तीन दिन का पैसा लो और जाओ। जिस तरह के तनाव मालिक और मजदूर के संबंध में सालों साल बने रहने के कारण होते थे, पिछड़ी और दलित जातियों के बीच वे तनाव उतने और उस ऊंचाई पर नहीं रहते।

दूसरी प्रक्रिया है संस्कृतिकरण की। वह हिंदू धर्म में लगातार चलती रहती है। हर वह आदमी जो नीचे बैठा है वह अपने से ऊपर जाने की कोशिश करता है। चाहे जितनी गालियां दें लेकिन हर आदमी के मन में ब्राह्मण बनने की इच्छा लगातार रहती है- जरा जनेऊ पहन ले, थोड़ा संस्कृत बोल ले, सबके साथ चारपाई पर बैठ ले, थोड़ा पूजा-पाठ कर ले, भगवान से सीधी पहुंच बना ले- इस सबमें लगा रहता है। इसमें भी पिछड़ों और दलितों के बीच इतना फर्क नहीं है कि कोई बड़ा भारी तनाव जनम जाए। पिछड़ों के मंदिर में दलित चले जाएं तो इस पर लाठी नहीं चल जाती, ब्राह्मण के मंदिर में दलितों के चले जाने पर जरूर चल जाती है। ये तनाव जिस मात्रा में भी है, आगे चलकर विरोध और टकराव का रूप ले लेंगे। लेकिन जिस तरह शहरों में बैठे लोग कयास लगा रहे हैं कि वे आपस में लड़-कट मरेंगे, ऐसा नहीं है। यह इतनी आसानी से नहीं होने वाला। उनके अन्तरविरोध किसी बिंदु पर पहुंचकर तनाव में बदलेंगे लेकिन इसमें समय लगेगा। यह सारी सामाजिक परिघटना जो हमारा मूल भारत था, उसी में सीमित है। मूल भारत से मतलब अंग्रेजों के आने से पहले जो सांस्कृतिक रूप से भारत था- आर्याव्रत या उसे जो कुछ भी कह लीजिए। कश्मीर, उत्तर-पूर्व आदि ये हमारे राजनीतिक भारत के हिस्से हैं। इसलिए यह सामाजिक लड़ाई वहां नहीं पहुंचेगी। यह उनकी समस्या भी नहीं है। ये पूरी तरह से भिन्न राजनीतिक इकाइयां हैं। इसलिए वहां लड़ाई दूसरी है। राजनीतिक है। जो भी सत्ता में रहेगा उसको इसे हल करना पड़ेगा।

इस देश में अगर ब्राह्मणवाद विरोधी शक्तियां बढ़ती रही हैं तो इससे संघात्मक ढांचे को मजबूत बनाने की परिस्थितियां मजबूत होंगी। कश्मीर, उत्तर पूर्व की समस्याएं हल होंगी, तो एक सच्चे संघात्मक ढांचे में ही। उन्हें उनका वाजिब हक चाहिए। उन्हें भ्रष्ट बनाकर,
रिश्वत देकर, बेवकूफ बनाकर, उनको मार-पीटकर भारत में नहीं रखा जा सकता। क्षेत्रीय उभार के रूप में आ रही ब्राह्मणवाद विरोधी ताकतें एक शुभ संकेत हैं जो अपने अधिकार के साथ इन प्रदेशों के अधिकार की भी मांग करेंगी तभी वे प्रदेश भारत में रह पाएंगे, नहीं तो भारत से उनका निकलना तय है। बिना सामाजिक ढांचे को समझे किसी तरह का राजनीतिक, आर्थिक आंदोलन नहीं चलाया जा सकता।

31 जनवरी-14 फरवरी 1994, समकालीन जनमत

दलित राष्ट्रपति के बहाने नए समीकरण

लगता है, दलित राष्ट्रपति के प्रश्न पर ही विभिन्न राजनीतिक दलों के आपसी संबंधों पर भी एक बार फिर से विचार हो जाएगा। आवश्यकता तो इसकी शायद सभी दल महसूस कर रहे थे, लेकिन पहल कौन करे की मजबूरी के कारण संभवतः कुछ नहीं कर पा रहे थे। राष्ट्रीय मोर्चे और वाम मोर्चे के लिए तो यह एक तरह से सुनहरा मौका साबित हो सकता है क्योंकि वास्तविकता तो यही है कि पिछले कुछ समय से इनके आपसी संबंध काफी असहज हो चुके थे। अलग-अलग रास्तों पर चलने का फैसला शायद इसलिए नहीं हो पा रहा था क्योंकि इसके लिए इन्हें अब तक कोई समुचित सैद्धांतिक आवरण नहीं मिल पाया था। इस दृष्टि से राष्ट्रपति पद का चुनाव संबंधों की पुनर्व्यवस्था के लिए एक आदर्श अवसर हो सकता है। राष्ट्रीय मोर्चे के विभिन्न घटकों और यहां तक कि जनता दल के परस्पर विरोधी विचार वाले तत्वों के लिए भी यह चुनाव एक ऐसा मौका प्रदान कर सकता है, जहां से आगे यदि उनके रास्ते अलग दिशाओं में चल पड़ें तो इनके लिए यह एक सहज घटना ही होगी।

जनता दल नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह और वामपंथी दलों के बीच इस प्रश्न पर ताजा असहमति के कारण राष्ट्रीय मोर्चा और वामपंथी दलों के बीच पड़ी दरार को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। सचाई यह है कि न तो विश्वनाथ प्रताप सिंह वास्तव में इस बात पर गंभीर हैं कि अगला राष्ट्रपति दलित-आदिवासी ही होना चाहिए, न ही वाम मोर्चे के लिए यह प्रश्न उनकी राजनीतिक प्राथमिकता में सर्वाेपरि है। लेकिन दोनों पक्ष इस प्रश्न को इस सीमा तक खींचने में नहीं हिचकिचाएंगे, जहां से दरार स्थाई बन सकती है, क्योंकि दोनों पक्षों के लिए अपने राजनीतिक हित साधने का यह एक अच्छा मौका है। मुद्दों की तलाश में भटक रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपनी आगामी राजनीति के लिए इसी बहाने कुछ ऐसे स्थाई मुद्दे मिल जाएंगे, जिनके सहारे उनकी रुकी पड़ी राजनीति थोड़ी आगे बढ़ सकती है। वाम मोर्चे को भी एक ऐसा अवसर मिल जाएगा जिस बिंदु से वह कांग्रेस के साथ एक नए सिरे से संबंध भी स्थापित कर पाएगा और यह भ्रम भी बना रहेगा कि वामपंथी अपनी स्वाभाविक राजनीति ही कर रहे हैं। वामपंथियों की राजनीतिक दिशा में कहीं कोई भटकाव नहीं आया है। यह राजनीतिक इंतजाम दोनों पक्षों को माफिक पड़ता है।

सबसे पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजनीतिक कष्ट को समझने का प्रयास करें। जनता दल के गठन में चाहे जितने भी महारथियों का योगदान क्यों न रहा हो, लेकिन उसे एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करने, उसे राष्ट्रीय मोर्चे का एक घटक बनाने तथा उस मोर्चे को वाम मोर्चे के साथ जोड़कर एक राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करने में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान विश्वनाथ प्रताप सिंह का ही था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने शुद्ध राजनीतिक अवसरवाद को एक राजनीतिक दर्शन का मुलम्मा चढ़ाकर देश के सामने पेश करने का एक असंभव कार्य किया था। सर्वथा विपरीतधर्मी राजनीतिक तत्वों को जोड़कर जनता दल का गठन करना, केंद्रीय शक्ति के विरोध में उभरी विभिन्न शक्तियों को संगठित करके राष्ट्रीय मोर्चे का स्वरूप देना और उसे एक ओर वाम मोर्चे से तो दूसरी ओर भाजपा से समर्थन दिलाकर सरकार चलाने के असंभव कार्य को थोड़े समय के लिए ही सही, लेकिन संभव कर दिखाना वास्तव में एक भारी नट-खेल था जिसे ज्यादा दिनों तक चलाया भी नहीं जा सकता था। स्वाभविक है कि वह चला भी नहीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के पतन के साथ वह ताना-बाना जो बिखरना प्रारंभ हुआ, वह प्रक्रिया अब भी जारी है। एक स्तर पर जहां वह विश्वनाथ प्रताप सिंह और वाम मोर्चे के संबंधों में दरार के रूप में सामने आ रही है, तो दूसरे स्तर पर वह जनता दल के अंदरूनी तनाव के रूप में। अनेक स्तर पर हो रहे इस बिखराव का कारण एक ही है कि इन शक्तियों को जोड़ने वाला तंत्रा गैर कांग्रेसवाद अब प्रभावी नहीं रह गया है। कांग्रेस से नेहरू परिवार का वर्चस्व समाप्त होने के बाद अब आगे यह तत्व अनेक विपरीतधर्मी विपक्षियों को जोड़ने का काम कर पाएगा, यह संभव भी नहीं दिखता।

इस तथ्य को तो विश्वनाथ प्रताप सिंह, जनता दल के अन्य नेता तथा वामपंथी सभी स्वीकार करते हैं लेकिन यह सहमति सिर्फ इसी बिंदु तक सीमित है। आगे की राजनीति का स्वरूप क्या होगा और इस ढांचे में विभिन्न राजनीतिक दलों की अपनी स्थिति क्या होगी, इस बिंदु पर सहमति तो है ही नहीं वरन् घोर मतभेद भी हैं। यह तथ्य इन सबको अच्छी तरह पता है कि उनकी अब तक की एकता में भी समानता का कोई विशेष कारक नहीं था। आर्थिक मुद्दों पर इस गठबंधन के विभिन्न घटकों के मतभेद तो जगजाहिर ही थे, जनता दल के अंदर भी कभी इस मुद्दे पर कोई आम सहमति नहीं रही। यही हालत सामाजिक न्याय के प्रश्न की रही जिसे मजबूरन जनता दल ने अपना मुख्य नारा तो बना लिया लेकिन दल के अंदर कभी इस प्रश्न पर एकता नहीं रही। इस प्रश्न पर राष्ट्रीय मोर्चा भी बंटा रहा। वाम मोर्चे ने कभी भी इस विषय को मुद्दे के रूप में मान्यता ही नहीं दी लेकिन अवसरवादिता की वैचारिक बेईमानी के कारण खुलकर कभी भी इस विषय पर अपने विचार भी प्रकट नहीं किए। इस गठबंधन के एजेंडा में विदेश नीति को कभी प्रमुखता दी ही नहीं गई वरना इस विषय पर जितने दल हैं उतनी नीतियां तो होती हीं। यह भी संभव है कि जितने नेता हैं उतनी ही नीतियां भी होतीं। कुल मिलाकर इन्हें बांधने वाला एक ही तथ्य था, जिसकी समाप्ति को ये स्वीकार कर चुके हैं और अब इन्हें ऐसे नए तत्वों की तलाश है जिनसे एक महागठबंधन भले ही न हो पाए लेकिन कम-से-कम आगे की राजनीति चलती रहे।

राष्ट्रपति पद का चुनाव इन तत्वों के लिए शाश्वत तलाश का एक अच्छा अवसर साबित हो रहा है। वाम मोर्चे को गैर कांग्रेसवाद का विकल्प गैर भाजपावाद में दीख रहा है। इस नीति के सहारे वामपंथी, राष्ट्रीय मोर्चा आदि के साथ अपने संबंध समाप्त करके कांग्रेस के साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। यह अवसर इन्हें एक सैद्धांतिक आवरण तो देगा ही, इन्हें शासक दल के साथ जुड़ने का एक आसान मौका भी देगा। वामपंथी हमेशा से इसके आदी भी रहे हैं। वामपंथियों का यह रास्ता जनता दल के भी कई नेताओं को अनुकूल लग रहा है। ये वे लोग हैं जो सिर्फ इस कारण इस गठबंधन में शामिल थे क्योंकि कांग्रेस ने तब इन्हें अपने साथ रखा नहीं था। अब यदि गैर भाजपावाद इन्हें किसी व्यापक गठबंधन में सम्मानपूर्वक शामिल होने का मौका दे रहा है तो ये मुद्दों के अनावश्यक पचड़े में क्यों पड़ें।

दूसरी ओर जनता दल के वे तत्व हैं चाहे-अनचाहे मुद्दों के साथ रहना जिनकी मजबूरी है। विश्वनाथ प्रताप सिंह, शरद-लालू यादव तथा राम विलास पासवान आदि जनता दल की राजनीति को सायास या अनायास उस दिशा में मोड़ चुके हैं जहां से वापस मुड़ने का अर्थ होगा उनका निश्चित राजनीतिक सफाया और आगे का रास्ता और भी कठिन है। वर्तमान जनता दल उत्तर प्रदेश-बिहार के पिछड़ों के एक वर्ग की पार्टी है, जिसे मुसलमानों का समर्थन प्राप्त है। इसके वर्तमान सामाजिक-धार्मिक आधार के कारण इसे उन वर्गों र्का समर्थन नहीं मिल सकता, जो फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के साथ हैं। अब यदि इन्हें अपने आधार को और संकुचित होने से बचाना है तो स्वाभाविक ही इन्हें नए आधार के लिए दलित-आदिवासी वर्ग की ओर देखना होगा। दलित राष्ट्रपति का सवाल इस दिशा में एक प्रयास हो सकता है जिसे जनता दल का यह वर्ग आजमाना चाहता है क्योंकि इन्हें पता है कि आज जो इनका आधार है उसमें धीरे-धीरे कमी ही आनी है। हालांकि इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि दलित-आदिवासी राष्ट्रपति का प्रश्न पिछड़े वर्ग को भी उतना ही आंदोलित करे जितना दलितों-आदिवासियों को। फिर भी यह एक सोच-समझकर उठाया गया जोखिम है।

वाम मोर्चे के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वह भी इस तरह का कोई ऐसा जोखिम उठाए। वामपंथी ढाई राज्यों में सिमटे हुए हैं और उनकी महत्त्वाकांक्षा उस सीमित दायरे से बाहर निकलने की है भी नहीं। दूसरी ओर, यदि सचमुच सामाजिक न्याय का प्रश्न उनके लिए भी गंभीर राजनीतिक प्रश्न बन जाता है तो उनके अपने आधार पर प्रहार की आशंका ज्यादा रहेगी। वामपंथी इसे भले ही न मानें लेकिन वास्तविकता यही है कि जिन दो राज्यों में उनका वर्चस्व है वहां समर्थन भले ही इन्हें समाज के कमजोर तबकों से मिलता हो लेकिन नेतृत्व हमेशा सवर्ण और शहरी मध्य वर्ग के हाथ में रहा है। अतः इस सवाल को छेड़कर आज जनता दल जिन अंतर्विरोधों का सामना कर रहा है, वामपंथी भी उनसे अंततः बच नहीं पाएंगे। अतः वामपंथियों ने सही हिसाब लगाया है कि इस गठबंधन से जो कुछ उन्हें प्राप्त करना था वह प्राप्त कर चुके हैं। अब आगे यदि इस संबंध को बनाए रखा जाता है तो इन्हें भी बेचैनी के उस दौर से गुजरना पड़ेगा जिस दौर से इस गठबंधन के मूल उत्प्रेरक यानी जनता दल को गुजरना पड़ा है। जबकि इनके सामने सांप्रदायिकता के प्रश्न पर भाजपा को अलग-थलग करने के सैद्धांतिक सवाल को आगे कर के कांग्रेस के साथ मधुर संबंध बनाने का आसान रास्ता मौजूद है।

जबकि जनता दल का रास्ता इतना आसान नहीं है। यहां न तो अभी सैद्धांतिक आधार तय हो पाया है और न ही नेतृत्व का प्रश्न। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दलित राष्ट्रपति के प्रश्न को उठाकर दल के इस अंतर्द्वंद्व को ही तीव्र किया है। संभव है, दल इस सवाल पर एक बार और बंटे, लेकिन इस बंटवारे को स्वाभाविक ही मानना चाहिए। देखना है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह-राम विलास पासवान द्वारा उठाए गए इस मुद्दे को जनता दल के भीतर कितना समर्थन प्राप्त होता है। दल के सैद्धांतिक आधार और भविष्य के नेतृत्व की दिशा उसी समर्थन से तय होगी। दलित राष्ट्रपति का प्रश्न तो वास्तव में इनके लिए भी सांकेतिक ही है। इसलिए बहुत संभव है कि यह प्रश्न इस विवाद के दौरान ही कहीं खो जाए। इस बात को जनता दल के अंदर विश्वनाथ प्रताप समर्थक भी समझते हैं और विश्वनाथ प्रताप विरोधी भी। राष्ट्रीय मोर्चे का हर घटक इस तथ्य से वाकिफ है कि यह विवाद उनके भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेगा। वाममोर्चा तो इसी प्रश्न के सहारे अपना अलग कदम तय भी कर चुका है। कांग्रेस के अंदर दलित राष्ट्रपति की बात उठाने वाले तो अब शांत भी हो चुके हैं। यानि कुल मिलाकर इस प्रश्न से जितनी राजनीति साधी जा सकती थी या तो साधी जा चुकी है या उसी रास्ते बढ़ रही है। सिर्फ दलित राष्ट्रपति का प्रश्न वहीं छूट गया लगता है जहां से यह प्रारंभ हुआ था। दलित और दलित राजनीति की यही वास्तविकता है।

4 जून 1992, अमर उजाला

कमाल कर दिखाया केसरी ने

सीताराम केसरी निश्चय ही बधाई के हकदार हैं कि जिस काम को पिछली सरकारें करीब 40 साल से टालती आ रही थीं, उसे कर दिखाने का उन्होंने साहस किया। राजनैतिक पंडित कह रहे हैं कि यह काम आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है। वैसे ही, जैसे यह कहा गया था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल को राजनैतिक मात देने के लिए मंडलास्त्र छोड़ा था। हो सकता है, दोनों बातें अपनी जगह सही हों पर केवल इसी कारण इस विषय का महत्त्व कम नहीं हो जाता और लोकतांत्रिाक व्यवस्था में लोकप्रिय काम चुनाव के गणित को ध्यान में रखकर ही किए जाते हैं।

सच यह है कि देश जिस आर्थिक दिशा की ओर बढ़ रहा है उस व्यवस्था में सरकार के हाथों से काम देने की शक्ति दिन-ब-दिन छिनती जाएगी। यह भी सच है कि इस तरह के आरक्षण से पीढि़यों के सामाजिक अन्याय की समाप्ति नहीं हो जाएगी। पर सच यह भी है कि इन तर्कों के आधार पर आरक्षण का विरोध मूलतः वही लोग करते हैं जिन्हें सामाजिक न्याय के सिद्धांत में बिल्कुल विश्वास नहीं है। आरक्षण से संपूर्ण सामाजिक न्याय की प्राप्ति नहीं हो सकती, पर इसके बिना आप उस दिशा में बढ़ भी नहीं सकते।

सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की सुविधा देनी है और इस वर्ग की पहचान का एकमात्रा आधार जाति हो सकती है। इस वास्तविकता को सुप्रीम कोर्ट से लेकर कांग्रेस, भाजपा तथा वामपंथियों तक ने समझ लिया है। उसी तरह अब उन लोगों को भी उस वास्तविकता को समझ लेना चाहिए कि आरक्षण की सुविधा शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़ों को बराबरी तक लाने के ही लिए दी जानी चाहिए न कि एक नया विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग खड़ा करने के लिए। सामाजिक न्याय के संघर्ष और एक नए सुविधाभोगी वर्ग की यथास्थितिवादी चाहत में अन्तर तो करना ही पड़ेगा। इसलिए यह बात कम-से-कम सिद्धांत रूप में तय हो जानी चाहिए कि एक सीमा के बाद उन सारे लोगों को अपनी बैसाखियां उन लोगों के लिए छोड़नी पड़ेंगी जिन्हें इनकी जरूरत उनसे ज्यादा है। मलाईदार परत के सिद्धांत को इस रूप में देखना चाहिए।

सरकार द्वारा घोषित आरक्षित नीति के साथ जुड़ी मलाईदार परत की सूची से असहमति या आपत्ति हो सकती है पर सिद्धांत रूप में इसे मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस सूची की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें राजनीतिकों के साथ पक्षपात किया गया है। पिछड़ी जाति का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति बन जाए तो उसकी संतान को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा, परंतु पिछड़ी जाति के प्रधानमंत्री की संतान आरक्षण की सुविधा प्राप्त करती रहेगी, यह आसानी से गले उतरने वाली बात नहीं है। लेकिन सूची की अच्छी बात यह है कि मलाई हटाने का काम लगातार चलता रहेगा।

मलाईदार परत हटाने का काम सिर्फ नौकरियों के आरक्षण के मामले में ही नहीं, अन्य क्षेत्रों में भी प्रारंभ होना चाहिए, खास तौर पर उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्रा में भी इसको तत्काल लागू किया जाना चाहिए।

मलाईदार परत हटाने का काम नौकरियों में आरक्षण नीति लागू होने के साथ किया जा रहा है। इससे विश्वास बन सकता है कि सचमुच यह प्रयास सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है। कांग्रेस में जैसा ब्राह्मणवाद आज चल रहा है वैसा इससे पहले शायद ही कभी था। उस प्रतिकूल माहौल में भी सीताराम केसरी ने इतना बड़ा काम कर लिया है, तो उनसे उम्मीद की जा सकती है कि यादव, कुर्मी, कोइरी तथा लोध जैसी पिछड़ी जातियों में अगड़ी जातियों के मुखर विरोध के बावजूद मलाईदार परत हटाने के अपने वादे से पीछे नहीं हटेंगे।

30 सितंबर 1992, इंडिया टुडे, मतांतर

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

मुरहो को धर्मस्थल और मंडल को अवतार न बनाएं

इस बात में एक हद तक सचाई अवश्य है कि बिहार में जब से लालू प्रसाद की सरकार बनी है, उसके राजनीतिक विरोधियों ने उसे पल-भर भी चैन से बैठने का अवसर नहीं दिया है। पिछले ढाई साल में सरकार का बहुलांश समय और ऊर्जा खुद को बचाए रखने में ही नष्ट हुई है। यह कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष का यह धर्म है कि वह सत्तापक्ष को हमेशा चौकन्ना रखे। सत्ता पक्ष का कर्तव्य है कि उस अनिश्चय की आग से पर्याप्त ऊर्जा ग्रहण करके कुछ ऐसा सकारात्मक कर्म करता रहे जिसके लिए मतदाताओं ने उनमें आस्था व्यक्त की है।

सिद्धांत के रूप में ये बातें ठीक हैं लेकिन इसके साथ एक शर्त भी जुड़ी हुई है। शर्त यह है कि यह सारा कार्य व्यापार लोकतांत्रिक ढांचे और सिद्धांत के अंदर ही सम्पन्न हो। यदि यह खेल इन नियमों के अंतर्गत खेला जाता है तो सरकार के पास अपने को बचाए रखने का पर्याप्त अवसर रहता है। इसके बाद भी इतना समय बचा रहता है जिसमें वह अपने उस कर्तव्य का पालन कर सकें जिसके लिए जनसमूह के बहुमत ने उसे मूल रूप से चुना है। जन प्रतिनिधि चुनने के साथ ही मतदाता का कर्तव्य एक तरह से स्थगित हो जाता है। इसके बाद वह उससे परिणामों की अपेक्षा करता है न कि बार-बार इस बात की शिकायत कि न्यस्त स्वार्थ उन्हें काम करने का मौका नहीं दे रहा है।

बिहार में थोड़ी भिन्न परिस्थितियों में लालू प्रसाद की सरकार का गठन हुआ। पारंपरिक रूप से बिहार का प्रशासनिक ढांचा बौद्धिक और सामाजिक नेतृत्व तथा सांस्कृतिक स्वरूप कुछ ऐसा रहा है कि लालू प्रसाद और उनके वर्ग की सरकार को स्वीकार करने में उनकी प्रारंभिक कठिनाई समझ में आती है। यही कारण है कि इन्हीं परिस्थितियों में किसी अन्य राज्य में इस तरह की सरकार को जो कठिनाइयां झेलनी पड़ती लालू प्रसाद की सरकार को उनसे कहीं ज्यादा मुश्किलात का सामना करना पड़ा।

शायद इसीलिए बिहार के मतदाता ने भी इस कठिनाई को समझा और एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों को जिस सीमा तक अकर्मण्यता के लिए छूट की अवधि परंपरा से निर्धारित है उससे कहीं बहुत ज्यादा ही समय लालू प्रसाद की सरकार को दिया। जब तक सचमुच उन्हें लगता रहा कि प्रशासन और व्यवस्था के संपूर्ण असहयोग के कारण विकास की गति अवरुद्ध है जनगण का विश्वास अपने प्रतिनिधियों के प्रति डिगता हुआ कतई नहीं दीखा। उन्होंने अपने जन प्रतिनिधियों की इस कठिनाई को भी निश्चय ही सहानुभूतिपूर्ण ढंग से समझा कि ये वास्तव में अस्तित्व रक्षा का संघर्ष कर रहे हैं इसलिए मूल कर्तव्य से डिगना इनके लिए न केवल स्वाभाविक है बल्कि क्षम्य भी है। स्पष्ट है कि यह सारी छूट वह उस सीमा तक ही देने को तैयार था जब तक उसे लग रहा था कि कठिनाई सचमुच वाजिब है न कि अकर्मण्यता को ढकने का साधन।

आज जब बिहार में मूड कुछ बदला हुआ दीख रहा है तो इसका कारण यह नहीं है कि वे लोग भी अब सामाजिक न्याय के नारे से अचानक विमुख हो गए हैं जो अब तक इनके साथ थे। अजित सिंह या रामलखन सिंह यादव जैसे राजनीतिज्ञों को जनता यदि ध्यान से सुनने लगी है तो इसका मुख्य कारण यह है कि उनका विश्वास लालू प्रसाद यादव और उनके ब्रांड के सामाजिक न्याय से थोड़ा डिग रहा है न कि वास्तविक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक दर्शन से। लालू प्रसाद जैसे प्रखर जमीनी राजनीतिज्ञ की यह पहली बड़ी असफलता है कि अपने तिलिस्म को बिखरने से बचाने में वे असमर्थ दीखने लगे हैं। अच्छे और सफल राजनीतिज्ञ की सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि वह समय की नजाकत को बखूबी पकड़ कर अपने राजनीतिक कर्म को उसी के अनुरूप ढालता है। लालू प्रसाद इस कला में पारंगत रहे हैं। लेकिन लगता है कि इधर उनकी राजनीतिक पकड़ थोड़ी ढीली पड़ रही है। वर्ना उनकी बाजी एक के बाद एक उलटी नहीं पड़ती।

राष्ट्रीय स्तर पर जनता दल में हो रहे सतत् बिखराव के दौर में भी लालू प्रसाद यादव ने राज्य में पार्टी को एक तरह से अक्षुण्ण रखा तो इसका कारण सिर्फ सामाजिक न्याय के प्रति राज्य के बहुमत की प्रतिबद्धता ही नहीं थी। इसके पीछे लालू प्रसाद की अपनी योग्यता और क्षमता का भी बहुत बड़ा हाथ था। इसी तरह का समाज और इसी तरह की प्रतिबद्धता उत्तर प्रदेश में भी थी लेकिन जनता दल को वहां खंड-खंड होते देर नहीं लगी। मुलायम सिंह यादव निश्चय ही लालू प्रसाद के मुकाबले अधिक अनुभवी और जमीनी पकड़ वाले नेता थे लेकिन वे जहां असफल रहे लालू उन्हीं बिंदुओं पर सफल होते गए। यह लालू प्रसाद की राजनीतिक व्यवहार कुशलता का ही परिणाम था।

इसे भी राजनीतिक कुशलता ही कहेंगे कि दिन ब दिन बिहार की स्थिति बदतर होती गई। लेकिन लालू की जड़ें वहां की जमीन में और गहरी पैठती गईं। विकास का कार्य राज्य में पूरी तौर पर ठप है। यह आज की बात नहीं वर्षों से यही स्थिति है। राज्य करीब-करीब आर्थिक दिवालिएपन के कगार पर है। सरकार महीनों अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाती। फिर इधर उधर की मदों से कतर-ब्योंत करके किसी तरह भुगतान कर दिया जाता है। आर्थिक मोर्चे पर प्रशासन की विफलता का यह आलम है कि इस माहौल में भी राज्य सरकार करीब 2000 करोड़ रुपये खर्च न कर पाने की स्थिति में केंद्र को लौटा रही है। राज्य में बिजली नहीं, पानी नहीं, कानून व्यवस्था की स्थिति नाजुक, सड़कें खस्ताहाल और कुल मिला कर राज्य सत्ता अपने आप में समाप्त होती दीख रही है। लंबे अरसे से यही स्थिति है, फिर भी लालू प्रसाद ने जिस वर्ग में लोकप्रियता प्राप्त की उस वर्ग के हीरो वे हाल तक बने हुए थे। सिर्फ इसलिए कि उनकी एक तरह की पारदर्शी गंवई निश्च्छलता सबके सामने थी।

शायद यही कारण है कि उनके अनेक सारे गलत काम भी इस फिजा में दबे ढके रह जाते थे। सामाजिक न्याय दिलाने के नाम पर जब लालू प्रसद कांग्रेस के एक परंपरागत बदनाम विधायक रामलखन सिंह यादव को जनता दल के टिकट पर संसद का चुनाव लड़ा रहे थे तब भी लोगों को रामलखन की वास्तविकता का पता था। लालू प्रसाद सहित सारे राज्य को यह पता था कि रामलखन बाबू सिर्फ शिक्षा माफिया और जमीन माफिया ही नहीं राजनीति में बाहुबल को प्रतिष्ठा दिलाने वाले राजनीतिज्ञों में प्रमुख हैं। यह भी सबको पता था कि उनके सुपुत्र प्रकाश चन्द ने कलकत्ता की उस बदनाम बस्ती में किस तरह कुल और राज्य का नाम रोशन किया था। यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि लोगों को पप्पू यादव के सामाजिक न्याय की असलियत का पता नहीं होगा। लेकिन जब लालू प्रसाद ऐसे लोगों को अपने सामाजिक न्याय की छत्रछाया में ले लेते थे तो लोग इसे भी स्वीकार कर लेते थे। सिर्फ इसलिए कि उन्हें लालू प्रसाद के पारदर्शी व्यक्तित्व पर विश्वास था। उन्हें लगता था कि पिछड़े परिवार के एक गरीब को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग जमने नहीं दे रहे हैं। इसलिए फिलहाल इनसे किसी महत्वपूर्ण कर्म की अपेक्षा की बजाय इसी बात पर असंतुष्ट होना चाहिए कि ये अपने अस्तित्व की लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ पा रहे हैं।

यह स्थिति आगे भी बनी रहती यदि लालू प्रसाद पर आक्रमण सिर्फ उसी वर्ग की ओर से होता, जिस वर्ग को इन्होंने अपना शत्रु घोषित कर रखा था और जो वास्तव में थे भी। आज स्थिति बदल गई है। चाहे पैसे का प्रलोभन हो या शुद्ध अवसरवाद, लेकिन सचाई यह है कि इस बार लालू प्रसाद से जो अलग हुए हैं वे घोषित शत्रुवर्ग के लोग नहीं हैं। यहां बात सिर्फ रामलखन सिंह यादव या रामशरण यादव की नहीं हो रही। बात यहां रामसुंदर दास और उपेन्द्रनाथ वर्मा की भी हो रही है। यह आक्रमण इस बार उस सामाजिक वर्ग की ओर से हो रहा है जिसके न्याय की लड़ाई लड़ने का लालू प्रसाद दंभ भरते हैं और शरद यादव जिसके लिए रथयात्रा का ढोंग कर रहे हैं। रथ पर सवार होकर अपनी बात कहने की परंपरा अभिजात और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की विशेषता रही है। हाल में इसका अत्यंत अशिष्टकरण भी हुआ है। दबे-कुचले और शोषित पीड़ित के दर्द की अभिव्यक्ति किसी रथ पर सवार होकर नहीं की जा सकती। इसलिए इस तरह के अश्लील कृत्य के माहौल में जब लालू प्रसाद आरोप लगाते हैं कि थैलीशाह सामाजिक न्याय की धारा को भ्रष्ट कर रहे हैं तो आज वही लोग हंसते हैं जिनकी अभी कल तक इनके साथ पूरी सहानुभूति थी क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चुका है कि यह किसी उद्देश्य की विफलता का विलाप नहीं है। यह वस्तुतः एक अवसरवादी प्रलाप और अपनी विफलता को ढकने के लिए पवित्र उद्देश्य का अपहरण है।

राम आंदोलन के बाद उपजी भाजपा राजनीतिक और आज के शरद-लालू की रथयात्रा मार्का राजनीति में कहीं कोई अंतर नहीं है। राम मंदिर बनाने का आंदोलन भाजपा के अस्तित्व में आने से वर्षों पहले से चल रहा था। उत्तर भारत के जन-जन में व्याप्त राम प्रेम और उससे उपजी धर्मभीरुता किसी भाजपा आंदोलन का परिणाम नहीं थी। लेकिन जब से भाजपा ने इस आंदोलन को अपने हाथ में लेकर इसे अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाया तब से स्थानीय स्तर का एक शुद्ध धार्मिक आंदोलन एक राष्ट्रीय स्तर के सांप्रदायिक आंदोलन के रूप में भी परिवर्तित हो गया। देश में आज अनेक लोग ऐसे हैं जिनकी रामभक्ति में कहीं कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता लेकिन वे आवश्यक रूप से भाजपा-विहिप आंदोलन के पक्ष में भी हों यह आवश्यक नहीं है। जनता दल के बंटवारे की ताजा प्रक्रिया ने सामाजिक न्याय के आंदोलन को भी अब कुछ वैसा ही स्वरूप प्रदान कर दिया है।

मुरहो से प्रारंभ शरद यादव के मंडल रथ ने इस विभाजन को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया। सामाजिक न्याय का संघर्ष करने वाले आवश्यक नहीं कि वे ही हों, जो मुरहो को एक पवित्र धर्मस्थल और मंडल को अवतार बनाने का प्रयास कर रहे हैं। शरद-लालू-वि.प्र. आदि की यह भोंडी चेष्टा सिर्फ उनकी राजनीति के प्रति ही करुणा का उद्रेक कर पाने में समर्थ है। सामाजिक न्याय के वास्तविक संघर्ष के प्रति नहीं। वैसे इस आंदोलन के भ्रष्ट होने के संकेत उसी दिन मिल गए थे जिस दिन लालू प्रसाद ने अपने जन्म दिन को एनटीआर, एमजीआर और जयललिता की घोर व्यक्तिवादी तानाशाह शैली में मनाने का फैसला किया। वैसे ही राक्षसी कट-आउट, धन और ऐश्वर्य का अश्लील प्रदर्शन तथा नेता की अतिमानवी छवि बनाने के भोंडे प्रयास में जिस दिन लालू प्रसाद शामिल हुए उसी दिन लग गया था कि सामाजिक न्याय का प्रश्न अब इनके लिए निष्ठा का प्रश्न कम और अपनी राजनीति चमकाने का ज्यादा है। रही-सही कसर पेंशन वाले उस कानून ने पूरी कर दी जिसे गुपचुप पास कराने के लिए लालू और जगन्नाथ मिश्र ने आपस में समझौता कर लिया।

यही कारण है कि लालू की जिन बातों को लोग सचमुच विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का षडयंत्र मान कर सहानुभूति जताते थे आज विद्रूप का कारण बनी हुई है। रामलखन के भ्रष्टाचार और अन्य सांसदों के तथाकथित पतन की बात आज लालू के लिए जन मानस पर कोई सहानुभूति की लकीर नहीं खींच पा रही है तो उसके पीछे यही कारण मुख्य है। अब राज्य को यह भी पता लगेगा कि विकास की दौड़ में पीछे रहने के असली कारण क्या हैं। लोग शायद इस विकल्प को भी तराजू पर तोलें कि क्या सामाजिक न्याय के नाम पर किया गया उनका बलिदान सिर्फ इसी व्यर्थता के लिए था। मुलायम सिंह यादव की गतिविधियों से सन 90 में सामाजिक न्याय के संघर्ष को एक भारी झटका लगा था। लालू प्रसाद का विश्वासघात कहीं इसे पूरी तरह तोड़ कर न रख दे।

10 सितंबर, 1992, अमर उजाला

मुसलमान सोच में भी पिछड़ रहे हैं

क्या मुस्लिम मध्य वर्ग पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही कट्टर और अनुदार हुआ है? एक के बाद एक घटनाएं जिस तरह से घट रही हैं, उनसे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि मुसलमानों के मध्य वर्ग या बुद्धिजीवी वर्ग का बहुमत पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा दकियानूस और पुरातनपंथी होता जा रहा है या फिर मुस्लिम समाज में असुरक्षा की बढ़ती भावना उसके मध्य वर्ग के बीच इस प्रकार से प्रकट हो रही है।

जामिया मिलिया इस्लामिया और प्रोफेसर मुशीरूल हसन का मामला तो अब काफी चर्चित हो चुका है, लेकिन मुस्लिम शिक्षा जगत के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण केंद्र, विशेषतः अलीगढ़, बम्बई और पटना में जिस तरह की घटनाएं पिछले दिनों घटी हैं, उनसे यदि कोई इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि आज का शिक्षित मुसलमान जिस रास्ते चल रहा है, उससे समाज थोड़ा और पीछे हटेगा तो ऐसे किसी निष्कर्ष को स्वाभाविक ही मानना चाहिए।

सबसे पहले अलीगढ़ के मामले को लें। यह मामला भी कुछ-कुछ जामिया के मामले की तरह ही है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि अलीगढ़ विवाद में धार्मिक मुद्दे प्रमुख नहीं हैं, लेकिन इस विवाद ने जिस तरह से विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों को प्रभावित किया है, इसका अर्थ सिर्फ यही हो सकता है कि आज मुस्लिम समाज का शिक्षित तबका एक भारी मानसिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है जिसकी अभिव्यक्ति इस तरह से हो रही है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने आई.टी.आई दिल्ली के प्राध्यापक एस एम याह्या को विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति के रूप में नियुक्त किया था। प्रोफेसर याह्या ने थोड़े दिनों बाद तय किया कि विश्वविद्यालय में शिक्षण का उचित माहौल नहीं है, इसलिए वे आई.टी.आई. वापस चले जाएंगे। विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों ने उनकी विदाई का समारोह आयोजित किया, जिसमें प्रोफेसर याह्या ने वही बातें दोहराईं कि किस प्रकार अमुवि में शिक्षण का माहौल खराब हो रहा है। नतीता यह हुआ कि छात्रों का एक हिंसक वर्ग प्रतिवाद करने पहुंचा, जो अंततः मारपीट तथा अध्यापकों को लांछित करने से लेकर कुलपति के निवास पर हमले के रूप में बदल गया और विश्वविद्यालय एक अनावश्यक आन्दोलन का शिकार हो गया।

कुल मिलाकर मामला जामिया की तरह का ही बना कि क्या शिक्षण संस्थाओं में भी लोग अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से कर पाएंगे या नहीं। जामिया के प्रोफेसर मुशीरूल हसन ने सलमान रश्दी की विवादास्पद पुस्तक ‘शैतानी आयतों’ को प्रतिबंध मुक्त करने की बात नहीं की थी। उन्होंने एकदम जायज बात कही थी कि पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाना या कहें कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का हनन करना इस तरह की किन्हीं भी समस्याओं का समाधान नहीं है। परिणाम यह निकला कि न केवल जामिया के छात्रों-शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग प्रोफेसर हसन के हिंसक विरोध पर उतारू हुआ बल्कि देश भर के पढ़े-लिखे मुस्लिम समाज के बहुमत ने भी कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की।

प्रोफेसर याह्या ने तो जो बातें कही थीं, उनका तो दूर-दूर तक धार्मिक आस्था से कोई संबंध नहीं है, लेकिन वहां भी छात्रों-शिक्षकों के एक बड़े वर्ग की प्रतिक्रिया जामिया जैसी ही रही। इससे क्या यह अर्थ नहीं निकलता कि नया मुस्लिम समाज उस हद तक अपने को अनुदार बनाए रखना चाहता है कि उसे बाहर की बात तो छोड़ ही दें, अपने समाज से उठी हुई आलोचना का हल्का-सा तेवर भी अपने ही समाज के विरुद्ध षड्यंत्र लगने लगता है। वरना अलीगढ़ के छात्रा उस तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते जैसा कि पिछले दिनों हुआ, बल्कि प्रोफेसर याह्या के विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए इसे आत्ममंथन का कुछ ऐसा स्वरूप देते कि यह विवेचना अलीगढ़ विश्वविद्यालय से प्राप्त छात्रों की उपलब्धियों के लेखा-जोखा के रूप में सामने आती कि क्या कारण है कि आज इस विश्वविद्यालय के छात्र प्रतियोगिताओं में कहीं टिक नहीं पा रहे हैं। जिस विश्वविद्यालय ने मुस्लिम समाज की कई सारी ऐसी पीढि़यां तैयार की, जो योग्यता और क्षमता में देश के किसी भी विश्वविद्यालय के छात्रों से उन्नीस नहीं रहीं, आज मुस्लिम समाज को एक पढ़े-लिखे बेकार की फौज देने के अलावा कोई सार्थक काम क्यों नहीं कर पा रहा?

यदि मुस्लिम समाज का पढ़ा-लिखा तबका सचमुच इस बात से चिन्तित होता कि देश में बेकारों की बढ़ती फौज में सबसे ज्यादा मुसलमान क्यों हैं या गरीबी की रेखा से नीचे भारतीयों में मुसलमानों का प्रतिशत हर साल क्यों बढ़ता जा रहा है तो वे प्रोफेसर मुशीरूल हसन और प्रोफेसर एस.एम. याह्या के विचारों को वितंडा का वह स्वरूप कतई नही देते, जिससे लोगों की इस अवधारणा को और बल मिलता कि मुस्लिम मध्य वर्ग, या कहें कि समाज को नेतृत्व प्रदान करने वाला तबका सचमुच मुसलमानों की गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के बारे में कतई चिन्तित नहीं है बल्कि वे भी उन्हीं हवाई मुद्दों को ज्यादा महत्त्व देते हैं, जिनके कारण मुसलमान आजादी के बाद देश में पिछड़ता ही गया है।

बम्बई का विद्या भवन-अंजुमन विवाद इस प्रवृत्ति का सबसे अच्छा उदाहरण कहा जा सकता है। बम्बई में भारतीय विद्या भवन द्वारा परिचालित जनसम्प्रेषण और प्रबंधन का राजेन्द्र प्रसाद संस्थान अपने क्षेत्रा की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है, जिसने हजारों की संख्या में युवाओं को आधुनिक सम्प्रेषण की तकनीक में प्रशिक्षित किया है, जो देश में महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं। भारतीय विद्या भवन भारत की प्राचीन संस्कृति के गौरव को पुनजीर्वित करने में विश्वास करता है। उसके पिछले कार्यकलाप को देखते हुए यह बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि हिन्दू विचारधारा की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने वाला यह संस्थान किसी भी कोण से साम्प्रदायिक नहीं है। यही बात बम्बई के अंजुमन-ए-इस्लाम के बारे में भी कही जा सकती है, जिसने बम्बई में मुस्लिम समाज को शिक्षित करने के क्षेत्र में अलीगढ़ या जामिया के टक्कर का काम किया है। इस्लामी सभ्यता और मुस्लिम समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर चलाया जाने वाला यह संस्थान अनुदार और पुरातनपंथी नहीं है, यह बात भी विश्वास के साथ कही जा सकती है।

इन परिस्थितियों में विद्या भवन की इस पहल की प्रशंसा होनी चाहिए थी कि वह राजेन्द्र प्रसाद संस्थान की एक शाखा अंजुमन-ए-इस्लाम के बोरीबंदर स्थित स्कूल में प्रारंभ करना चाहता है, जहां तीस प्रतिशत स्थान मुसलमान छात्रों के लिए सुरक्षित रखे जाएंगे। इस प्रस्ताव के दूसरे चरण में अंजुमन में संस्कृत तथा विद्या भवन में अरबी तथा फारसी पढ़ाने की योजना थी, लेकिन बम्बई के मुस्लिम समाज में हंगामा हो गया और इस प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा। आश्चर्य की बात यह है कि इस प्रस्ताव का विरोध करने वाले पुरातनपंथी मुल्ला-मौलवी नहीं, बल्कि वे लोग थे जिन्हें मुस्लिम समाज के प्रगतिशील वर्ग का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। इस प्रस्ताव का सबसे मुखर विरोध बम्बई से प्रकाशित ‘उर्दू टाइम्स’ महाराष्ट्र के भूतपूर्व शिक्षा सचिव तथा अंजुमन की प्रबन्ध समिति के सदस्य ए.यू. शेख तथा प्रख्यात मुस्लिम समाज सुधारक स्व. हमीद दलवई के भाई तथा महाराष्ट्र जनता दल के अग्रणी नेता हुसैन दलवई ने किया। मुखालफत का मुख्य आधार यह था कि विद्या भवन जैसी भारी-भरकम संस्था के प्रवेश से अंजुमन का अल्पसंख्यक चरित्र समाप्त होने का खतरा है। इस तरह शिक्षित मुस्लिम बेकार युवाओं के सामने एक अवसर आते-आते रह गया।

मुस्लिम मध्य वर्ग जिस तरह से अपने खोल में सिमटकर पीछेदेखू बनने की कोशिश कर रहा है, इसका एक अन्य उदाहरण है- पटना स्थित खुदाबख्श लाइब्रेरी के निदेशक का मामला। इस पुस्तकालय के निदेशक डॉ. आबिद रजा बेदार इन दिनों विवादों के घेरे में हैं। उन पर इस्लाम और मुसलमान विरोधी होने के आरोप लगाकर उन्हें पुस्तकालय से निकाल बाहर करने का एक आन्दोलन पटना में उग्र रूप धारण कर रहा है। वर्तमान विवाद का विषय हालांकि ‘काफिर’ शब्द की व्याख्या करते हुए उनकी ताजी टिप्पणी है, लेकिन दो प्रमुख इस्लामी संस्थाओं द्वारा उन्हें काफिर घोषित करते हुए ‘दोजख की आग’ में डालने का फतवा उनकी एक 23 वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक के कारण जारी किया गया है। डॉ. बेदार ने सन् 1969 में एक पुस्तक ‘सीमा की तलाश’ प्रकाशित कराई थी, जिसमें उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ, जुम्मे की तमाज, हिन्दू उपासना स्थलों को ढहाकर वहां बनाई गई मस्जिदों का मामला तथा इस्लामी कर्तव्य के बारे में अपने विचार प्रकट किए थे। आज उस पुस्तक के प्रकाशन के 23 वर्ष बाद डॉ. बेदार को काफिर घोषित करते हुए उन्हें पुस्तकालय के निदेशक पद से हटाने का आन्दोलन किया जा रहा है, जिसमें धीरे-धीरे अब उग्र धार्मिकता का प्रवेश हो रहा है।

इन चारों घटनाओं में एक बात मार्के की है कि इन विवादों के केंद्र में मुस्लिम समाज का कोई ऐसा व्यक्ति है, जो समझदारी की बात करने के कारण अपने समाज के बहुमत का कोपभाजन हो रहा है। जामिया में प्रोफेसर हसन, अलीगढ़ में प्रोफेसर याह्या, अंजुमन में डॉ. इसहाक जामखानवाला तथा पटना में डॉ. बेदार सिर्फ थोड़ी समझदारी की बात करके अपने समाज के उस वर्ग के आक्रमण का निशाना बन रहे हैं, जो संस्थानों की स्थानीय राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए मुस्लिम समाज के अंदर गहरे पैठे असुरक्षा तथा भय की भावना को भड़काकर इसे पूरे समाज के संकट का रूप दे रहे हैं। इस प्रकार एक समाज को थोड़ा और पीछे धकेल रहे हैं, जो ऐतिहासिक कारणों से वैसे ही पिछड़ता जा रहा है।

असल में भारतीय मुस्लिम समाज की यही विडम्बना रही है कि असुरक्षा की भावना को और हवा देकर हमेशा उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र तथा मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि को ही मुसलमानों की वास्तविक समस्या बनाया जाता रहा है ताकि इस बात की ओर उनका ध्यान न जाए कि मुसलमान आज देश में सबसे ज्यादा गरीब, सबसे ज्यादा अशिक्षित तथा सबसे ज्यादा असुरक्षित क्यों है। कम-से-कम इस समाज के पढ़े-लिखे वर्ग से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे इस वर्ग की वास्तविक समस्याओं को समझें और उस वर्ग का हथियार न बनें जिसका स्वार्थ इस समाज को बनाए रखकर अपनी राजनीति चमकाने में है। यह प्रक्रिया वास्तव में बहुसंख्य समाज की साम्प्रदायिकता के हाथ ही मजबूत करती है।

8 जुलाई 1992, अमर उजाला

एक ऐतिहासिक पहल

अनूसूचित जातियों व जनजातियों का दो दिवसीय सम्मेलन एक गंभीर राजनीतिक सोच के मंच के रूप में परिणत हो जाएगा, इसकी उम्मीद शायद ही किसी को थी। अधिकांश लोग यह उम्मीद लगाए हुए थे कि दलित राष्ट्रपति के प्रश्न पर सम्मेलन विभाजित हो जाएगा और राजनीतिक दलों के बंधनों के ऊपर उठकर दलितों का यह जो नया मंच उभर रहा है, उसके बिखरने की शुरुआत भी इसी सम्मेलन से प्रारंभ हो जाएगी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे इस सम्मेलन में जो सामाजिक-आर्थिक प्रस्ताव पास हुए हैं, उन्हें राजनीतिक सूझबूझ का उत्कृष्ट उदाहरण कह सकते हैं।

दलित राष्ट्रपति की मांग इस फोरम की मुख्य मांग कभी नहीं थी। पिछले साल आन्ध्रप्रदेश के संदूर में दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ ज्ञापन देने गए 106 दलित आदिवासी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल से राष्ट्रपति का मिलने से इंकार करने के बाद फोरम ने प्रतिक्रिया स्वरूप एक प्रस्ताव पास किया था कि अगला राष्ट्रपति दलित समुदाय से चुना जाना चाहिए। वह फोरम का भी प्रारम्भिक काल था और तब शायद इस फोरम को भी यह अंदाजा नहीं था कि इस मंच में कितनी संभावनाएं भरी पड़ी हैं। इन दो दिनों के सम्मेलन में हुई चर्चा और पारित प्रस्तावों ने यही सिद्ध किया है कि दलित शक्ति को अपनी क्षमता का पूरा अहसास हो गया है। वे सिर्फ दलित राष्ट्रपति के सवाल को मुख्य सवाल बनाकर अपनी इस नवसंचित उर्जा को यों ही नष्ट करने के लिए तैयार नहीं है।

दलित राष्ट्रपति का सवाल वास्तव में कुछ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के लिए सिर्फ राजनीति का ही प्रश्न है। इसमें दोनों तरह के नेता शामिल हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह और रामविलास पासवान सहित जनता दल का वह वर्ग, जो इसी सवाल पर राजनीतिक वारे-न्यारे कर लेना चाहता है। दूसरी ओर वे राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी हैं, जिनका ब्रह्मरोष इस बात पर भड़का हुआ है कि आखिर जाति योग्यता का विकल्प कैसे हो सकती है।

पहले वर्ग के लोगों की पूरी शक्ति इसी बात में लगी रही कि चाहे जैसे भी हो, दलित राष्ट्रपति के प्रश्न को सम्मेलन के केंद्र में बनाए रखकर उसे उस सीमा तक ले जाना है, जहां उस प्रस्ताव का बिना शर्त समर्थन नहीं करने वाले लोगों की निष्ठा को संदेह के दायरे में लाया जा सके। संकुचित राजनीतिक दृष्टि वाले दूसरे वर्ग की आकांक्षा इससे कुछ बहुत भिन्न नहीं थी। वे भी इसी प्रश्न का प्राधान्य देखना चाहते थे ताकि यदि वैसा कोई राजनीतिक प्रस्ताव पारित किया जाए तो उन्हें यह कहने का मौका मिल सके कि अब लोकतंत्र से पार्टियों की आवश्यकता समाप्त करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है और दलितों ने देश को जातिवादी राजनीति के अंधेरे गर्त में धकेल दिया है।

सम्मेलन में भाग ले रहे दलित नेतृत्व को इस खतरे का आभास था। उन्हें पता था कि यदि दलित राष्ट्रपति के प्रश्न को एजेंडे से पूरी तरह बाहर कर देते हैं तो इन दोनों शक्तियों को खुलकर खेलने का मौका मिल जाएगा। एक तरह तो यह कहा जाता कि नेतृत्व को कांग्रेस ने अंततः खरीद लिया और यदि इस मुद्दे को ही केंद्रीय मुद्दा बना दिया जाता तो उनकी चाँदी हो जाती जो अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए एक महत उद्देश्य को औजार बनाना चाहते है। सम्मेलन को इस बात का अहसास तो था ही कि पिछले साल अचानक शुरू हुआ 106 सांसदों का यह ढीला-ढाला मंच आज करीब 250 सांसदों, विधायकों तथा बुद्धिजीवियों का ही एक प्रभावशाली फोरम इस वजह से भी बना है कि दलित राष्ट्रपति के प्रश्न ने सारे देश का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट किया है। चाहे प्रतीक रूप में ही सही, लेकिन दलित राष्ट्रपति के प्रश्न ने ही फोरम को यह अवसर प्रदान किया है कि वह देश का ध्यान दलितों की दारुण दशा और समाज की उनके प्रति उपेक्षा की ओर दिला पाने में सफल रहा है।

इसीलिए सम्मेलन में एक तरफ आर्थिक, समाजिक और राजनीतिक प्रस्ताव पास होते रहे, लेकिन दूसरी ओर दलित राष्ट्रपति का प्रश्न भी अदृश्य रूप से सम्मेलन स्थल पर स्थायी भाव से मंडराता रहा। इस प्रक्रिया में दलित, आदिवासी और वंचित तबकों की अपनी पहचान जिस दृढ़ता से स्थापित हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। इस सम्मेलन में फोरम को एक सुसंगत तथा मुख्य दलितवाणी के रूप में उभारा और कुछ ऐसी बातें पहली बार हुईं जिनका भविष्य की भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ना निश्चित है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है- सम्मेलन में पास किया गया दलितों की आर्थिक-सामाजिक अवस्था पर प्रस्ताव। पहली बार एक ऐसा दस्तावेज सामने आया है जिसमें दलितों के प्रति अब तक चली आ रही करुणा और कल्याण का भाव प्रधान नहीं है। इसी दस्तावेज में दलितों की वर्तमान स्थिति का खुलासा लेखा-जोखा है और ऐसी मांगें की गई हैं, जिन्हें मानने पर वास्तव में दलितों की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन हो सकता है।

प्रस्ताव में दलितों पर आए दिन हो रहे अत्याचारों तथा उस समाज की आर्थिक दैन्य दशा को अलग-अलग व्याधि के रूप में देखने के बजाए इसे समाज के आर्थिक-सामाजिक सड़ांध का लक्षण मात्रा माना है। प्रस्ताव में कहा गया है कि जब तक सम्पूर्ण समाज के आर्थिक-सामाजिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हो जाता, इन लक्षणों को मिटाने की कोशिश करना सिर्फ शाब्दिक सहानुभूति बनकर ही रह जाएगी, रोग को जड़ से मिटाने की कोशिश कतई नहीं बन सकती।

इसलिए प्रस्ताव कहता है कि समाज यदि सचमुच रोग की जड़ को मिटाने के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे लफ्फाजी से उबरना होगा। शब्दों से ऊपर उठकर ठोस कर्म की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए कुछ विशिष्ट उपाय सुझाए गए हैं। मसलन, कुछ निम्नतम मजदूरी के लिए राष्ट्रीय कानून बने, न कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दरों पर मजदूरी निर्धारित की जाए। बंधुआ मजदूरों को सिर्फ मुक्त कर देने मात्रा से कर्तव्य की इतिश्री न हो, उनके पुनर्वास के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। खेती से विरत हो रहे दलित वर्ग को लघु सिंचाई के मामले में प्राथमिकता दी जाए।

मंदिरों और मठों की जमीनों से संबंधित एक अत्यन्त क्रान्तिकारी प्रस्ताव निश्चय ही समाज के प्रभावशाली वर्ग का ब्रह्मरोष तीव्र करेगा। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि मंदिरों, मठों तथा धर्मार्थ न्यासों की जमीन दलितों को खेती के लिए पट्टे पर दी जाए। इसके अतिरिक्त भंगी मुक्ति, जंगलों के संरक्षण, जंगलों के उत्पाद पर दलितों-आदिवासियों का अधिकार, कर्ज मुक्ति तथा दलितों-आदिवासियों के स्कूल जाने वाले बच्चों को मुफ्त आहार देने के प्रस्ताव भी पास किए गए। सरकार की नई आर्थिक नीति विषयक प्रस्ताव ने तो नरसिंह राव सरकार को कठघरे में ही खड़ा कर दिया। सम्मेलन में कहा गया कि सरकार ने नई आर्थिक नीति लागू करने से पहले सभी वर्गों से विचार-विमर्श करना उचित नहीं समझा। विभिन्न कॉमर्स चैम्बरों, ट्रेड़ यूनियनों तथा देशी-विदेशी अर्थनीतिविदों से नई अर्थनीति के बारे में चर्चा की गई, पर दलितों- आदिवासियों को किसी भी स्तर पर विचार-विमर्श में शामिल नहीं किया गया।

यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना है, क्योंकि पहली बार दलितों ने अपने आपको एक अलग आर्थिक वर्ग के रूप में मान्यता देने की मांग की है। अब तक दलित समस्या को सिर्फ सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक स्तर पर ही देखा जाता रहा है, जबकि वास्तविकता यह है कि इस लड़ाई के जड़ में प्रमुख तत्व हमेशा आर्थिक रहा है। इसलिए यह मांग करना कि योजना मद व्यय की राशि निर्धारित करते हुए योजनाकार इस बात का ध्यान रखे कि दलितों-आदिवासियों को उनकी आबादी के अनुपात में ही धन आबंटित किया जा रहा है, अपने आप में एक क्रान्तिकारी मांग है। उस मांग से कहीं ज्यादा दूरगामी महत्त्व की, जिसमें कहा गया है कि राज्यसभा और विधान परिषदों में भी लोकसभा तथा विधानसभा की तरह सीटों का आरक्षण किया जाए। समाज के आरक्षण विरोधी तबके ने इस मांग की गंभीरता को शायद नहीं समझा है। इसलिए उन बातों को उछालकर मुदित हो रहे हैं जो बातें इस सम्मेलन के हाशिए पर चर्चित होती रहीं।

सम्मेलन के मुख्य प्रस्तावों पर अभी लोगों का ध्यान नहीं गया है। यदि इस पर गहराई से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि देश में जिस नई राजनीतिक संस्कृति की हवा का आभास थोड़े दिन से लोगों को मिल रहा था, उसका कुछ ठोस रूप इस सम्मेलन के दौरान पहली बार देखने को मिला है। यह सम्मेलन एक ऐसे समय में आयोजित हुआ है जब देश के अधिकांश राजनीतिक दल महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर एक ही सोच के सांचे में ढले दिखते हैं। ऐसा लग रहा है कि कोई विकल्प है ही नहीं। ऐसी स्थिति में यह फोरम ताजी हवा के एक ऐसे झांेके के रूप में आया है जिसमें भविष्य की राजनीति के संकेत स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इसलिए इसे कृपया सिर्फ दलित राष्ट्रपति के प्रश्न या विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीत-हार के प्रश्न के रूप से न देखें। इसमें एक आगामी राजनीति का पूर्वाभास छिपा
हुआ है। कृपया ऐतिहासिक पहल को इसी रूप में देखें।
25 जून 1992, अमर उजाला

गलत परम्परा मत डालिए

राष्ट्रपति पद के प्रार्थी का चयन करते समय राजनैतिक दल व्यक्ति के किस गुण और योग्यता
को ध्यान में रखें। अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति फोरम सभी राजनैतिक दलों
के सांसदों का संयुक्त मंच है। इस फोरम ने मांग की है कि राष्ट्रपति पद पर इस बार किसी
दलित या वनवासी को चुना जाए। अब तक जितने भी हिन्दू राष्ट्रपति हुए हैं, उनमें से कभी
किसी दलित, वनवासी या पिछड़ी जाति के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनने का मौका नहीं मिला है।

सोच-समझ से सरोकार रखने वाले अधिकांश लोगों ने राष्ट्र के इस सर्वोच्च पद को
जाति से बाँधने की कोशिश को अनुचित माना है। अधिकांश राजनैतिक दलों की भी यही
मान्यता है, लेकिन कुछ व्यावहारिक कारणों से सर्वदलीय फोरम की इस मांग को राजनैतिक
दल एकबारगी नामंजूर भी नहीं कर पा रहे है। भाजपा और माकपा जैसी काडर अनुशासित
पार्टियों का मामला अलग है। कांगे्रस में भी कुल मिलाकर यही माहौल है कि राष्ट्रपति पद
के प्रार्थी की योग्यता का आधार सिर्फ जाति न हो।

यह अच्छी बात है। किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि समाज के सभी वर्गों
को समुचित और बराबरी का प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की आवश्यकता पड़े, तो
यह मानना चाहिए कि या तो उस समाज की सभ्यता में कहीं कोई कमी है या उस लोकतांत्रिाक
व्यवस्था में कोई खोट है। हमारे यहां लगता है कि दोनों ही बातें हैं, वरना आजादी के 45
साल बाद दलित-वनवासी जातियों के सांसदों को फोरम बनाकर इस तरह की मांग नहीं करनी
पड़ती। यह चिंता का विषय है, एक अलग और व्यापक चिंता का विषय। इसे सिर्फ किसी
एक पद से जोड़ देना इस अति महत्त्वपूर्ण विषय को अनावश्यक रूप से संकीर्ण दृष्टि से
देखना होगा।

सिर्फ जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त नहीं माना
जा सकता। इस तर्क के आधार पर धर्म, भाषा, वर्ग या क्षेत्रा भी राष्ट्रपति पद के प्रार्थी की
योग्यता के आधार नहीं हो सकते। भारतीय गणराज्य के पहले राष्ट्रपति की बात छोड़ दें
तो पता चलेगा कि इस पद के प्रार्थी के चयन में सिर्फ योग्यता या क्षमता का आधार उसके
बाद शायद ही कभी ईमानदारी से लागू हुआ हो। भारत के पहले प्रधानमंत्री और पहले राष्ट्रपति,
दोनों ही सवर्ण हिन्दू थे। दोनों हिंदीभाषी थे और कमोबेश एक ही वर्ग का प्रतिनिधित्व करते
थे। सिर्फ इन्हीं कारणों से उनमें से किसी एक को चुनने की बात तब नहीं उठी। शायद
इसलिए कि तब पद प्राप्त करने के लिए सिर्फ योग्य होना ही काफी होता था।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बाद राष्ट्रपतियों के चयन का आधार सिर्फ योग्यता ही रही, इस
बात को दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। डॉ. राधाकृष्णन की योग्यता और क्षमता के
बारे में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। वे विश्वस्तर के दार्शनिक, विद्वान तथा शिक्षाशास्त्री
थे। एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसे निस्संदेह राष्ट्रपति पद की गरिमा के सर्वथा उपयुक्त कहा
जा सकता है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और डॉ. राधाकृष्णन तक आते-आते राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी
चुनने में इतना अन्तर अवश्य आ गया था कि योग्यता और पात्राता के अतिरिक्त भी कुछ
और ढूंढ़ा जाने लगा। कहा गया कि प्रधानमंत्री चूंकि उत्तर का है, इसलिए राष्ट्रपति दक्षिण
का होना चाहिए। यह अतिरिक्त योग्यता की मांग की शुरुआत थी।

भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन भले ही डॉ. राधाकृष्णन जैसे अंतर्राष्ट्रीय
स्तर के विद्वान व शिक्षाशास्त्री तथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे विख्यात विधिवेत्ता और संविधान
सभा के सभापति वाली हैसियत के व्यक्ति न रहे हों, पर उनकी विद्वत्ता, निष्पक्षता, दलगत
राजनीति से उनका परे होना तथा मुस्लिम समाज के सांस्कृतिक- सामाजिक नेता की हैसियत
उनकी अवश्य थी।

उनके चुने जाने के पीछे एक बड़ा कारण उनका मुसलमान होना भी था। यानी क्षेत्रा
और भाषा के बाद अब एक अतिरिक्त योग्यता धर्म बन रहा था। जाहिर है, जब सर्वथा
योग्य लोगों को चुनने के बाद भी धर्म, क्षेत्र और भाषा के रूप में योग्यता की कुछ अतिरिक्त
कसौटियां काम में लाई जाती रहीं तो जाति के प्रश्न को बहुत दिनों तक कैसे दबाया जा
सकता था। अतिरिक्त योग्यता को ही प्राथमिक योग्यता मानने की प्रवृत्ति अब थोड़ी और
ज्यादा विकृत दिखाई देने लगी है।

इस विकृति का प्रारंभ इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रिात्व काल में हुआ। राष्ट्रपति के रूप
में वराहगिरि व्यंकट गिरि कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति की देन थे। उनका चयन करते समय
राष्ट्रपति पद की गरिमा को नहीं, बल्कि इस बात को ध्यान में रखा गया था कि कांग्रेस
की अंदरूनी राजनीति में राष्ट्रपति पद के इस चुनाव से श्रीमती गांधी को कितना लाभ
मिलेगा।

गिरि के बाद ऐसी परम्परा चली कि राष्ट्रपति पद की सारी वांछित योग्यताएं एक ओर
धरी रह गईं और सबसे महत्त्वपूर्ण योग्यता यह बनी कि राष्ट्रपति का कद किसी भी हालत
में प्रधानमंत्री के कद से ऊंचा न हो। वे प्रधानमंत्री की सही-गलत हर बात को स्वीकार
कर लें। भारत के पांचवें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इमर्जेंसी के आदेश पर बिना
चूं-चपड़ किए दस्तखत करके इसे सिद्ध भी कर दिया कि राष्ट्रपति का कद अब उतना ही
होगा, जितना प्रधानमंत्री चाहेंगे।

योग्यता, क्षमता तथा पात्राता के आधार पर भारत के सातवें और आठवें राष्ट्रपति की
बात जितनी कम करें, उतना ही बेहतर होगा। यह राष्ट्रपति पद की पतनगाथा की पराकाष्ठा
थी। यहां तक आते-आते प्रार्थी की अतिरिक्त योग्यता ही मुख्य योग्यता बन चुकी थी। पंजाब
समस्या को जटिल बनाने वाले जैल सिंह और पनडुब्बी-तोपकांड की लीपापोती के लिए प्रसिद्ध
वेंकटरामन आखिर किन योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति चुने गए।

ऐसी स्थिति में यदि एक वर्ग यह मांग करता है कि वह समाज का बहुसंख्य वर्ग है
और उसे आज तक इस पद से वंचित रखा गया है, अतः उसे सिर्फ इसी आधार पर यह
पद मिलना चाहिए, तो वह कोई बहुत गैरवाजिब बात नहीं कर रहा होता है। योग्यताओं
की कसौटी तो तहस-नहस हो चुकी है। ज्यादा से ज्यादा हम यह कह सकते हैं कि इस तरह की मांग पतनगाथा की धारावाहिकता को और जीवन प्रदान करेगी। ऐसी स्थिति में वे पलटकर
पूछ सकते हैं कि योग्यता की मांग आखिर आज ही क्यों, इससे पहले क्यों नही?

इसलिए सिर्फ जाति के आधार को विनम्रता से अस्वीकार करते हुए भी इन जातियों
के दर्द को समझना पड़ेगा, क्योंकि यह पीड़ा वास्तविक है। इस वर्ग का विश्वास समाज को
वापस मिले, इसके लिए आवश्यक है कि इस बार ऐसा राष्ट्रपति चुना जाए जो न सिर्फ संविधान
के पालक और संरक्षक के रूप में सक्षम हो, बल्कि सक्षम दिखे भी। दलगत राजनीति से
वह ऊपर हो। राष्ट्र उसे परिवार के एक ऐसे उदार मुखिया के रूप में देखे, जिसके लिए
हर राजनैतिक मतवाद, क्षेत्रा, भाषा, जाति तथा धर्म के लोग समान हों। फिर वह किसी भी
जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रा का क्यों न हो, सम्पूर्ण राष्ट्र उसे स्वीकार करेगा।

इस चयन में जब तक पारदर्शी ईमानदारी नहीं होगी, देश-समाज के वंचितों को यह
लगता रहेगा कि जब उन्हें कुछ देने की बारी आती है, तभी योग्यता सर्वोपरि होती है वरना
नहीं। दलितों-वंचितों की इस मांग से पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी उन्हें यह समझाया जाना
आवश्यक है कि उनकी मांग को ज्यों का त्यों मान लेने का अर्थ होगा, एक गलत परम्परा
को और आगे बढ़ाना। इस पर पूर्णविराम कर्म से ही लगाया जा सकता है, सिर्फ शब्दों की
चालाकी से नहीं। देखना है कि नरसिंह राव क्या इंदिरा गांधी की इस परम्परा को तोड़ पाएंगे?
15 जून 1992, मतांतर, इंडिया टुडे

दलितों-वंचितों की राजनीतिः चेतावनी की घंटी

कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव में किसी भी दलित, महिला या आदिवासी के न चुने जाने से
उत्पन्न संकट ने इस वास्तविकता को गहरे रेखांकित किया है कि कांग्रेस की राजनीति का
सामाजिक आधार क्रान्तिकारी रूप से परिवर्तित हो चुका है, जबकि कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व
इस तथ्य से अनभिज्ञ बना रहना चाहता है। कांग्रेस अध्यक्ष की विशेष चिंता स्वाभाविक
है। दक्षिण भारतीय होने के नाते नरसिंह राव इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के साक्षी रहे हैं, इसलिए
वे इसे समझ भी पा रहे हैं, जबकि कांग्रेस का उत्तर भारतीय नेतृत्व अब भी अपनी पारम्परिक
राजनीति-शैली से चिपके रहना चाहता है।

यह संकट सिर्फ कांग्रेस का निजी राजनैतिक संकट नहीं है, यह संकट भारतीय राजनीति
में आ रहे आन्तरिक उफान का प्रतीक भी है। शायद ही कोई राजनैतिक दल इससे अछूता
बचा है। एक लोकतान्त्रिाक व्यवस्था में बहुसंख्य वर्ग को समुचित और व्यापक राजनैतिक
प्रतिनिधित्व कैसे मिले, यह प्रश्न अधिकांश राजनैतिक दलों के पिछड़े, दलित, आदिवासी
कार्यकर्ताओं को मथ रहा है। विभिन्न दलों में इस दर्द की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न रूप से
हो रही है। इस प्रक्रिया को यदि इस संदर्भ में देखा जाए तो भारतीय राजनीति के वर्तमान
संकट को शायद सही परिपे्रक्ष्य में देख पाना संभव हो।

भाजपा जैसा अनुशासित दल बिहार में टूट गया। ध्यान देने की बात है कि दल से
टूटकर अलग हुए अधिकांश कार्यकर्ता पिछड़े वर्ग के थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे घोर वामपंथी
विचारधारा वाले दल में टूट हुई। वहां भी टूटने वाले लोग पिछड़े वर्ग के ही थे। महाराष्ट्र
में शिवसेना जैसे अधिनायकवादी दल में भी टूट कुछ इसी प्रकार हुई। छगन भुजबल के नेतृत्व
में पिछड़े वर्ग के कार्यकर्ताओं का एक समूह शिवसेना से अलग हो गया और कांग्रेस में शामिल
हो गया।

जनता दल के विखंडन का पैटर्न थोड़ा अलग है। यहां हर विघटन के बाद अवर्णों का
वर्चस्थ थोड़ा और बढ़ रहा है। नेतृत्व हालांकि अब भी सवर्ण-बहुल है लेकिन अब वह शायद
प्रतीकात्मक ज्यादा रह गया है, वास्तविक कम। सभी राजनैतिक दलों के दलित-आदिवासी
सांसदों की इस मांग को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए कि कोई दलित ही इस बार भारत
का राष्ट्रपति बने। संस्कृति से जोड़ने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी में भी कल्याण
सिंह और उमा भारती जैसे नेताओं को ही क्यों लांछित होना पड़ता है? इस सचाई को भी
इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। मामला यहां भी व्यापक राजनैतिक प्रतिनिधित्व तथा अवर्णों
की प्रगति से उत्पन्न सवर्ण रोष का ही है लेकिन भाजपा चूंकि अभी तक इस कसौटी पर
कसे जाने की आदी नहीं है, इसलिए इस विषय को भविष्य के लिए सुरक्षित रखकर फिलहाल
कांगे्रस के वर्तमान संकट को समझने की चेष्टा से ही ढेर सारे अनसुलझे प्रश्नों का एक संबद्ध
उत्तर मिल सकता है।

यह सच है कि कांग्रेस अध्यक्ष की इस चिंता के पीछे मूल कारण राजनैतिक है, जो
सीधे कांग्रेस की शिखर राजनीति से जुड़ा हुआ है, वरना क्या कारण है कि राव ने चुनाव
हो जाने के बाद ही अपनी चिंता को अभिव्यक्ति देना उचित समझा। यह तो ब्लॉक स्तर
के प्रारम्भिक चुनाव से ही स्पष्ट होने लगा था कि कांग्रेसी नेतृत्व समाज के कमजोर वर्ग
के स्वार्थ की उपेक्षा कर रहा है। विभिन्न प्रदेश कांग्रेस कमेटियों तथा अखिल भारतीय कांग्रेस
कमेटी के सदस्यों की सूची देख डालिए। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि कम-से-कम हिंदी
भारत का कांग्रेस नेतृत्व इस बात की कतई चिंता नहीं कर रहा था कि समाज के विभिन्न
वर्गों के लोगों को कैसे हर स्तर पर समुचित प्रतिनिधित्व मिले। उत्तर प्रदेश में दलित और
आदिवासी सम्पूर्ण आबादी के करीब 24 प्रतिशत हैं और पिछड़े 60 प्रतिशत के करीब, लेकिन
उत्तर प्रदेश की सूची पर गौर करें तो पता चलेगा कि इस वर्ग का प्रतिनिधित्व इसमें दस
प्रतिशत भी नहीं है।

यही हालत बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा सहित सम्पूर्ण हिंदी भारत की है।
यह अचानक नहीं हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष निश्चित ही इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं होंगे।
इसलिए उचित तो यह होता कि चुनाव प्रक्रिया से अपने आपको निरपेक्ष रखते हुए भी राव
कम-से-कम इस तथ्य की ओर चुनाव से पहले ही लोगों का ध्यान आकृष्ट करते कि कांग्रेस
की मतदाता सूची विकृत है और इसमें समाज के सभी वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं
हुआ है। जिस क्षत्राप को जहां मौका मिला है, वहीं उसने अपनी स्थिति मजबूत करने की
कोशिश की है। इस बात से बिल्कुल बेखबर कि उसका यह कर्म कांग्रेस के वास्तविक सामाजिक
आधार के हितों के सर्वथा विपरीत जा रहा है। समाज के वंचित वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व
देने के लिए राव यदि चुनाव से ऐन पहले एक आधिकारिक सूची प्रसारित करते, जिसमें
केवल दलित, महिला, आदिवासी सहित समाज के वंचित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की अपील
होती, तो उनकी आज की चिंता ज्यादा वास्तविक और सार्थक दिखती। चुनाव प्रक्रिया में
अनावश्यक दखलअंदाजी का आरोप भी उन पर नहीं लगता, न ही उनकी निरपेक्षता पर
कोई प्रश्नचिद्द लगता। इसलिए आज जब दबी जबान यह कहा जा रहा है कि राव अपने
इस कदम से क्षत्रापों की बढ़ती शक्ति का मुकाबला करना चाहते हैं, तो इसकी सचाई से
इनकार भी नहीं किया जा सकता। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि राव ने वर्तमान
भारतीय राजनीति में कमजोर वर्ग की आकांक्षा को भी सही समझा है। यह बात दीगर है
कि अपनी इस समझ का वे अपने राजनैतिक हित में भी इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए जब
वे कह रहे होते हैं कि कांग्रेस जैसी संस्था भी यदि दलित, आदिवासी, महिला जैसे वंचित
वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं दे सकती, तो फिर वे और कहां से उम्मीद करें, तब वे
भारतीय राजनीति के वर्तमान यथार्थ से भी साक्षात्कार करा रहे होते हैं, शिखर राजनीति
की उनकी अपनी विवशताएं चाहे कुछ भी क्यों न हों।

इसीलिए इस मसले को दलित राष्ट्रपति के सवाल या भाजपा-शिवसेना जैसी पार्टियों
से पिछड़ों-दलितों के मोहभंग के प्रश्न से जोड़कर देखना भी सार्थक होगा। उसे इस संदर्भ
में भी देखना चाहिए कि आरक्षण का बंधन ढीला करते ही समाज के वंचित तबकों को वह
न्यूनतम प्रतिनिधित्व भी क्यों नहीं मिल पाता, जितना उन्हें आरक्षण दिला देता है। इसलिए
ये प्रश्न बेमानी हैं कि राव शिखर राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करने या सिर्फ कमजोर
वर्ग के बीच लोकप्रिय होने के लिए इस सवाल को छेड़ रहे हैं। इस बात का भी कोई अर्थ
नहीं कि जो आज दलित राष्ट्रपति चुनने की बात कर रहे हैं, उनका उद्देश्य दलित राष्ट्रपति
प्राप्त करना नहीं बल्कि इस मुद्दे का राजनीतिक शोषण करना तथा दलित समस्या को विकृत
करने की कोशिश करना है।

पर यह घटनाचक्र यह सिद्ध करता है कि जैसे-जैसे भारत में लोकतंत्रा की जडें मजबूत
होंगी, समाज के वंचित लेकिन बहुसंख्य वर्ग को ईंधन बनाकर उसकी आंच पर सवर्ण राजनीति
की रोटी सेंकना शायद अब लंबे अरसे तक संभव न रह पाए। यदि लोकतांत्रिाक व्यवस्था
कायम रहती है, तो यह वर्ग उसमें अपना समुचित हक भी लेकर रहेगा। चेतावनी की यह
घंटी हर राजनीतिक दल के अंदर घनघना रही है। जो सुन पा रहे हैं, वे वास्तविक सत्ता में
बहुसंख्य वर्ग की हिस्सेदारी के रास्ते में रुकावट नहीं बनेंगे, जो नहीं सुन पा रहे हैं या
सुनकर भी अनसुनी कर रहे हैं, उनकी राजनीतिक मंजिल सिर्फ इतिहास की कचरा पेटी ही
हो सकती है।

15 मई 1992, मतांतर, इंडिया टुडे

सामाजिक न्याय पर सर्वसम्मति संभव है

आरक्षण विरोधी आंदोलन के अब करीब दो महीने पूरे होने को आ रहे हैं। एक अहिंसक और काफी हद तक लोकतांत्रिक शुरुआत के बाद यह आंदोलन उत्तर भारत के प्रमुख शहरों में हिंसक, युवा और छात्र वर्ग में आत्मघाती तथा राजनीतिक क्षेत्र में विस्फोटक मोड़ लेता हुआ एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा है जहां आंदोलनकारियों के अपने अलग-अलग उद्देश्य और उनके वास्तविक चेहरे स्पष्ट रूप से सामने आ गए हैं।

एक तरफ आंदोलन की वह मुख्यधारा है जिसका सूत्रपात स्कूल-कालेजों के छात्र शहरी युवा तथा मूल रूप से पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवानों ने जुलूस, धरनों तथा रैलियों के रूप में प्रारंभ किया था। वह अब आत्मदाह तथा आत्महत्या जैसे विकृत रूप में सामने आ रही है। देश के करोड़ों युवाओं के मन में स्वाभाविक रूप से घोर असंतोष है और कुंठा व निराशा की यह भावना मंडल आयोग की घोषणाओं को लागू करने के सरकारी निर्णय से अचानक नहीं पैदा हुई है। असंतोष के इस संचित बारूद में मंडल आयोग ने पलीता लगाने का काम जरूर किया है। असंतोष और निराशा के कारण भी हैं। विकास तथा प्रगति की भ्रामक अवधारणाओं और योजनाओं की विफलता ने आज एक ऐसा समाज तैयार किया है जहां मध्य वर्ग गांवों से शहरों की ओर अंधाधुंध भाग रहा है। लोग अपने पुश्तैनी कामधंधों तथा अपनी जमीन से कट कर सरकारी नौकरी की मृगमरीचिका की तलाश में ऐसी अधकचरी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं जो न केवल उन्हें अपने पारंपरिक हुनर से नफरत सिखाती है बल्कि उन्हें इस योग्य भी नहीं रहने देती कि करोड़ों बेरोजगारों के हुजूम में शामिल हो कर अपने लिए एक सरकारी नौकरी झपट सकें। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में पढ़े-लिखे चार करोड़ से ज्यादा बेरोजगार काम दिलाऊ दफ्तर के रजिस्टर में दर्ज पड़े हैं। सरकार यदि पूरी ईमानदारी से प्रयास करे तो साल में 40 हजार से ज्यादा नौकरियां नहीं दे सकती। ऐसी स्थिति में अंधेरी गुफाओं में भटकते युवाओं को यदि यह लगता है कि कई दिनों की भूख के बाद मिली सूखी रोटी में भी कोई नाजायज़ ढंग से हिस्सा बंटाना चाहता है तो इस तरह की सोच के लिए उन्हें बहुत ज्यादा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ऐसे में यदि उत्तेजित होकर मंडल आयोग के विरुद्ध कोई आंदोलन छेड़ देता है तो उसे बहुत अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में यदि वे यह भी भूल जाते हैं कि समाज के प्रति उनका भी एक दायित्व है और आर्थिक-सामाजिक न्याय तथा गैर बराबरी को दूर करने के लिए उठाए गए कदम का यदि वे विरोध करते हैं तो उनका दोष कम है और उन लोगों का ज्यादा, जो एक तरफ तो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए इस विषम सामाजिक व्यवस्था को जारी रखने में सहायक होते हैं और दूसरे इन दिशाहीन युवाओं को उस अंधेरी सुरंग में और आगे बढ़ाकर उनके आक्रोश की ऊर्जा को विध्वंस की आग में बदलने का षड्यंत्र रचते रहते हैं। आज यदि युवक आत्मदाह और आत्महत्या जैसे असंतोष और आंदोलन के विकृत साधनों का सहारा ले रहे हैं तो इसका मुख्य कारण व्यवस्था की विफलता के कारण उपजी निराशा और कुंठा है न कि मंडल आयोग की सिफारिशें। मंडल आयोग ने तो सिर्फ उत्प्रेरक का काम किया है।

इस मामले में प्रधानमंत्री सिर्फ मीडिया को जिम्मेदार ठहरा कर और यह कह कर बरी नहीं हो सकते कि प्रेस ने मंडल आयोग रिपोर्ट के सिर्फ एक पक्ष् को ही उभारा, इसलिए सामाजिक रूप से स्थिति विस्फोटक हो गई और यदि प्रेस ने संतुलित रवैया अपनाया होता तो जनभावना के इस कदर भड़कने का नजारा सामने नहीं आता। प्रेस के एक बहुत बड़े हिस्से की भूमिका निश्चित रूप से सराहनीय नहीं कही जा सकती, क्योंकि मीडिया ने न केवल आंदोलन के लिए युवाओं को उत्प्रेरित किया बल्कि आत्मदाह के मामले में बलिदान, आहुति या शहीद जैसे शब्दों का प्रयोग कर इस कुकृत्य को इतना महिमा मंडित किया कि पहले से ही कुंठित और निराश युवकों को यह देश और समाज के लिए सचमुच बलिदान का प्रतीक लगने लगा। कुछ समाचार पत्रों का यह कर्म सती के महिमा मंडन जैसे कृत्य से कम जघन्य नहीं था। लेकिन यदि सरकार समय रहते चेत जाती और मंडल आयोग लागू की घोषणा के साथ युवकों के सामाजिक दायित्व और मंडल आयोग की सिफारिशों को आंशिक रूप से लागू करने की बात को समझा कर सामने रखती तो लोग इस तरह के आत्मघाती कदम कतई नहीं उठाते।

इस बात पर विवाद हो सकता है, पर यदि मंडल आयोग के प्रतिवेदन को लागू करने की घोषणा अचानक न की जाती और पहले से विचार-विमर्श करके माहौल बनाने का काम किया जाता तो इसे लागू करना नितांत असंभव कर्म होता। लेकिन सच यह भी है कि इसे लागू करने की घोषणा के बाद जिस व्यापक स्तर पर सरकार को जन शिक्षण का कार्यक्रम प्रारंभ करना चाहिए था, उसमें वह पूरी तरह से विफल रही। सरकारी घोषणा के महीने भर बाद तक लोगों को धीरे-धीरे छन-छन कर यह बात पता चलती रही कि मंडल आयोग की ढेर सरी सिफारिशों में से सरकार ने सिर्फ एक केंद्रीय सरकार की नौकरियों में पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की बात को ही माना है कि शिक्षण संस्थाओं में यह आरक्षण नहीं लागू होगा कि तरक्की में भी आरक्षण नहीं होगा आदि। जानकारी के अभाव में छात्र युवाओं का आंदोलन उग्र से उग्रतर होता रहा और सरकार इसे शांत करने के प्रशासनिक कर्म में भी विफल रही।

आंदोलन के उग्र होने की प्रतीक्षा में दूर बैठे तत्वों के लिए इस स्थिति में घुसपैठ करने का यह स्वर्ण अवसर था। कहीं व्यक्तिगत कारणों से रुष्ट सत्तापक्ष के राजनीतिज्ञ तो कहीं अवसर की तलाश में समाज विरोधी तत्व और सरकार की परेशानियों से लाभ उठाने के लिए सदा तत्पर विपक्षी राजनीतिक पार्टियों, सबके लिए यह आंदोलन अपने स्वार्थ साधन का हथियार मात्र बन कर रह गया। छात्र, युवा, बेरोजगार पीछे रह गए। सामने आ गए राजनीतिक नेता। सारी मांगें पीछे रह गईं, सिर्फ एक मांग ही बची कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दें। सड़कों पर आंदोलन कर रहे युवा छात्रों के निर्मल चेहरों की जगह मंजे हुए अपराधियों के चेहरे छा गए। कहीं छात्र स्वेच्छा से आत्मदाह कर रहे थे तो कहीं-कहीं उनकी इच्छा के विरुद्ध मानव दहन होने लगे। शराब की दुकानें लूटना, पुलिस की कनपटी पर रिवाल्वर रख कर गोली मारना और सारी-सारी रात लूटपाट का तांडव मचाना निश्चय ही छात्रों का काम नहीं हो सकता। वे सारे चेहरे अब सामने आ गए थे जिन्होंने सन 84 में लोगों को जिंदा जलाने का अभ्यास किया था या जिन्हें दहेज के लालच में अपनी निर्दोष बहुओं को जलाने में हिचक नहीं होती। इसके लिए सभी दोषी हैं। सामाजिक न्याय के प्रति हिंदू समाज की घोर असहिष्णुता, मीडिया और बौद्धिक वर्ग की गैर जिम्मेदार और खतरनाक भूमिका, लेकिन इनसे भी कहीं ज्यादा सरकार की असफलता प्रशासन के क्षेत्र में भी और जन शिक्षण के मामले में भी। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की घोषणा से लेकर आंदोलन के राजनीतिज्ञों और समाज विरोधियों के हाथ पहुंचने के बीच सरकार के पास पर्याप्त समय था। वह यदि चाहती तो युवाओं, छात्रों की आशंकाओं को दूर कर सकती थी। शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों के साथ मिल-बैठ कर एक सर्वसहमति का रास्ता निकाल सकती थी और बहुत थोड़ी सी कोशिश से यह धारणा भी दूर कर सकती थी कि इस कदम के पीछे सरकार की सामाजिक न्याय दिलाने की सदिच्छा नहीं, बल्कि राजनीतिक गोटी बिठाने की वासना है। कांग्रेस, भाजपा तथा वामदलों सहित सभी प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में इस बात पर सहमति तो पहले दिन से ही है कि पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिलना चाहिए। मतभेद सिर्फ इन मुद्दों पर है कि वर्ग निर्धारण का आधार क्या हो और कितना आरक्षण दिया जाए। थोड़ी सी चेष्टा में इस पर भी सर्वसम्मति हो सकती है। प्रश्न सामाजिक-आर्थिक न्याय का न्यूनतम समान स्तर दिलाने का है, मंडल आयोग की रिपोर्ट को शब्दशः लागू कराने का नहीं। यदि यह लक्ष्य आम सहमति से संभव है और मुख्य राजनीतिक दलों के बीच सह सहमति है भी तो एक सर्वसम्मत समाधान में बाधा कहां है।

20 अक्तूबर 1990 नवभारत टाइम्स

वि.प्र. को कसौटी पर खरा उतरना होगा

मोहलत शब्द इन दिनों चर्चा में आम है। खासकर वे लोग, जो मानते हैं कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का सरकारी फैसला शुद्ध राजनीतिक उद्देश्य से किया गया था, इस बात पर बार-बार बल दे रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय के आदेश से आरक्षण विरोधी आंदोलन की उग्रता और तीव्रता में जो कमी आई है सरकार इस वास्तविकता को देखे, समझे और इस अवसर का लाभ उठाते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फैसले को वापस लेने का व्यावहारिक कदम उठाए। यह समाज के उस प्रभावशाली तबके का तर्क है जो यह भी मानता रहा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह का यह फैसला मूलतः देवीलाल की किसान रैली की हवा निकालने के एक तुच्छ प्रयास के रूप में उठाया गया एक ऐसा बगैर सोचा समझा हड़बड़ी में उठाया गया कदम था, जिसने देश को जातियुद्ध के भयानक दावानल में ठेल दिया। यह वह वर्ग है जो यह भी मानता है कि इसका दूरगामी उद्देश्य पिछड़े और दलित तबके को सामाजिक न्याय दिलाने का कतई नहीं है, उसका वास्तविक उद्देश्य तो सिर्फ पिछड़ों के बीच अपने वोट बैंक का आधार मजबूत करना है, इसके लिए चाहे कितनी भी मासूम जानें बलि क्यों न चढ़ जाएं, हृदयहीन प्रधानमंत्री को इसकी कोई चिंता नहीं है। मूलतः आरक्षण की परिकल्पना का विरोधी यह वर्ग जब उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई इस मोहलत का जिक्र करता है, तो एक तरफ जहां इसमें प्रच्छन्न धमकी होती है कि देखिए, यदि अब भी आप अपनी इस गंदी राजनीति से बाज नहीं आए तो देश में हिंसा का एक ज्यादा भयानक दौर प्रारंभ हो सकता है, जिसके जिम्मेवार आप होंगे और यह कहते हुए कहीं न कहीं कनखी मार कर यह भी साफ कर रहा होता है कि इस तरह की आग लगाने और बुझाने में इस वर्ग की भूमिका को भी कृपया आप समझने का प्रयास करें।

यह सच है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह और उनकी सरकार को उच्चतम न्यायालय की कृपा से एक बड़ी मोहलत मिली है वरना समाज में भावनाओं का अतिरेक उस सीमा पर पहुंचा हुआ था, जहां सच तो क्या कुछ भी सुनने के लिए लोग तैयार नहीं दीख रहे थे अब मौका है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह अपनी स्थिति स्पष्ट करें कि क्या सचमुच उनका उद्देश्य सिर्फ यही था कि वेदेवीलाल की किसान रैली की हवा निकाल दें। यदि हां, तो अब भी देर नहीं हुई है। कृपया मंडल आयोग तत्काल वापस कर लें। या यदि उनका उद्देश्य सिर्फ यही था कि इसे लागू करने से उनको वोट बैंक का नया आधार मिलेगा तो उनकी राजनीतिक सूझबूझ पर तरस खाना आना चाहिए क्योंकि पिछड़ी जातियों का वोट बैंक तो इस सरकार के साथ था ही और न ही दूर दूर तक इस बात की कहीं आशंका थी कि यह आधार खिसक कर कहीं और जाने वाला है। यह कहा जा सकता है कि यह वोट बैंक विश्वनाथ प्रताप का अपना नहीं था। इस आधार को बनाने में कहीं लालू-मुलायम, तो कहीं शरद-रामविलास जैसे क्षत्रपों का उन्हें सहारा लेना पड़ता था, इसलिए अपना निजी ठोस आधार बनाने के चक्कर में विश्वनाथ प्रताप ने अपने जनमोर्चा आधार की सारी जमा पूंजी दांव पर लगा कर इस पिछड़े वोट बैंक के व्यापक जनाधार को जीतने का जुआ खेला। यदि सचमुच विश्वनाथ प्रताप की इतनी सीमित महत्वाकांक्षा थी, जिसके लिए उन्होंने छात्र, शिक्षक, वकील, बुद्धिजीवी जैसे मुखर समर्थक वर्ग को तथाकथित जाति युद्ध में झांक दिया, तो उनके राजनीतिक ज्ञान और निर्वाचनी समीकरण का भगवान ही मालिक है। यदि सचमुच ऐसा ही है तो कृपया मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के अपने फैसले को तत्काल निरस्त करने के आदेश जारी कर दें। अभी बहुत देर नहीं हुई है। यदि महत्वाकांक्षाओं के अपने इस नितांत निजी समुद्र में ही वे डूब उतरा रहे हैं, तो सचमुच उनके लिए मोहलत शब्द तिनके का सहारा साबित हो सकता है उसे छोड़े नहीं, सामाजिक न्याय भले ही पीछे पड़ जाए।

लेकिन यदि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा इन टुच्चे स्वार्थों के लिए नहीं बल्कि जैसा कि वे कह रहे हैं पिछड़े वर्गों में तेजी से बढ़ रहे आक्रोश और शहर तथा अभिजात्य वर्ग विरोधी भावना को रोकने के लिए यह समाज में व्याप्त उग्रविभाजन की भावना को कम करने के लिए या पिछड़े वर्ग को राज्य संचालन में उनकी उचित निर्णायक भूमिका दिलाने के लिए या सिर्फ सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने की दिशा में उठाए गए पहले कदम के रूप में यह कार्रवाई की गई है, तो प्रधानमंत्री को इस दिशा में निस्संकोच आगे बढ़ना चाहिए।(मोहलत दिलाने वाले उस वर्ग को धन्यवाद देते हुए) क्योंकि वातावरण निश्चय ही इतना विषाक्त हो गया था और माहौल में चलते मानव मांस की चिराइन गंध कुछ इस कदर हावी थी कि उसमें सामाजिक न्याय दिलाने की बात तो दूर, किसी भी प्रकार का सार्थक-असार्थक संवाद संभव ही नहीं था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्वनाथ प्रताप फिलहाल समाज के सबसे प्रभावशाली और मुखर वर्ग में घोर अलोकप्रिय हो रहे हैं। वे निश्चय ही इस तथ्य से भी अवगत होंगे कि इस महत्वपूर्ण वर्ग को अपनी ओर रख कर इस देश में निर्वाचनी राजनीति सफलतापूर्वक करना असंभव तो नहीं, लेकिन कठिन अवश्य है। अब तक तक किसी भी राजनेता ने इस कठिन रास्ते को अपनाने की कोशिश भी नहीं की। ऐसी स्थिति में यदि विश्वनाथ प्रताप अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता पर डटे रहते हैं तो यह तय है कि इस देश की राजनीति की दिशा और इस समाज के पारंपरिक ढांचे में ऐसे मूलभूत परिवर्तन आएंगे, जिसकी इस देश-समाज ने कल्पना भी नहीं की होगी। हो सकता है कि इस महती प्रक्रिया से विश्वनाथ प्रताप और उनकी पार्टी अगला चुनाव हार जाए, लेकिन यदि वे सचमुच समता मूलक समाज के निर्धारण के लिए प्रतिबद्ध हैं तो देश इस बलिदान के लिए उनका कृतज्ञ रहेगा और उनके खुद के दामन पर जो टुच्ची राजनीति के छींटे डाल दिए गए हैं, उनसे भी वे मुक्त हो पाएंगे। विश्वनाथ प्रताप यदि पिछड़े एवं दलित वर्गों के शोषण के कुचक्र को तोड़ कर वास्तविक सामाजिक-आर्थिक बराबरी की दिशा में बढ़ने के प्रयास के रूप में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कर रहे हैं तो मंडल आयोग के प्रश्न पर पीछे नहीं हटें, और इस मोहलत का उपयोग सरकार की इस प्रतिबद्धता को और दृढ़ करने के एक अवसर के रूप में करें।

कानूनी लड़ाई मूलतः तीन मुद्दों पर लड़ी जाएगी। एक, संविधान सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की गारंटी देता है, पिछड़ी जातियों को नहीं। दो, जातियों की गणना और उनकी पहचान का आधार चूंकि 60 साल पुराना है, इसलिए अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है। तीसरी, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की उच्चतम सीमा क्या हो- क्या 50 प्रतिशत नौकरियों को आरक्षित कर देना उचित होगा? ये तीनों प्रश्न कई मुकदमों में कई उच्च न्यायालयों द्वारा विवेचित हो चुके हैं और इनके आधार पर दिए गए निर्णयों के बावजूद देश के अनेक राज्यों में आरक्षण-व्यवस्था सफलतापूर्वक बिना सड़कों पर खून बहाए, सुचारू रूप से चल रही है। यदि विश्वनाथ प्रताप की सरकार सिर्फ राजनीतिक उद्देश्य से मंडल आयोग का दुरुपयोग नहीं कर रही है तो उसके लिए सचमुच यह एक ऐसा अवसर है, कि सामाजिक न्याय के आवश्यक अस्त्र के रूप में आरक्षण व्यवस्था को वह वैधानिक, नैतिक और अंततः व्यावहारिक स्वरूप दिलवा सकती है। वह मंडल आयोग के रूप में भी हो सकता है और मुंगेरी लाल आयोग के रूप में भी या दक्षिण में लागू अन्य किसी भी आरक्षण व्यवस्था के रूप में इसे लागू कर सकते हैं। शर्त सिर्फ यही है कि सरकार सदाशयी हो और ईमानदारी से न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करे। साथ ही, आंदोलनकारी युवा छात्रों को यह विश्वास दिलाने में भी सफल हो सके कि वह सिर्फ सामाजिक न्याय दिलाने के लिए ही प्रतिबद्ध नहीं है, बल्कि वह इस दिशा मं भी सार्थक कदम उठाने जा रही है, जिससे देश के युवाओं में व्याप्त हताशा और कुंठा की ऊर्जा का राष्ट्र निर्माण में सदुपयोग किया जा सके, न कि आत्मदाह या आत्महत्या जैसे पलायनवादी कर्म में। सरकार की विश्वसनीयता फिलहाल शून्य के बराबर है, इसलिए शब्द चाहे वे कितने ही पवित्र क्यों न हों अभी खोखले ही लगेंगे, इसलिए सरकार इस मोहलत को चाहे तो कर्म के रूप में सार्थक उपयोग कर सकती है। सार्थक संवाद तभी बन सकेगा।

9 अक्टूबर 1990, नव भारत टाइम्स

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

बदलाव से नावाकिफ कांग्रेस-भाजपा

मंडल आयोग की रिपोर्ट करीब करीब सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के गले की फांस बन गई है। पार्टिया न तो इसे अंतर से स्वीकार कर पा रही हैं, न ही दिल खोल कर इसका विरोध कर पा रही हैं। सब से विकट स्थिति भाजपा और कांग्रेस की है क्योंकि इन पार्टियों का नेतृत्व तो अब भी पारंपरिक श्रेष्ठी वर्ग के हाथों में है, जबकि इनके जनाधार का वर्ग चरित्र धीरे-धीरे खिसक कर नीचे चला गया है। यही कारण है कि इन पार्टियों का नेतृत्व निजी बातचीत में इस मुद्दे पर जो रुख अखितयार करता है, सार्वजनिक जीवन और व्यवहार में उसी आधार पर टिक नहीं पा रहा है क्योंकि जनाधार का दबाव नेतृत्व को कहीं न कहीं मजबूर कर रहा है कि वह कोई आरक्षण विरोधी रवैया अख्तियार न कर सके। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि राजीव गांधी पहले तो कोशिश करते हैं कि वे कुछ बोलें ही नहीं, फिर जब बोलते हैं तो जो राजीव फार्मूला बड़े धूमधाम से जनता के सामने पेश किया जाता है दूसरे दिन खुद उससे दूर खड़े दिखते हैं। फिर (मणि शंकर अय्यर आदि सहयोगियों के अथक प्रयास से) वे लोकसभा में तीन घंटे का एक भाषण देते हैं जिसका लब्बोलुआब यह निकलता है कि आरक्षण का आधार केवल आर्थिक ही हो सकता है लेकिन जब उन्हें याद दिलाया जाता है कि आंध्र और कर्नाटक जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में जाति पर आधारित आरक्षण सफलतापूर्वक चल रहा है तो घबरा कर दूसरे दिन फिर वे अपनी बात बदल देते हैं। कुल मिला कर राजीव गांधी और उनके दल के वरिष्ठ नेताओं के वक्तव्यों और भाषणों के आधार पर कोई भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि आरक्षण के मामले में कांग्रेस आखिर कहां खड़ी है।

कारण यह है कि भारतीय राजनीति का सामाजिक चेहरा किस जाति से बदला है, मुख्य राजनीतिक दलों के नेताओं को संभवतः इसका अंदाजा ही नहीं है। सन 1984 की लोकसभा के कुल 543 में 210 यानी 40 प्रतिशत सदस्य ब्राहमण थे, जबकि 1989 की लोकसभा के कुल 525 में सिर्फ 76 यानी 15 प्रतिशत सदस्य ब्राह्मण हैं। लोकसभा में ब्राहमणों का प्रतिशत इतना कम इससे पहले कभी नहीं रहा है। 1977 में जब कांग्रेस हारी थी तब भी 25 प्रतिशत ब्राह्मण चुन कर आए थे और 1957 में तो लोकसभा के कुल सांसदों का 47 प्रतिशत स्थान ब्राह्मणें के कब्जे में था। इसमें पहले की आठों लोकसभाओं में ब्राह्मण सदस्यों का प्रतिशत हमेशा ही 40 के आसपास रहा है जो नौंवी लोकसभा में घट कर 15 पर आ गया है जबकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मणें को टिकट देने में कोई कोताही नहीं की। भाजपा के कुल 226 में से 113 प्रत्याशी ब्राह्मण जाति के थे, जिनमे से 24 जीत कर भी आए और इतने ही कांग्रेस से भी जीत कर आए जबकि इन दलों के नेताओं को शायद इसका अहसास भी नहीं हुआ और कांग्रेस तथा भाजपा के क्रमशः 82 तथा 37 सदस्य इस बार पिछड़ी जातियों से चुन कर आ गए और पहली बार इन पार्टियों के संसदीय दल का एक नया चेहरा सामने आया। इन पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व शायद इस तथ्य को अभी ठीक से आत्मसात नहीं कर पाया है इसीलिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के सवाल पर वे पार्टियां कोई ठोस मन नहीं बना पा रही हैं क्योंकि मन जो कहता है पार्टी की आंतरिक शक्ति तत्काल उस पर हावी हो कर उसे बदलवाने के लिए बाध्य कर देती है। मंडल आयोग के तत्काल बाद इन पार्टियों के कुछ नेताओं ने चेतावनी दी कि इस निर्णय से भीषण जातीय तनाव बढ़ेगा, जो अंततः गृह युद्ध में परिणत हो सकता हैं मजे की बात है कि जातीय तनाव तो बढ़ा परंतु गृह युद्ध गुप्त रूप से इन पार्टियों के अंदर लड़े जा रहे हैं, समाज में नहीं।

कांग्रेस की तो और भी दुर्दशा है, क्योंकि इस पार्टी के नेतृत्व में सामाजिक परिवर्तन के कई बड़े महत्वपूर्ण संघर्ष दक्षिण और पश्चिम भारत में शांतिपूर्वक छेड़े गए, जिन्होंने न केवल उन राज्यों में एक सामाजिक क्रांति की, बल्कि उन राज्यों का राजनीतिक स्वरूप भी पूरी तरह से बदल दिया और आज यही पार्टी उत्तर भारत के कुछ नेताओं के बहकावे में आकर आरक्षण और राजनीति में पिछड़ी जातियों के उभार के प्रश्न पर ऐसा प्रतिगामी सोच सामने ला रही है जिससे उत्तर भारत में इस पार्टी का आधार तो संकुचित होगा ही, दक्षिण भारत में भी इसकी जीम जमाई जड़ भी हिल सकती है। जाति आधारित आरक्षण और उससे उपजी राजनीति के बल पर ही कर्नाटक में कांग्रेस ने पिछड़ी दलित और अल्पसंख्यक जातियों तथा वर्गों का एक ऐसा मोर्चा बनाया था कि देवराज अर्स को लिंगायतों तथा वोक्कालिगाओं जैसी शक्तिशाली जातियों को राज्य की राजनीति में दरकिनार कर देने में सफलता मिली। पिछले 25 सालों से कांग्रेस तमिलनाडु में किसी द्रविड़ पार्टी से जुड़ी रही है जो पिछड़ी दलित जातियों की उग्र राजनीतिक आकांक्षाओं की देश में सबसे बड़ी अभिव्यक्ति कही जा सकती है। आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस को इस जाति आधारित रणनीति के कारण ही सत्ता वापस मिली है, इस तथ्य को कांग्रेस नेतृत्व झुठला नहीं सकता। आंध्र की राजनीति में एन टी रामाराव के उदय से पहले राज्य राजनीति की बागडोर रेड्डी जाति के हाथों में थी और यह जाति पूरे तौर पर कांग्रेस के साथ थी। इस वर्चस्व को एन टी आर ने कम्मा और कापू जाति के नेतृत्व में बने नए राजनीतिक समीकरण से तोड़ा और तब तक शक्तिशाली बने रहे जब तक कांग्रेस को कापुओं के रूप में एक नई शक्तिशाली पिछड़ी जाति समूह का समर्थन नहीं प्राप्त हो गया। रेड्डी-कापू सहयोग के कारण ही आज चन्ना रेड्डी की कांगेस सरकार हैदराबाद में स्थापित दीख रही है। दक्षिण भारत तथा महाराष्ट्र और गुजरात में पिछड़ी जातियों के वोट बैंक के आधार पर बने राजनीतिक समीकरणों से अपनी गोटी लाल करने वाली कांग्रेस पार्टी को ब्राह्ण वर्चस्व वाला स्वरूप हमेशा से उत्तर भारत देता रहा है। इस बार उत्तर भारत में कांग्रेस धराशायी है लेकिन नेतृत्व बरकरार है जबकि लोकसभा में इस पार्टी के कुल सांसदों का 40 प्रतिशत पिछड़ी जातियों से चुन कर आ गया है। आरक्षण के प्रश्न पर पार्टी के इस विरोधाभासी कदम का मुख्य कारण यही है कि पार्टी नेतृत्व जब जगन्नाथ मिश्र की ओर देखता है तो आरक्षण के सवाल पर उत्तर भारत में लाभ उठाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता और तभी जब शिवशंकर का चेहरा सामने आता है तो अपनी पार्टी की जमीनी वास्तविकात का स्वरूप सामने उभर आता है और राजीव गांधी यह कहने के लिए विवश हो जाते हैं कि उनकी पार्टी सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने के विरुद्ध नहीं है। लेकिन आर्थिक आधार पर भी विचार किया जाए और अगले दिन फिर अपने विचार बदल देते हैं। राजीव गांधी और लालकृष्ण आडवाणी जब तक अपनी राजनीतिक विवशताओं को अनदेखी करने का स्वांग करते रहेंगे उनके विरोधाभास इसी तरह सामने आते रहेंगे।

11 सितंबर 1990, नव भारत टाइम्स

सामाजिक विषमता की खाई पाटनी है

मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने के सरकारी निर्णय के विरोध में तीन तर्क काफी महत्त्वपूर्ण ढंग से उभरकर सामने आए हैं। पहला, यह निर्णय संविधान प्रदत समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है; दूसरा, संविधान शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को एक सीमित समय के लिए आरक्षण की बात करता है, पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की बात नहीं कही गई है; तीसरा, यदि नैसर्गिक प्रतिभा और योग्यता को दरकिनार कर, पिछड़ेपन के आधार पर सरकारी नौकरियों में नियुक्ति होती रही, तो हमारी कार्यपालिका के उच्च स्तर का क्या होगा?

सबसे पहले संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के प्रश्न को लें। यह सही है कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 29 इस बात की गारंटी देते है कि किसी भी प्रकार की सरकारी नौकरी या शिक्षण संस्थान में प्रवेश के मामले में धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, भाषा या जन्म-स्थान के आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं किया जाएगा। साथ ही, अनुच्छेद 16 (4) यह गारंटी भी देता है कि राज्य पिछड़े हुए नागरिकों के पक्ष में, यदि राज्य की मान्यता है कि उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, तो पदों व नियुक्तियों के आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है। आज जो लोग विधि के समक्ष समता या लोक नियोजन में अवसर की समता की संविधानिक गारंटी की बात उठाकर आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, वे एक तरफ तो अनुच्छेद 16 (4) को जान-बूझकर अनदेखा करने की कोशिश कर रहे हैं, दूसरे, समता के अधिकार की भ्रामक व्यवस्था कर ऐसा मकड़जाल फैला रहे हैं, जिसमें वास्तविकता ओझल हो जाए। यह सवाल बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल के समक्ष भी उठाया गया था, जिसका समुचित जवाब उन्होंने यों दिया था कि समता के समान अवसर के मौलिक अधिकार की बात उठाते हुए हम यह भूल जाते हैं कि समाज का यह पिछड़ा वर्ग सैकड़ों सालों से सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक तथा आर्थिक वंचना का शिकार है, इसलिए इस वर्ग की समस्याएं भी विशिष्ट हैं। ऊपरी तौर पर समता का सिद्धांत बहुत ही उचित और न्यायसंगत लगता है, लेकिन इसमें एक बड़ी फांस है। सामाजिक न्याय की यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उक्ति है कि समानता सिर्फ समान लोगों के बीच ही हो सकती है।

असमान लोगों के बीच समानता की बात करना वस्तुतः असमानता को बढ़ावा देने का ही एक तरीका है। जब हम कमजोर और मजबूत के बीच समानता के सिद्धांत के आधार पर प्रतियोगिता की छूट देते हैं, तब हमें पता होता है कि कमजोर इसमें निश्चित हारेगा। वस्तुतः यह प्रतियोगिता नहीं, सिर्फ उसका नाटक रह जाता है। इस तरह की बात सामाजिक न्याय कर समाज में हम परोक्ष रूप से जंगल के उस न्याय की ताईद कर रहे होते हैं, जहां बलिष्ठतम को ही सारे अधिकार मिले होते हैं। जो विद्वान आज अचानक समता के अधिकार की मूल भावना की बात कर रहे हैं, वे इस तथ्य से परिचित नहीं, ऐसा नहीं है, यह सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि इस सामाजिक असमानता की धारा को सदियों तक निर्बाध चलाने के लिए उन्हें कुछ नैतिक तथा तथाकथित विधिसम्मत तर्क मिल सकें। जबकि वास्तविकता यह है कि न तो यह आरक्षण संविधान विरुद्ध है, न ही संविधान की मूल भावना के विपरीत जाता है।

आरक्षण विरोधियों का दूसरा तर्क है कि चलिए, यह मान लिया जाए कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए इस प्रकार के आरक्षण की बात कही गई है, पर पिछड़ी जातियों के आरक्षण की बात तो कहीं नहीं है, इसलिए जाति के आधार पर किया गया आरक्षण संविधान सम्मत नहीं हो सकता। चूंकि संविधान ‘पिछड़े वर्ग’ के आरक्षण की बात करता है, इसलिए यह तर्क आर्थिक पिछड़ेपन को ही आरक्षण का एक मात्रा आधार बनाने के बिंदु पर पहुंचकर समाप्त होता है। इस प्रक्रिया में ढेर सारे ऐसे मुद्दे अनावश्यक रूप से घसीट लिए जाते हैं ताकि तर्क धुंधलाएं और बहस का रुख गलत दिशा की ओर मुड़ जाए। इस दौरान अपनी सहूलियत को ध्यान में रखते हुए हम यह भी भूल जाते हैं कि इसी संविधान के तहत अनुसूचित जातियां और जन जातियां आरक्षण पा रही हैं। जाहिर है कि इन्हें आरक्षण प्रदान करते समय भी, उसका आधार ढूँढा गया था और जाति के अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा मजबूत आधार नहीं मिला, जिससे हिन्दू समाज के सर्वाधिक पिछड़े वर्ग की पहचान की जा सके।

यह ध्यान देने की बात है कि मंडल आयोग या अन्य दस राज्यों में लागू विभिन्न आयोगों ने शैक्षिक और सामाजिक पिछड़े वर्ग को रेखांकित करने के लिए ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ की सूची बनाई है। चूंकि पिछड़ी जातियां पहले ही अनुसूचित जातियों के रूप में चिद्दित की जा चुकी हैं, इसलिए इन ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ की सूची, ताकि इन्हें आरक्षण देकर इनका सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन दूर किया जा सके। इसलिए यह कहना कि संविधान वर्ग की बात करता है, जाति की नहीं, यह सिर्फ अर्धसत्य है क्योंकि यही संविधान इससे पहले भी जाति को ही वर्ग का आधार मान चुका है। रही बात आर्थिक आधार पर आरक्षण की, तो यह तो आरक्षण और संविधान, दोनों की मूल भावना के विरुद्ध जाने वाली बात है। आरक्षण की आवश्यकता इसलिए नहीं महसूस की गई कि इससे समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता दूर होगी, न ही आरक्षण का प्रावधान करने वालों ने कभी यह सोचा था कि यह कोई रोजगार दिलाऊ योजना होगी, आरक्षण की आवश्यकता समाज में व्याप्त शैक्षिक और सामाजिक गैर बराबरी दूर करने के लिए महसूस की गई थी, इसलिए इस आधार से हटकर किसी नए आधार पर आरक्षण की बात करना संविधान की मूल भावना के विपरीत होगा और फिलहाल यह विचारणीय भी नहीं है।

आरक्षण के विरोध का तीसरा और सबसे मजबूत तर्क योग्यता दिया जाता है। जो आरक्षण विरोधी यह स्वीकार करते हैं कि हमारे समाज में असमानता है और यह तत्काल संभव नहीं कि पिछड़े इतनी बड़ी खाई को लाँघकर अगड़ों की बराबरी कर पाएं, इसलिए निश्चय ही इन्हें कुछ विशेष प्रोत्साहन मिलना चाहिए मसलन, मुफ्त और व्यापक शिक्षा तथा और सारी छूट, जिनसे ये समाज में आगे आ सकें, लेकिन इसका अर्थ तो यह नहीं हुआ कि सवर्ण छात्रा 75 प्रतिशत अंक पाकर भी मेडिकल, इंजीनियरिंग या अन्य तकनीकी शिक्षा में दाखिला न पा सकें और पिछड़े या दलित 40 या 45 प्रतिशत अंकों के सहारे ही इन विशिष्ट पाठ्यक्रमों में दाखिल हो जाएं। ऐसे में योग्यता का क्या अर्थ रह जाएगा और क्या इसे उचित कहा जाएगा कि अयोग्य लोग ऊंची-ऊंची डिग्रियां लेकर बड़े पदों पर पहुंचें और योग्य लोग सिर्फ इसलिए भटकते रहें, क्योंकि उनका जन्म सवर्ण कोख से हुआ है।

निश्चय ही बहुत जोरदार तर्क है और आज हमारे शहरी मध्य और उच्च मध्य वर्ग के सवर्ण अभिभावकों को सबसे ज्यादा विचलित करने वाला भी है। लेकिन, जैसा कि बी.पी. मंडल ने सोदाहरण अपनी रिपोर्ट में साबित किया है कि ऊपर से यह बात चाहे जितनी शक्तिशाली लगे, लेकिन यदि थोड़ी गहराई में उतरें तो पता चलेगा कि यह विचार कितने बड़े तर्क दोष से ग्रस्त है।

श्री मंडल ने मोहन और लल्लू नामक दो बालकों के उदाहरण से इस बात को सिद्ध किया है कि श्रेष्ठ समाज में योग्यता जन्मना दान तथा परिवेशगत विशेषाधिकार से प्राप्त होती है। मोहन के मां-बाप मध्यवर्गीय शिक्षित लोग हैं। वह शहर के एक बड़े स्कूल में पढ़ता है, जहां पढ़ने के अलावा वह स्कूल की ढेर सारी अन्य गतिविधियों में भाग लेता है। घर में उसके लिए एक अलग कमरा है और उसके अध्ययन में उसके मां-बाप, दोनों सहायता करते है। घर में रेडियो और टेलीविजन है। पिता ढेर सारे अखबार और पत्र-पत्रिाकाएं लाते है। मोहन क्या पढ़ेगा, कौन-सा कोर्स करेगा, इस बाबत उसके अभिभावक हमेशा उससे चर्चा करते हैं और निर्देश देते है। मोहन के मित्रा भी उस वर्ग के हैं और उसे यह भी पता है कि भविष्य में उसे कहां पहुंचना है। जबकि लल्लू गाँव में रहता है। पिछड़ी जाति के उसके मां-बाप की गाँव में सामाजिक स्थिति निम्न है। गाँव में उसके चार एकड़ खेत हैं, जिसके उपार्जन से उसका आठ सदस्यीय परिवार दो कमरों के कच्चे मकान में जीवन-यापन करता है। किसी तरह वह गाँव से प्राइमरी शिक्षा पूरी करके पास के कस्बे से हाईस्कूल करता है और उच्च शिक्षा के लिए तहसील मुख्यालय में अपने दूर के चाचा के घर रहकर पढ़ाई करता है। परिवार, अभिभावक या अपने मित्रों से उसके कैरियर के बारे में कभी कोई बात नहीं होती, न ही कोई सहायता मिलती है। किन्हीं सांस्कृतिक गतिविधियों में वह भाग नहीं ले पाता और किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी कर लेता है। ग्रामीण वातावरण में पलने-बढ़ने के कारण उसके स्वभाव में एक अनगढ़ता है, उसका उच्चारण भ्रष्ट, व्यवहार अकुशल और आत्मविश्वास की उसमें थोड़ी कमी है।

मान लें कि जन्म के समय दोनों की बुद्धिमत्ता का स्तर यदि समान था, तो भी, वातावरण, परिवार, रहन-सहन तथा परिवेश के कारण किसी भी प्रतियोगिता में मोहन लल्लू से मीलों आगे रहेगा। यदि लल्लू का जानकारी कोश मोहन से बहुत ज्यादा भी रहा होता, तो भी मोहन अब किसी भी प्रतियोगिता में अपनी ‘योग्यता’ के आधार पर लल्लू से बहुत काबिल सिद्ध होगा। इसलिए सिर्फ योग्यता की बात करना या योग्य बनाने के लिए सही शिक्षा और अवसर की बात करना एक तरह से इस सामाजिक विषमता का बढ़ाने में ही मदद करेगा, क्योंकि आज यदि लल्लू जैसे लोगों को योग्य बनाने के लिए ईमानदारी से और ठोस प्रयास प्रारंभ भी किए जाएं, तो जब तक लल्लू मोहन के ‘स्तर’ पर पहुंचेगा, मोहन योग्य से योग्यतर और योग्यतम तक पहुंच चुका होगा। इसलिए फिलहाल आवश्यकता यह है कि इस तथाकथित योग्यता के तर्क को थोड़ी देर के लिए परे रखकर इस समस्या पर नए सिर से विचार किया जाए। मंडल आयोग को लागू करना इस सामाजिक विषमता की खाई को पाटने का एक तरीका हो सकता है, यदि इसकी भावना को समझकर इसे ईमानदारी से लागू होने दिया जाए।

28 अगस्त 1990, नवभारत टाइम्स