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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

मुरहो को धर्मस्थल और मंडल को अवतार न बनाएं

इस बात में एक हद तक सचाई अवश्य है कि बिहार में जब से लालू प्रसाद की सरकार बनी है, उसके राजनीतिक विरोधियों ने उसे पल-भर भी चैन से बैठने का अवसर नहीं दिया है। पिछले ढाई साल में सरकार का बहुलांश समय और ऊर्जा खुद को बचाए रखने में ही नष्ट हुई है। यह कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष का यह धर्म है कि वह सत्तापक्ष को हमेशा चौकन्ना रखे। सत्ता पक्ष का कर्तव्य है कि उस अनिश्चय की आग से पर्याप्त ऊर्जा ग्रहण करके कुछ ऐसा सकारात्मक कर्म करता रहे जिसके लिए मतदाताओं ने उनमें आस्था व्यक्त की है।

सिद्धांत के रूप में ये बातें ठीक हैं लेकिन इसके साथ एक शर्त भी जुड़ी हुई है। शर्त यह है कि यह सारा कार्य व्यापार लोकतांत्रिक ढांचे और सिद्धांत के अंदर ही सम्पन्न हो। यदि यह खेल इन नियमों के अंतर्गत खेला जाता है तो सरकार के पास अपने को बचाए रखने का पर्याप्त अवसर रहता है। इसके बाद भी इतना समय बचा रहता है जिसमें वह अपने उस कर्तव्य का पालन कर सकें जिसके लिए जनसमूह के बहुमत ने उसे मूल रूप से चुना है। जन प्रतिनिधि चुनने के साथ ही मतदाता का कर्तव्य एक तरह से स्थगित हो जाता है। इसके बाद वह उससे परिणामों की अपेक्षा करता है न कि बार-बार इस बात की शिकायत कि न्यस्त स्वार्थ उन्हें काम करने का मौका नहीं दे रहा है।

बिहार में थोड़ी भिन्न परिस्थितियों में लालू प्रसाद की सरकार का गठन हुआ। पारंपरिक रूप से बिहार का प्रशासनिक ढांचा बौद्धिक और सामाजिक नेतृत्व तथा सांस्कृतिक स्वरूप कुछ ऐसा रहा है कि लालू प्रसाद और उनके वर्ग की सरकार को स्वीकार करने में उनकी प्रारंभिक कठिनाई समझ में आती है। यही कारण है कि इन्हीं परिस्थितियों में किसी अन्य राज्य में इस तरह की सरकार को जो कठिनाइयां झेलनी पड़ती लालू प्रसाद की सरकार को उनसे कहीं ज्यादा मुश्किलात का सामना करना पड़ा।

शायद इसीलिए बिहार के मतदाता ने भी इस कठिनाई को समझा और एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों को जिस सीमा तक अकर्मण्यता के लिए छूट की अवधि परंपरा से निर्धारित है उससे कहीं बहुत ज्यादा ही समय लालू प्रसाद की सरकार को दिया। जब तक सचमुच उन्हें लगता रहा कि प्रशासन और व्यवस्था के संपूर्ण असहयोग के कारण विकास की गति अवरुद्ध है जनगण का विश्वास अपने प्रतिनिधियों के प्रति डिगता हुआ कतई नहीं दीखा। उन्होंने अपने जन प्रतिनिधियों की इस कठिनाई को भी निश्चय ही सहानुभूतिपूर्ण ढंग से समझा कि ये वास्तव में अस्तित्व रक्षा का संघर्ष कर रहे हैं इसलिए मूल कर्तव्य से डिगना इनके लिए न केवल स्वाभाविक है बल्कि क्षम्य भी है। स्पष्ट है कि यह सारी छूट वह उस सीमा तक ही देने को तैयार था जब तक उसे लग रहा था कि कठिनाई सचमुच वाजिब है न कि अकर्मण्यता को ढकने का साधन।

आज जब बिहार में मूड कुछ बदला हुआ दीख रहा है तो इसका कारण यह नहीं है कि वे लोग भी अब सामाजिक न्याय के नारे से अचानक विमुख हो गए हैं जो अब तक इनके साथ थे। अजित सिंह या रामलखन सिंह यादव जैसे राजनीतिज्ञों को जनता यदि ध्यान से सुनने लगी है तो इसका मुख्य कारण यह है कि उनका विश्वास लालू प्रसाद यादव और उनके ब्रांड के सामाजिक न्याय से थोड़ा डिग रहा है न कि वास्तविक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक दर्शन से। लालू प्रसाद जैसे प्रखर जमीनी राजनीतिज्ञ की यह पहली बड़ी असफलता है कि अपने तिलिस्म को बिखरने से बचाने में वे असमर्थ दीखने लगे हैं। अच्छे और सफल राजनीतिज्ञ की सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि वह समय की नजाकत को बखूबी पकड़ कर अपने राजनीतिक कर्म को उसी के अनुरूप ढालता है। लालू प्रसाद इस कला में पारंगत रहे हैं। लेकिन लगता है कि इधर उनकी राजनीतिक पकड़ थोड़ी ढीली पड़ रही है। वर्ना उनकी बाजी एक के बाद एक उलटी नहीं पड़ती।

राष्ट्रीय स्तर पर जनता दल में हो रहे सतत् बिखराव के दौर में भी लालू प्रसाद यादव ने राज्य में पार्टी को एक तरह से अक्षुण्ण रखा तो इसका कारण सिर्फ सामाजिक न्याय के प्रति राज्य के बहुमत की प्रतिबद्धता ही नहीं थी। इसके पीछे लालू प्रसाद की अपनी योग्यता और क्षमता का भी बहुत बड़ा हाथ था। इसी तरह का समाज और इसी तरह की प्रतिबद्धता उत्तर प्रदेश में भी थी लेकिन जनता दल को वहां खंड-खंड होते देर नहीं लगी। मुलायम सिंह यादव निश्चय ही लालू प्रसाद के मुकाबले अधिक अनुभवी और जमीनी पकड़ वाले नेता थे लेकिन वे जहां असफल रहे लालू उन्हीं बिंदुओं पर सफल होते गए। यह लालू प्रसाद की राजनीतिक व्यवहार कुशलता का ही परिणाम था।

इसे भी राजनीतिक कुशलता ही कहेंगे कि दिन ब दिन बिहार की स्थिति बदतर होती गई। लेकिन लालू की जड़ें वहां की जमीन में और गहरी पैठती गईं। विकास का कार्य राज्य में पूरी तौर पर ठप है। यह आज की बात नहीं वर्षों से यही स्थिति है। राज्य करीब-करीब आर्थिक दिवालिएपन के कगार पर है। सरकार महीनों अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाती। फिर इधर उधर की मदों से कतर-ब्योंत करके किसी तरह भुगतान कर दिया जाता है। आर्थिक मोर्चे पर प्रशासन की विफलता का यह आलम है कि इस माहौल में भी राज्य सरकार करीब 2000 करोड़ रुपये खर्च न कर पाने की स्थिति में केंद्र को लौटा रही है। राज्य में बिजली नहीं, पानी नहीं, कानून व्यवस्था की स्थिति नाजुक, सड़कें खस्ताहाल और कुल मिला कर राज्य सत्ता अपने आप में समाप्त होती दीख रही है। लंबे अरसे से यही स्थिति है, फिर भी लालू प्रसाद ने जिस वर्ग में लोकप्रियता प्राप्त की उस वर्ग के हीरो वे हाल तक बने हुए थे। सिर्फ इसलिए कि उनकी एक तरह की पारदर्शी गंवई निश्च्छलता सबके सामने थी।

शायद यही कारण है कि उनके अनेक सारे गलत काम भी इस फिजा में दबे ढके रह जाते थे। सामाजिक न्याय दिलाने के नाम पर जब लालू प्रसद कांग्रेस के एक परंपरागत बदनाम विधायक रामलखन सिंह यादव को जनता दल के टिकट पर संसद का चुनाव लड़ा रहे थे तब भी लोगों को रामलखन की वास्तविकता का पता था। लालू प्रसाद सहित सारे राज्य को यह पता था कि रामलखन बाबू सिर्फ शिक्षा माफिया और जमीन माफिया ही नहीं राजनीति में बाहुबल को प्रतिष्ठा दिलाने वाले राजनीतिज्ञों में प्रमुख हैं। यह भी सबको पता था कि उनके सुपुत्र प्रकाश चन्द ने कलकत्ता की उस बदनाम बस्ती में किस तरह कुल और राज्य का नाम रोशन किया था। यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि लोगों को पप्पू यादव के सामाजिक न्याय की असलियत का पता नहीं होगा। लेकिन जब लालू प्रसाद ऐसे लोगों को अपने सामाजिक न्याय की छत्रछाया में ले लेते थे तो लोग इसे भी स्वीकार कर लेते थे। सिर्फ इसलिए कि उन्हें लालू प्रसाद के पारदर्शी व्यक्तित्व पर विश्वास था। उन्हें लगता था कि पिछड़े परिवार के एक गरीब को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग जमने नहीं दे रहे हैं। इसलिए फिलहाल इनसे किसी महत्वपूर्ण कर्म की अपेक्षा की बजाय इसी बात पर असंतुष्ट होना चाहिए कि ये अपने अस्तित्व की लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ पा रहे हैं।

यह स्थिति आगे भी बनी रहती यदि लालू प्रसाद पर आक्रमण सिर्फ उसी वर्ग की ओर से होता, जिस वर्ग को इन्होंने अपना शत्रु घोषित कर रखा था और जो वास्तव में थे भी। आज स्थिति बदल गई है। चाहे पैसे का प्रलोभन हो या शुद्ध अवसरवाद, लेकिन सचाई यह है कि इस बार लालू प्रसाद से जो अलग हुए हैं वे घोषित शत्रुवर्ग के लोग नहीं हैं। यहां बात सिर्फ रामलखन सिंह यादव या रामशरण यादव की नहीं हो रही। बात यहां रामसुंदर दास और उपेन्द्रनाथ वर्मा की भी हो रही है। यह आक्रमण इस बार उस सामाजिक वर्ग की ओर से हो रहा है जिसके न्याय की लड़ाई लड़ने का लालू प्रसाद दंभ भरते हैं और शरद यादव जिसके लिए रथयात्रा का ढोंग कर रहे हैं। रथ पर सवार होकर अपनी बात कहने की परंपरा अभिजात और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की विशेषता रही है। हाल में इसका अत्यंत अशिष्टकरण भी हुआ है। दबे-कुचले और शोषित पीड़ित के दर्द की अभिव्यक्ति किसी रथ पर सवार होकर नहीं की जा सकती। इसलिए इस तरह के अश्लील कृत्य के माहौल में जब लालू प्रसाद आरोप लगाते हैं कि थैलीशाह सामाजिक न्याय की धारा को भ्रष्ट कर रहे हैं तो आज वही लोग हंसते हैं जिनकी अभी कल तक इनके साथ पूरी सहानुभूति थी क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चुका है कि यह किसी उद्देश्य की विफलता का विलाप नहीं है। यह वस्तुतः एक अवसरवादी प्रलाप और अपनी विफलता को ढकने के लिए पवित्र उद्देश्य का अपहरण है।

राम आंदोलन के बाद उपजी भाजपा राजनीतिक और आज के शरद-लालू की रथयात्रा मार्का राजनीति में कहीं कोई अंतर नहीं है। राम मंदिर बनाने का आंदोलन भाजपा के अस्तित्व में आने से वर्षों पहले से चल रहा था। उत्तर भारत के जन-जन में व्याप्त राम प्रेम और उससे उपजी धर्मभीरुता किसी भाजपा आंदोलन का परिणाम नहीं थी। लेकिन जब से भाजपा ने इस आंदोलन को अपने हाथ में लेकर इसे अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाया तब से स्थानीय स्तर का एक शुद्ध धार्मिक आंदोलन एक राष्ट्रीय स्तर के सांप्रदायिक आंदोलन के रूप में भी परिवर्तित हो गया। देश में आज अनेक लोग ऐसे हैं जिनकी रामभक्ति में कहीं कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता लेकिन वे आवश्यक रूप से भाजपा-विहिप आंदोलन के पक्ष में भी हों यह आवश्यक नहीं है। जनता दल के बंटवारे की ताजा प्रक्रिया ने सामाजिक न्याय के आंदोलन को भी अब कुछ वैसा ही स्वरूप प्रदान कर दिया है।

मुरहो से प्रारंभ शरद यादव के मंडल रथ ने इस विभाजन को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया। सामाजिक न्याय का संघर्ष करने वाले आवश्यक नहीं कि वे ही हों, जो मुरहो को एक पवित्र धर्मस्थल और मंडल को अवतार बनाने का प्रयास कर रहे हैं। शरद-लालू-वि.प्र. आदि की यह भोंडी चेष्टा सिर्फ उनकी राजनीति के प्रति ही करुणा का उद्रेक कर पाने में समर्थ है। सामाजिक न्याय के वास्तविक संघर्ष के प्रति नहीं। वैसे इस आंदोलन के भ्रष्ट होने के संकेत उसी दिन मिल गए थे जिस दिन लालू प्रसाद ने अपने जन्म दिन को एनटीआर, एमजीआर और जयललिता की घोर व्यक्तिवादी तानाशाह शैली में मनाने का फैसला किया। वैसे ही राक्षसी कट-आउट, धन और ऐश्वर्य का अश्लील प्रदर्शन तथा नेता की अतिमानवी छवि बनाने के भोंडे प्रयास में जिस दिन लालू प्रसाद शामिल हुए उसी दिन लग गया था कि सामाजिक न्याय का प्रश्न अब इनके लिए निष्ठा का प्रश्न कम और अपनी राजनीति चमकाने का ज्यादा है। रही-सही कसर पेंशन वाले उस कानून ने पूरी कर दी जिसे गुपचुप पास कराने के लिए लालू और जगन्नाथ मिश्र ने आपस में समझौता कर लिया।

यही कारण है कि लालू की जिन बातों को लोग सचमुच विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का षडयंत्र मान कर सहानुभूति जताते थे आज विद्रूप का कारण बनी हुई है। रामलखन के भ्रष्टाचार और अन्य सांसदों के तथाकथित पतन की बात आज लालू के लिए जन मानस पर कोई सहानुभूति की लकीर नहीं खींच पा रही है तो उसके पीछे यही कारण मुख्य है। अब राज्य को यह भी पता लगेगा कि विकास की दौड़ में पीछे रहने के असली कारण क्या हैं। लोग शायद इस विकल्प को भी तराजू पर तोलें कि क्या सामाजिक न्याय के नाम पर किया गया उनका बलिदान सिर्फ इसी व्यर्थता के लिए था। मुलायम सिंह यादव की गतिविधियों से सन 90 में सामाजिक न्याय के संघर्ष को एक भारी झटका लगा था। लालू प्रसाद का विश्वासघात कहीं इसे पूरी तरह तोड़ कर न रख दे।

10 सितंबर, 1992, अमर उजाला

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