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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

एक ऐतिहासिक पहल

अनूसूचित जातियों व जनजातियों का दो दिवसीय सम्मेलन एक गंभीर राजनीतिक सोच के मंच के रूप में परिणत हो जाएगा, इसकी उम्मीद शायद ही किसी को थी। अधिकांश लोग यह उम्मीद लगाए हुए थे कि दलित राष्ट्रपति के प्रश्न पर सम्मेलन विभाजित हो जाएगा और राजनीतिक दलों के बंधनों के ऊपर उठकर दलितों का यह जो नया मंच उभर रहा है, उसके बिखरने की शुरुआत भी इसी सम्मेलन से प्रारंभ हो जाएगी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टे इस सम्मेलन में जो सामाजिक-आर्थिक प्रस्ताव पास हुए हैं, उन्हें राजनीतिक सूझबूझ का उत्कृष्ट उदाहरण कह सकते हैं।

दलित राष्ट्रपति की मांग इस फोरम की मुख्य मांग कभी नहीं थी। पिछले साल आन्ध्रप्रदेश के संदूर में दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ ज्ञापन देने गए 106 दलित आदिवासी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल से राष्ट्रपति का मिलने से इंकार करने के बाद फोरम ने प्रतिक्रिया स्वरूप एक प्रस्ताव पास किया था कि अगला राष्ट्रपति दलित समुदाय से चुना जाना चाहिए। वह फोरम का भी प्रारम्भिक काल था और तब शायद इस फोरम को भी यह अंदाजा नहीं था कि इस मंच में कितनी संभावनाएं भरी पड़ी हैं। इन दो दिनों के सम्मेलन में हुई चर्चा और पारित प्रस्तावों ने यही सिद्ध किया है कि दलित शक्ति को अपनी क्षमता का पूरा अहसास हो गया है। वे सिर्फ दलित राष्ट्रपति के सवाल को मुख्य सवाल बनाकर अपनी इस नवसंचित उर्जा को यों ही नष्ट करने के लिए तैयार नहीं है।

दलित राष्ट्रपति का सवाल वास्तव में कुछ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के लिए सिर्फ राजनीति का ही प्रश्न है। इसमें दोनों तरह के नेता शामिल हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह और रामविलास पासवान सहित जनता दल का वह वर्ग, जो इसी सवाल पर राजनीतिक वारे-न्यारे कर लेना चाहता है। दूसरी ओर वे राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी हैं, जिनका ब्रह्मरोष इस बात पर भड़का हुआ है कि आखिर जाति योग्यता का विकल्प कैसे हो सकती है।

पहले वर्ग के लोगों की पूरी शक्ति इसी बात में लगी रही कि चाहे जैसे भी हो, दलित राष्ट्रपति के प्रश्न को सम्मेलन के केंद्र में बनाए रखकर उसे उस सीमा तक ले जाना है, जहां उस प्रस्ताव का बिना शर्त समर्थन नहीं करने वाले लोगों की निष्ठा को संदेह के दायरे में लाया जा सके। संकुचित राजनीतिक दृष्टि वाले दूसरे वर्ग की आकांक्षा इससे कुछ बहुत भिन्न नहीं थी। वे भी इसी प्रश्न का प्राधान्य देखना चाहते थे ताकि यदि वैसा कोई राजनीतिक प्रस्ताव पारित किया जाए तो उन्हें यह कहने का मौका मिल सके कि अब लोकतंत्र से पार्टियों की आवश्यकता समाप्त करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है और दलितों ने देश को जातिवादी राजनीति के अंधेरे गर्त में धकेल दिया है।

सम्मेलन में भाग ले रहे दलित नेतृत्व को इस खतरे का आभास था। उन्हें पता था कि यदि दलित राष्ट्रपति के प्रश्न को एजेंडे से पूरी तरह बाहर कर देते हैं तो इन दोनों शक्तियों को खुलकर खेलने का मौका मिल जाएगा। एक तरह तो यह कहा जाता कि नेतृत्व को कांग्रेस ने अंततः खरीद लिया और यदि इस मुद्दे को ही केंद्रीय मुद्दा बना दिया जाता तो उनकी चाँदी हो जाती जो अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए एक महत उद्देश्य को औजार बनाना चाहते है। सम्मेलन को इस बात का अहसास तो था ही कि पिछले साल अचानक शुरू हुआ 106 सांसदों का यह ढीला-ढाला मंच आज करीब 250 सांसदों, विधायकों तथा बुद्धिजीवियों का ही एक प्रभावशाली फोरम इस वजह से भी बना है कि दलित राष्ट्रपति के प्रश्न ने सारे देश का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट किया है। चाहे प्रतीक रूप में ही सही, लेकिन दलित राष्ट्रपति के प्रश्न ने ही फोरम को यह अवसर प्रदान किया है कि वह देश का ध्यान दलितों की दारुण दशा और समाज की उनके प्रति उपेक्षा की ओर दिला पाने में सफल रहा है।

इसीलिए सम्मेलन में एक तरफ आर्थिक, समाजिक और राजनीतिक प्रस्ताव पास होते रहे, लेकिन दूसरी ओर दलित राष्ट्रपति का प्रश्न भी अदृश्य रूप से सम्मेलन स्थल पर स्थायी भाव से मंडराता रहा। इस प्रक्रिया में दलित, आदिवासी और वंचित तबकों की अपनी पहचान जिस दृढ़ता से स्थापित हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। इस सम्मेलन में फोरम को एक सुसंगत तथा मुख्य दलितवाणी के रूप में उभारा और कुछ ऐसी बातें पहली बार हुईं जिनका भविष्य की भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ना निश्चित है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है- सम्मेलन में पास किया गया दलितों की आर्थिक-सामाजिक अवस्था पर प्रस्ताव। पहली बार एक ऐसा दस्तावेज सामने आया है जिसमें दलितों के प्रति अब तक चली आ रही करुणा और कल्याण का भाव प्रधान नहीं है। इसी दस्तावेज में दलितों की वर्तमान स्थिति का खुलासा लेखा-जोखा है और ऐसी मांगें की गई हैं, जिन्हें मानने पर वास्तव में दलितों की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन हो सकता है।

प्रस्ताव में दलितों पर आए दिन हो रहे अत्याचारों तथा उस समाज की आर्थिक दैन्य दशा को अलग-अलग व्याधि के रूप में देखने के बजाए इसे समाज के आर्थिक-सामाजिक सड़ांध का लक्षण मात्रा माना है। प्रस्ताव में कहा गया है कि जब तक सम्पूर्ण समाज के आर्थिक-सामाजिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हो जाता, इन लक्षणों को मिटाने की कोशिश करना सिर्फ शाब्दिक सहानुभूति बनकर ही रह जाएगी, रोग को जड़ से मिटाने की कोशिश कतई नहीं बन सकती।

इसलिए प्रस्ताव कहता है कि समाज यदि सचमुच रोग की जड़ को मिटाने के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे लफ्फाजी से उबरना होगा। शब्दों से ऊपर उठकर ठोस कर्म की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए कुछ विशिष्ट उपाय सुझाए गए हैं। मसलन, कुछ निम्नतम मजदूरी के लिए राष्ट्रीय कानून बने, न कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दरों पर मजदूरी निर्धारित की जाए। बंधुआ मजदूरों को सिर्फ मुक्त कर देने मात्रा से कर्तव्य की इतिश्री न हो, उनके पुनर्वास के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। खेती से विरत हो रहे दलित वर्ग को लघु सिंचाई के मामले में प्राथमिकता दी जाए।

मंदिरों और मठों की जमीनों से संबंधित एक अत्यन्त क्रान्तिकारी प्रस्ताव निश्चय ही समाज के प्रभावशाली वर्ग का ब्रह्मरोष तीव्र करेगा। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि मंदिरों, मठों तथा धर्मार्थ न्यासों की जमीन दलितों को खेती के लिए पट्टे पर दी जाए। इसके अतिरिक्त भंगी मुक्ति, जंगलों के संरक्षण, जंगलों के उत्पाद पर दलितों-आदिवासियों का अधिकार, कर्ज मुक्ति तथा दलितों-आदिवासियों के स्कूल जाने वाले बच्चों को मुफ्त आहार देने के प्रस्ताव भी पास किए गए। सरकार की नई आर्थिक नीति विषयक प्रस्ताव ने तो नरसिंह राव सरकार को कठघरे में ही खड़ा कर दिया। सम्मेलन में कहा गया कि सरकार ने नई आर्थिक नीति लागू करने से पहले सभी वर्गों से विचार-विमर्श करना उचित नहीं समझा। विभिन्न कॉमर्स चैम्बरों, ट्रेड़ यूनियनों तथा देशी-विदेशी अर्थनीतिविदों से नई अर्थनीति के बारे में चर्चा की गई, पर दलितों- आदिवासियों को किसी भी स्तर पर विचार-विमर्श में शामिल नहीं किया गया।

यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना है, क्योंकि पहली बार दलितों ने अपने आपको एक अलग आर्थिक वर्ग के रूप में मान्यता देने की मांग की है। अब तक दलित समस्या को सिर्फ सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक स्तर पर ही देखा जाता रहा है, जबकि वास्तविकता यह है कि इस लड़ाई के जड़ में प्रमुख तत्व हमेशा आर्थिक रहा है। इसलिए यह मांग करना कि योजना मद व्यय की राशि निर्धारित करते हुए योजनाकार इस बात का ध्यान रखे कि दलितों-आदिवासियों को उनकी आबादी के अनुपात में ही धन आबंटित किया जा रहा है, अपने आप में एक क्रान्तिकारी मांग है। उस मांग से कहीं ज्यादा दूरगामी महत्त्व की, जिसमें कहा गया है कि राज्यसभा और विधान परिषदों में भी लोकसभा तथा विधानसभा की तरह सीटों का आरक्षण किया जाए। समाज के आरक्षण विरोधी तबके ने इस मांग की गंभीरता को शायद नहीं समझा है। इसलिए उन बातों को उछालकर मुदित हो रहे हैं जो बातें इस सम्मेलन के हाशिए पर चर्चित होती रहीं।

सम्मेलन के मुख्य प्रस्तावों पर अभी लोगों का ध्यान नहीं गया है। यदि इस पर गहराई से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि देश में जिस नई राजनीतिक संस्कृति की हवा का आभास थोड़े दिन से लोगों को मिल रहा था, उसका कुछ ठोस रूप इस सम्मेलन के दौरान पहली बार देखने को मिला है। यह सम्मेलन एक ऐसे समय में आयोजित हुआ है जब देश के अधिकांश राजनीतिक दल महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर एक ही सोच के सांचे में ढले दिखते हैं। ऐसा लग रहा है कि कोई विकल्प है ही नहीं। ऐसी स्थिति में यह फोरम ताजी हवा के एक ऐसे झांेके के रूप में आया है जिसमें भविष्य की राजनीति के संकेत स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इसलिए इसे कृपया सिर्फ दलित राष्ट्रपति के प्रश्न या विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीत-हार के प्रश्न के रूप से न देखें। इसमें एक आगामी राजनीति का पूर्वाभास छिपा
हुआ है। कृपया ऐतिहासिक पहल को इसी रूप में देखें।
25 जून 1992, अमर उजाला

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