जाति फिर चर्चा में है। यह बात आजकल कहीं भी सुनने को मिल जाएगी कि कैसे जाति-पांति की बुराई फिर से सिर उठाने लगी है। ईमानदारी की बात तो यह है कि जाति-पांति का जोर सचमुच कोई खास नहीं बढ़ा है। फर्क सिर्फ यह आया है कि जिन्हें हम सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा, दलित या अल्पसंख्यक कहते हैं, उनमें से कुछ लोग थोड़ी ज्यादा प्रमुखता पाने लगे हैं। कुछ पिछड़ी जातियों के लोग चुनकर आए हैं। उनमें से कुछ मंत्री और मुख्यमंत्री बन गए हैं।
ऐसे नौकरशाह जो हर बाधा-विपत्ति से टकराते हुए अब भी किसी तरह बचे रह गए, उनमें से कुछ की अच्छे पदों पर नियुक्तियां होने लगी हैं। ये थोड़े-बहुत परिवर्तन हो रहे हैं पर इनका असर न के बराबर है। हलचल सिर्फ सतह पर है। मूलभूत परिवर्तन की दूर-दूर तक संभावना नहीं दिखाई देती। जिन्हें जाति-पांति फैलाने का अपराधी माना जा रहा है वे चाहकर भी हर पद पर अपने लोगों को नहीं रख सकते। लोग वहां हैं ही नहीं। हां, आरोप खूब लग रहे हैं।
वंचित तबके के लोग उस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का प्रयत्न भी प्रारंभ करें तो उन पर जातिवाद फैलाने का आरोप लग जाता है। अभी राज्यसभा के टिकट बंट रहे थे। आप कोई भी अखबार उठा लीजिए अगर चर्चा उत्तर प्रदेश और बिहार की हो रही है तो अक्सर टिप्पणीकार यह अवश्य लिखते थे कि लालू यादव और मुलायम सिंह यादव अपनी जाति के लोगों को तो अवश्य टिकट देंगे ही। कहीं किसी ने यह पढ़ा कि राव अपनी जाति के लोगों को अवश्य टिकट देंगे।
कांग्रेस ने राज्यसभा के अपने उम्मीदवारों की जो सूची जारी की है उसमें 50 प्रतिशत स्थान ऊंची जातियों को दिया गया जिसमें 26 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। कल्पना कीजिए कि ऐसा ही कोई काम लालू या मुलायम कर दें तो अखबारों में आज कुहराम मचा होता, पर सवर्णों द्वारा फैलाई गई जाति-पांति को हमारे समाचार माध्यम जाति-पांति की बुराई नहीं मानते। अभी दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक क्रंतिकारी काम हो गया।
अनुसूचित जाति-जनजाति के कोटा से आए छात्रों ने मांग की कि पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं में दाखिले के लिए आरक्षण समाप्त कर दिया जाए। मेरिट के आधार पर दाखिला हो। सवर्ण छात्रों का कहना था कि उनका अपना अलग से आरक्षण बना रहना चाहिए। कल्पना कीजिए, दलित मेरिट की बात कर रहे हैं। सवर्ण आरक्षण मांग रहे हैं। वे समाचारपत्रा जो मंडल आयोग आंदोलन के समय आरक्षण का विरोध करते हुए मेरिट और योग्यता की बात कर रहे थे क्या उनमें से किसी भी अखबार में इसके बारे में कुछ भी पढ़ने को मिला?
आज अचानक बड़े-बड़े लेख, विश्लेषण और संपादकीय इसीलिए लिखे जा रहे हैं क्योंकि दलितों, वंचितों और पिछड़ों के अदंर एक नई चेतना आ रही है। भद्र समाज में लोग कहते मिल जाएंगे कि देखिए, अपराध बढ़ते जा रहे हैं आदि। फिर अचानक बड़ी-बड़ी खबरें छपने लगती हैं कि पश्चिम उत्तर प्रदेश अपराधियों का स्वर्ग बनता जा रहा है। कोई कैमरा टीम बिहार पहुंचकर किसी नरसंहार का चित्र ले आएगी। हमेशा इसी तरह माहौल बनाया जाता है। यह अक्सर सफल भी होता है। इस बार भी यही कोशिश हो रही है। जाति-पांति की बुराई बढ़ने की खबरें आजकल इसलिए आम हैं।
15 फरवरी 1994, मतांतर, इंडिया टुडे
ये थी खबरें आजतक,इंतजार कीजिए कल तक. एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह। दूरदर्शन कार्यक्रम आज तक के संपादक एसपी सिंह जितना यथार्थ बताते रहे, उतना फिर कभी किसी संपादक ने टीवी पर नहीं बताया।रविवार पत्रिका की खोजी पत्रकारिता के पीछे उन्हीं की दृष्टि थी।राजनीतिक-सामाजिक हलचलों के असर का सटीक अंदाज़ा लगाना और सरल भाषा में उसका खुलासा कर देना उनका स्टाइल था।पाखंड से आगे की पत्रकारिता के माहिर थे एसपी।पत्रकारिता के पहले और आखिरी महानायक एसपी के लेखन का संचयन राजकमल ने छापा है। वही लेख आपको यहां मिलेंगे
बहुत खूब लिखा गया है. बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत प्रेरणादायक जानकारी...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक सत्य लिखा है। आज भी एस.पी.की निश्छल और पारदर्शी पत्रकारिता याद आती है। काश आज मिडिया जगत में उन जैसे पांच सात लोग होते तो मिडिया इस कदर दरबारी न बनता।
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