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मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

अपनी बात भाग-2

पुस्तक में क्या है

अपनी बात भाग-1

उनके शुरुआती लेखन को पुस्तक में मोटे तौर पर छोड़ दिया गया है। कारण यह है कि पहले धर्मयुग में और फिर जून 1977 में ‘रविवार’ के शुरू होने पर उन्होंने अपनी पत्रिकाओं में जो लिखा वह कई बार बिना नाम के संपादकीय के तौर पर या छद्म नाम से था, जिन्हें पहचान कर पता कर पाना मेरे लिए संभव नहीं था। और इसमें मदद करने वाला भी कोई दिखाई नहीं पड़ा। इसके अलावा उतनी पुरानी पत्रिकाएं मिल पाना भी उतना सहज नहीं था। उपलब्ध सभी स्रोतों में ढूंढने पर भी ये सभी पत्रिकाएं सिलसिलेवार नहीं मिल पाईं। इस पृष्ठभूमि में, इस मौजूदा संचयन में एसपी के सभी आलेखों के शामिल होने का कोई दावा नहीं है। इसकी एक सफाई यह भी दी जा सकती है कि शुरुआती समय एस पी के लेखन के परिपक्व और मजबूत होते जाने का दौर था इसलिए बाद का लेखन शुरुआती लेखों के मुकाबले कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसके अलावा एसपी को पहले से जानने वालों की जानकारी के मुताबिक शुरू में एसपी ने लिखा भी तो विविध विषयों पर, प्रकाशन की जरूरत के मुताबिक। एसपी अंग्रेजी के भी स्थापित और लोकप्रिय पत्रकार और कॉलम लेखक थे। ‘इकोनॉमिक टाइम्स’, ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में उनके नियमित स्तंभ छपे तो ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ और ‘टेलीग्राफ’ में वे वरिष्ठ संपादकीय पदों पर भी रहे। लेकिन इस संचयन में अंग्रेजी में मैंने उनके लेखन को नहीं शामिल करने का ही निर्णय लिया, ताकि समरूपता बनी रहे। इसका एक अर्थ यह भी है कि उनके अंग्रेजी में लेखन के संचयन की संभावना बाकी रहती है।

एस पी के प्राप्त आलेखों को इस पुस्तक में विषय के आधार पर आठ हिस्सों में बांटा है। इन विषयों के तहत लेखों को तारीखवार रखा गया है ताकि विषय और घटनाओं के विकास को सहजता से समझा जा सके। पहला हिस्सा ‘सामाजिक न्याय’ है। सामाजिक बराबरी की पक्षधरता, कमजोर के साथ खड़े होने और अपना पक्ष तर्कों के जरिए स्पष्ट करते जाने की लगातार कोशिश उस सामाजिक उतार-चढ़ाव के दौर में कम ही पत्रकारों ने की है। मंडल आयोग के हंगामे के बीच ‘नवभारत टाइम्स’ के परिशिष्ट ‘रविवार्ता’ में उनकी लिखी आवरण कथा- ‘मुद्दा नौकरी नहीं सम्मान है’ को पुस्तक का पहला लेख बनाया गया है जो ‘सामाजिक न्याय’ खंड में शामिल है। इस अखबार में उनके शुरुआती लेखों में से है यह लेख। ‘सांप्रदायिकता’ पर फोकस करता किताब का दूसरा हिस्सा 1990 से 1995 के बीच धर्म के नाम पर हुए महत्वपूर्ण राजनीतिक उतार-चढाव का पृष्ठभूमि सहित खासा रंगीन खाका खींचता है।

1990 के मध्य में वी पी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की घोषणा कर दी तो विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली। ऐसे समय में एस पी साफ कहते थे कि इन तात्कालिक भावनात्मक मुद्दों से लोगों को बहलाने वाले राजनीतिज्ञ आम जन की बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता, आर्थिक पिछड़ेपन जैसे मुद्दों पर असंतोष की भाषा नहीं पढ़ पा रहे हैं इसलिए दोनों ही विचारधाराओं के सहारे राजनीतिज्ञ लंबे समय तक सत्ता में नहीं रह सकते।

कांग्रेस को भी उसी गहराई से समझने वाले एसपी ने तीन प्रमुख राजनीतिक घटकों- कांग्रेस, तीसरा मोर्चा और भाजपा के आंतरिक मामलों और कमियों-कमजोरियों के अलावा खास तौर पर राज्यों की चुनाव-राजनीति पर काफी लिखा जिसे पुस्तक के तीसरे खंड- ‘राजनीति’ में इन्हीं चार उप-शीर्षकों- कांग्रेस, तीसरा मोर्चा, भाजपा और चुनाव-राजनीति के तहत लिया है। महंगाई, अर्थनीति, अर्थव्यवस्था पर उनके उपलब्ध आलेखों को ‘अर्थनीति’ खंड में रखा गया है। देश और राज्यों में चल रहे कुशासन पर उनके लेख ‘राजकाज-भ्रष्टाचार’ खंड में हैं।

कश्मीर की उलझन पर उनके लेख ‘कश्मीर’ शीर्षक से अगले खंड में शामिल हैं। कश्मीर की समस्या को बेहद गहरा और सुलझाव के सूत्र के सिरे को काफी दूर कहने वाले एसपी ने साफ लिखा- “घाटी का अलगाववादी मानस आज जिस तरह से रूढ़ हो चुका है अब वह किसी आर्थिक पैकेज या सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया प्रारंभ करने की चेष्टा मात्र से शांत होने वाला नहीं है।”

पत्रकारिता के व्यवसाय और विचार में अपने समय से आगे रहे एसपी के इस विषय पर विचार ‘पत्रकारिता’ खंड में हैं। पेशे की प्रतिबद्धता को सबसे महत्वपूर्ण मानने वाले एसपी ने अपने को हिंदी की पत्रकारिता के कथित पतन के निरर्थक विलाप से अगल रखा। पत्रकारिता की भाषा और तरीके में आ रहे तेज बदलावों पर उनकी सोच लगातार सकारात्मक रही।

हिंदी साहित्य की पढ़ाई करने के बावजूद एसपी भाषा के मामले में लिबरल थे जो उनके लेखों में साफ झलकता है। भाषा को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने की महीन राजनीति करने वालों को उन्होंने अपने लेखन में लगातार आड़े हाथों लिया और लिखा कि उन पर विश्वास करके अपनी भाषा से जुड़ा समाज का एक हिस्सा लगातार पिछड़ता जा रहा है। उन्होंने उस समय की नई विकसित हो रही हिंदी भाषा यानी आज की अखबारी या मीडिया की मिली-जुली भाषा को नई दिशा दी। उन्होंने भाषा के परिष्कार को टेलीविजन माध्यम की तेजी में रुकावट नहीं बनने दिया। “हिंदी की स्थिति इससे बेहतर कभी नहीं रही”- ऐसा कहने वाले एसपी महान प्राचीन भारत के उस तिलस्मी विचार के मोहजाल से निकलकर वास्तविकता के धरातल पर खड़े थे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों भाषाओं के जानकार एसपी ने हिंदी में पत्रकारिता की और अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी की पत्रकारिता को दोयम मानने के विचार को को तथ्यों और तर्कों के साथ बकवास बताया।

समाज और संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर उनके सम-सामयिक लेख ‘समाज-संस्कृति’ शीर्षक खंड में हैँ। हाल ही में हरियाणा के बबली-मनोज की तर्ज पर 1993 में मुजफ्फरनगर के गांव खंदराबली में सरिता और सतीश की पंचायत के फैसले के बाद नृशंस हत्या का एसपी ने गहरा विरोध किया था। मर्यादा और सदाचार के नाम पर समाज में बर्बरता का अनुमोदन करने वाले नेताओं को उन्होंने जम कर लताड़ा।

‘राजकाज’ खंड में उनके वे लेख शामिल हैं जिनमें उन्होंने शासन व्यवस्था की कमजोरियों को उभारा है। सांसदों के कामकाज पर उनकी टिप्पणी है- “यदि उनसे किसी मसले को उठवाना है तो सबसे आसान तरीका है कि अखबारों में खबर छपवाइए और उन्हें फोन कीजिए कि वे उस खबर को पढ़ लें।” भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई, फोटो पहचानपत्र बनाने में राज्यों की तत्कालीन हीलाहवाली और जनसंख्या तक के विभिन्न मुद्दों पर उनके लेख इस खंड में रखे गए हैं।

यह मोटा विभाजन सिर्फ पाठ की सुविधा के लिए है, अन्यथा कई लेख अपने विषय की सीमा लांघते-से लगते हैं तो कई लेख लगता है कि एकाधिक खंडों का हिस्सा हो सकते थे।

दरअसल एसपी टेलीविजन पत्रकारिता के शुरुआती लोगों में तो थे ही, वे कई अर्थों में टीवी पत्रकारिता के पायनियर थे। निस्संदेह, हिंदी में टीवी समाचार की भाषा, विषय, प्रस्तुतीकरण और स्टाइल को महत्वपूर्ण मुकाम तक पहुंचाने में अकेले एसपी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही। माध्यम के तौर पर टेलीविजन और सरकारी चैनल पर आधे घंटे के दैनिक कार्यक्रम ‘आजतक’ की सीमाओं के बाद भी वह एक तरह से उनकी समग्र अभिव्यक्ति का मंच था। वे खुद रिपोर्टिंग भले ही न कर रहे हों लेकिन ‘आजतक’ की हर स्टोरी में कथासूत्र, यानी आइडिया से लेकर ट्रीटमेंट, स्क्रिप्ट, भाषा और अंततः प्रस्तुतिकरण तक सभी में उनकी छाप रहती थी। ‘आजतक’ के दो एपीसोड बेहद चर्चित रहे। एक था- गणेशजी के ‘दूध पीने’ की घटना पर उनका पूर्णतः तार्किक, वैज्ञानिक कार्यक्रम, जो धर्मभीरु आम हिंदुस्तानी के गले नहीं उतर पाया। दूसरा, उपहार सिनेमा अग्निकांड के अगले दिन का संवेदनापूर्ण और भावुक कार्यक्रम जो पूरा का पूरा उसी अग्निकांड को समर्पित था।

पुस्तक के अंत में उनके शुरू किए गए दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले आधे घंटे के करेंट अफेयर्स के कार्यक्रम ‘आजतक’ की दो यादगार कड़ियों का ट्रांसक्रिप्शन है। 1984 में गौतम घोष के निर्देशन में बनी फिल्म ‘पार’ के संवाद एस पी सिंह ने लिखे थे। फिल्म के कुछेक संवाद की दृष्टि से प्रभावी हिस्सों का भी ट्रांसक्रिप्शन साथ में लिया गया है।

कोई 15 साल पहले की उनकी विचार-प्रक्रिया और मुद्दों को देखने का नजरिया समय से आगे के थे, जो आज भी ताजा, सामयिक और महत्वपूर्ण लगते हैं। उनके विचार इकट्ठा एक जगह मिल पाने की सुविधा जैसे मकसद को ध्यान में रखकर यह पुस्तक तैयार करने का विचार आया और मुझे संतोष है कि कमियों और संभवतः गलतियों के साथ ही सही, पर यह काम हो पाया।

एस पी सिंह के करीबी रहे समाजवादी आंदोलन से जुड़े जूगनू शारदेय की उन पर टिप्पणी पुस्तक के शुरू में दी गई है ताकि रचना को एक संदर्भ में देखा जा सके। जुगनू जी इसके लिए समय निकाल पाए, इसके लिए उनका विशेष धन्यवाद।

एसपी के लेख एक जगह ला पाने का यह काम संभव नहीं था अगर इतने सारे लोग सहृदयता के साथ इससे न जुड़े होते। सबसे पहले तो शिखा त्रिवेदी का आभार, जिनकी अनापत्ति के बिना इस संचयन का प्रकाशन नहीं हो पाता। जो डिजिटल तकनीक फोटोकॉपी का सरल विकल्प बनी, उसी ने प्रूफ का काम ज्यादा कठिन बना दिया। कॉपी होल्डिंग के सबसे थकाऊ, एकरस फिर भी दिलचस्प काम में साथ देने के लिए दिलीप मंडल का विशेष आभार। धन्यवाद का एक शब्द 14 साल के होने को आए बेटे अरिंदम के लिए भी, जिसने इस काम के दौरान मेरी सहूलियत का भरसक ख्याल रखा। ऊपर जिनके नाम लिए हैं, और अनेक, जिनके नाम मैं यहां नहीं ले पाई, सबने बिना किसी अपेक्षा के दिल्ली के व्यस्त महानगरीय जीवन की आपाधापियों के बीच इस काम के लिए समय निकाला और भरसक सहयोग किया। उन सब के प्रति मेरा हार्दिक आभार। यह किताब सभी के साझा प्रयासों का नतीजा है।

पत्रकारिता का महानायकः सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन पुस्तक से

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