मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर सरकार ने केंद्रीय सरकार तथा सार्वजनिक उपक्रमों की नौकरियों में पिछड़ी जातियों को जो 27 प्रतिशत का आरक्षण दिया है, इससे उत्तर भारत का जनमानस आज बेहद उद्वेलित है। खासतौर से हिंदी क्षेत्र के उच्चवर्गीय-मध्यवर्गीय शहरी युवा का मन, जो अपने पूर्ववर्तियों की अपेक्षा आज कहीं ज्यादा अनम्य और असहिष्णु लग रहा है। वातावरण इतना विषाक्त गया है कि आरक्षण जैसे हिंदू समाज के लिए एक महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे पर भी बिना घोर विषयपरक कुतर्क के कोई सार्थक वस्तुपरक बहस अब शायद संभव ही नहीं रह गई।
ऐसे अप्रिय माहौल में, आरक्षण के समर्थन में लिखने के लिए मन बना कर बैठना, एक तरह का दुस्साहस ही कहा जाएगा। इसलिए नहीं कि कहने के लिए नया कुछ नहीं है और आरक्षण-विरोधियों के तरकश में अब ऐसे अचूक और अमोघ नए बाण आ गए हैं, जिनका कोई जवाब ही नहीं है। सच तो यह है कि आरक्षण के विरोध में आज भी करीब-करीब वही सारे तर्क दोहराए जा रहे हैं, जिस तर्क के चादर की पिछले 40 सालों में बार-बार इस्तेमाल होने के कारण अब उसकी चिंदियां उड़ती दीख रही है और यही कारण है कि माहौल में हिंसा की बारूदी गंध छाई हुई है। बुद्धि, विवेक और तर्क की सीमा जहां समाप्त होती है वहीं से प्रारंभ होता है हिंसक प्रतिरोध। झिझक इस माहौल के कारण हैं, क्योंकि डर है कि ऐसे माहौल में कोई सार्थक बहस हो भी सकती है या नहीं।
संविधान निर्माताओं के मन में भी यह सवाल उठा था कि क्या यह विरोधाभास नहीं होगा कि एक तरफ संविधान समानता और सभी धर्म, वर्ग, वर्ण की बराबरी की बात करे, दूसरी ओर यह भी कहा जाए कि दलितों-आदिवासियों को आरक्षण तो दिया ही जाए, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ों को भी उसी तरह की सरकारी सहायता मिले। एक तरफ संविधान समानता का मौलिक अधिकार देता है, और दूसरी ओर उन योग्य और प्रतिभाशाली लोगों को अवसर से सिर्फ इसलिए वंचित करता है कि सौभाग्य या दुर्भाग्य से उनका जन्म ऊंची जाति की कोख से हुआ। ऊंची जाति के लोगों की शिक्षा-दीक्षा, प्रतिभा, योग्यता और क्षमता सिर्फ इसलिए नकार दी जाए कि सरकार उन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ों को आगे लाने का प्रयत्न कर रही है जो ऐतिहासिक कारणों से पिछड़े रह गए और अब भी इसलिए पिछड़े हैं कि यह उनका आनुवांशिक पिछड़ापन है और इस तरह से बैसाखियों के सहारे किसी को खड़ा तो किया जा सकता है लेकिन उसे किसी फर्राटेदार दौड़ की प्रतियोगिता में जबर्दस्ती शामिल नहीं किया जा सकता। तर्क यह था कि वह दौड़ेगा तो नहीं ही, दौड़ की गति भी धीमी करता रहेगा यानि देश पिछड़ेपन के लिए अभिशप्त रहेगा।
जहिर है, यह तर्क तब भी काम नहीं आएगा। आरक्षण की बात संविधान में रखी गई। संविधान का अनुच्छेद 370 और निदेशक सिद्धांत इसके गवाह हैं। और गवाह है काका साहेब कालेलकर की अध्यक्षता में गठित 1953 का पिछड़ा वर्ग आयोग जो तब गठित हुआ था जब देश में तथाकथित लोकदलीय समाजवादी पिछड़ी मानसिकता की सरकार नहीं थी। सरकार समाजवादी स्वप्नदृष्टा जवाहरलाल नेहरू की थी और आयोग के अध्यक्ष थे महान गांधीवादी काका साहेब कालेलकर।
कालेलकर आयोग ने दो साल लगातार मार्च 1955 में अपनी रिपोर्ट तो दे दी पर कहीं न कहीं वे उन सवर्ण पूर्वाग्रहों के तर्कों से उबर नहीं पाए जो संविधान निर्माण के समय ही इस मुद्दे पर अड़ंगा डाल रहे थे। अपनी रिपोर्ट को राष्ट्रपति के सामने पेश करते हुए काका साहेब ने जो तीस पेजी चिट्ठी लिखी उसमें उन्होंने अपनी ही रिपोर्ट को पूरी तरह से धराशायी कर दिया। सर्वोदयी काका साहेब का हृदय पिछड़ों की दुर्वस्था से द्रवित था पर वे यह लिखना नहीं भूले कि हिंदू समाज की ऊंची जातियों ने पिछड़ों की उपेक्षा के पाप का जो अपराध किया है उसका प्रायश्चित उन्हें करना पड़ेगा। इसके लिए मैं इस हद तक अनुशंसा करने को तैयार था कि पिछड़े वर्ग को ऊपर लाने के लिए सरकार हर तरह की विशेष सहायता दे और यह विशेष सहायता ऊंची जातियों के मेधावी और गरीब लोगों के हितों की कीमत पर भी पिछड़े वर्ग को दी जाए लेकिन जब आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इसका आधार जातीय होगा तो जैसे मेरी आंखें खुल गईं।
यह मेरे लिए एक चैंकाने वाला सदमा था जिसने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मजबूर किया कि जो उपचार हम सुझा रहे हैं वह तो उस व्याधि से भी ज्यादा भयानक होगा जिसे हम दूर करना चाहते हैं।
यदि इन (पिछड़ी) जातियों ने शिक्षा का तिरस्कार किया है तो इसलिए कि इनके लिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं थी। अब जब वे अपनी गलती महसूस कर रहे हैं तो यह उन्हीं की जिम्मेदारी है कि वे इस कमी को दूर करने के खुद प्रयास करें।
मैं निश्चित रूप से सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर आरक्षण के विरुद्ध हूं क्योंकि ये नौकरियां सिर्फ नौकरी के लिए नहीं हैं, ये नौकरियां मूलतः समाज के सेवा के लिए हैं।
मेरा विश्वास है कि पहली और दूसरी श्रेणी की सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लोग नैतिक और भौतिक दोनों रूप से लाभान्वित होंगे। यदि वे इन नौकरियों में आरक्षण के कोटे की मांग छोड़ दें और प्रशासन को अपने विवेक से काम करने का अवसर दें ताकि वे पिछड़े वर्गों की बेहतरी के लिए सही उपाय कर सकें।
1955 में काका साहेब कालेलकर जब प्रशासन और ऊंची जातियों के विवेक पर इस सवाल को छोड़ने की बात कर रहे थे तब इन नौकरियों में पिछड़ों का वास्तविक प्रतिशत क्या था। इसका सही सरकारी आंकड़ा नहीं मिल पाया। लेकिन एक मोटा अंदाजा लगाया गया था कि केंद्रीय सरकार की प्रथम श्रेणी की नौकरियों में पिछड़ों की भागीदारी 4 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी। 1980 आते-आते मंडल आयोग ने इस तरह के हिसाब किताब में कोई कमी नहीं रखी। इस रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार की प्रथम वर्ग की 1 लाख 74 हजार 43 नौकरियों में पिछड़ों का कुल हिस्सा केवल 4.69 प्रतिशत था। आज इसकी क्या स्थिति है? केंद्रीय कल्याण मंत्रालय के एक सूत्र का यदि विश्वास किया जाए तो इस हिस्से में अब .04 प्रतिशत की कमी आ गई है। अब पिछड़ों का हिस्सा 4.65 प्रतिशत है। यह नतीजा है प्रशासन के उस विवेक का जिसकी बात काका साहेब ने 1955 में की थी। पंडित नेहरू की तत्कालीन सरकार ने जाहिर है, कालेलकर आयोग की रिपोर्ट के साथ वैसा ही सुलूक किया जैसा काका साहेब शायद चाहते थे। उस रिपोर्ट को दाखिल दफतर करते हुए केंद्र सरकार ने फरमाया कि राज्य सरकारें यदि चाहंी तो अपने-अपने क्षेत्रों में पिछड़ेपन का आधार ढूंढने तथा उसे दूर करने के लिए जो भी कदम उठाना चाहें उठाएं। लेकिन जहां तक केंद्र सरकार का सवाल है यहां उचित यही होगा कि इस तरह के किसी भी कदम का आधार आर्थिक होगा न कि जाति आधारित।
आरक्षण विरोधी आज भी अपने वही तर्क दोहरा रहे हैं जिनके आधार पर काका सहेब का गांधीवादी मन जाति को आरक्षण का आधार मानने के सवाल पर डोल गया था या पंडित जवाहर लाल नेहरू का समाजवादी मन अपने मुख्यमंत्रियों को इस तरह का पत्र लिखने के लिए उन्हें मजबूर कर रहा था कि जाति आधारित आरक्षण से देश रसातल में चला जाएगा। नेहरू जी को अपने समाजवादी समाज की स्थापना के स्वप्न पर पूरा भरोसा था। उन्हें सचमुच शायद लगा था कि उनकी पंचवर्षीय योजनाएं जिन विराट बांधों, दूर-दूर तक फैली नहरों तथा विशाल कारखानों को जन्म देंगी उनमें जाति-पांति की पिछड़ी अवधारणाएं अपने आप डूब जाएंगी। भारतीय समाज की जटिल कुटिलताओं से दूर पंडित नेहरू का मन शायद सचमुच ऐसी अवधारणाओं को अशलील मानता होगा। उस जमाने के उस भोले गांधीवादी समाजवादियों को शायद ही इसका आभास रहा होगा कि हमारा दृढ़ समाज न केवल जड़ता की निरंतरता को बनाए रखेगा बल्कि इस धारावाहिकता को अक्षुण बनाए रखने के लिए उनके भोले तर्कों का तोड़ मरोड़ कर निरंतर दुरुपयोग भी करता रहेगा।
पिछले 40 वर्षों में हमारे समाज की स्थिति में बदलाव नहीं आया है। इसका अहसास आज 1990 में विश्वनाथ प्रताप को अचानक नहीं हुआ है। बीच के वर्षों में भी कुछ लोगों को यह अहसास कहीं न कहीं निश्चय ही सालता रहा होगा, वरना अलग-अलग 10 राज्य सरकारें अब तक इस तरह के 15 आयोग नहीं बिठाती। मंडल आयोग के बारे में आरक्षण-विरोधियों का यह कहना है कि यदि भारतीय प्रशासन ने 1977-80 का व्यवधान नहीं आता, तो मंडल आयोग जैसी अश्लील अवधारणा के बारे में कोई सोचता भी नहीं। चलिए मान लेते हैं कि यह जातिवादी लोकदली सोच का स्खलन था, पर बाकी के 15 राज्यों में ऐसे आयोग क्यों बने और इन सारे आयोगों ने जाति को ही पिछड़ेपन का आधार क्यों माना?
सिर्फ इसीलिए कि कालेलकर और नेहरू की पवित्र इच्छाओं के बावजूद, आज भी केंद्र सरकार की प्रथम श्रेणी की नौकरियों में पिछड़ों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों और अल्पसंख्यकों की कुल संख्या 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। जबकि कुल आबादी की सिर्फ 15 प्रतिशत सवर्ण जातियां और इन जातियों में भूमिहार, त्यागी, मोहियाल सहित ब्राह्मण, राजपूत, जाट, मराठा, कायस्थ और वैश्य सभी शामिल हैं, अब भी सरकार और प्रशासन के 85 प्रतिशत पदों पर काबिज हैं। जब भी आरक्षण की बात चलती है तो इस व्यवस्था को बरकरार रखने वाले ही योग्यता, प्रतिभा और अनुभव की बात करते हैं। तभी इन्हें याद आता है कि जाति व्यवस्था हिंदू समाज का कोढ़ है और कोई भी कल्याणकारी सरकार ऐसी व्यवस्था कैसे बना सकती है, जिससे समाज की यह बुराई न सिर्फ जारी रहे, बल्कि और भी मजबूत हो। पिछड़ा वर्ग जब भी इस विषमता की ओर उंगली उठाता है इन्हें संपूर्ण समाज और उसकी दुर्बलताओं की चिंता सालने लगती है। और यह उन कुछ लोगों की बात है, जिनके मन में कहीं न कहीं अब भी एक समतामूलक समाज के प्रति कुछ सम्मान शेष है। शायद आंख की एक शर्म है, जो उन घोर नात्सीवादी और नस्लवादी जुमलों के प्रयोग से उन्हें रोक रही है जिनका प्रयोग समाज का एक तबका अब खुल कर करने लगा है। आरक्षण के समर्थन में बात करने से झिझक इसीलिए हो रही है। फासिज्म को सबसे ज्यादा चिढ़ तर्क और न्याय से होती है। आरक्षण के विरुद्ध छेड़ा गया हिंसक आंदोलन कहीं हमें उसी ओर तो नहीं ले जा रहा है? आखिर दक्षिण अफ्रीका में भी बेशर्म गोरों का एक बड़ा तबका तो है ही, जो आज भी उस देश में अपनी सड़ी व्यवस्था लागू रखना चाहती है और वह भी तर्कों के सहारे।
उधर, समाज का एक प्रतिशील तबका है, जो खुल कर इस अन्याय का समर्थन भी नहीं कर सकता और न ही आरक्षण को मानने के लिए अपने को तैयार कर पाता है। ऐसे लोग ही आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करते हैं। ये वे लोग हैं जो हिंदू समाज के हजारों साल के दमन और शोषण के इतिहास से आंखें मूंदे रहना तो चाहते ही हैं, इस तथ्य को भी नजरअंदाज करना चाहते हैं कि सारी धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवादी नारों के बावजूद सामाजिक ढांचा ज्यों का त्यों क्यों है। सच तो यह है कि सदियों के व्यवस्थित शोषण से आज समाज का एक वर्ग पिछड़ेपन की जिस अवस्था में पहुंचा है उससे उबरने के लिए शायद कुछेक सौ सालों का आरक्षण भी कम पड़ेगा। इस बात को समझने के लिए थोड़े खुले मन की जरूरत पड़ेगी कि जब पिछड़े, दलित या समाज के शोषित वर्ग के लोग जोर देकर यह कहते हैं कि आरक्षण उनकी समस्याओं का एकमात्र समाधान है, तो निश्चय ही वे सिर्फ अपने या अपने समाज की आर्थिक उन्नति की बात नहीं कर रहे होते हैं। पिछड़े समाज की कुछ जातियां अपने बाहुबल से इतना कुछ तो अर्जित कर चुकी हैं कि आर्थिक समस्या अब उनके लिए बहुत बड़ी समस्या नहीं है। सरकारी पद उन्हें सामाजिक सम्मान के लिए चाहिए। यह समाज में बराबरी का अधिकार पाने की ललक है सिर्फ आर्थिक उन्नति की बात नहीं। हिंदू समाज में शोषण और दमन का यह चक्र जाति व्यवस्था को आधार बना कर ही चलाया गया था। जब तक यह चक्र एक बार उल्टा नहीं चल पड़ता, तब तक इस समाज में जाति व्यवस्था को समाप्त करने की बात करना एक छलावा ही होगा। या यों कहें कि शोषित पिछड़े वर्ग के लोगों के जायज अधिकारी को हड़पने की एक सवर्ण साजिश।
आरक्षण के मुद्दे पर सवर्ण जातियां, जो कुल जनसंख्या की सिर्फ 15 प्रतिशत हैं, यदि इस तरह सोचने लगें कि अब तक जिन 15 प्रतिशत लोगों के लिए नौकरियों में 100 प्रतिशत स्थान आरक्षित थे, उन्हें अब 50.5 प्रतिशत नौकरियों पर संतोष करना पड़ेगा, तो शायद यह उनके सोचने का स्वस्थ तरीका साबित हो, क्योंकि अब भी आबादी के 85 प्रतिशत लोगों के लिए सिर्फ 49.5 प्रतिशत स्थान ही तो आरक्षित हैं।
26 अगस्त 1990, रविवार्ता, नवभारत टाइम्स
ये थी खबरें आजतक,इंतजार कीजिए कल तक. एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह। दूरदर्शन कार्यक्रम आज तक के संपादक एसपी सिंह जितना यथार्थ बताते रहे, उतना फिर कभी किसी संपादक ने टीवी पर नहीं बताया।रविवार पत्रिका की खोजी पत्रकारिता के पीछे उन्हीं की दृष्टि थी।राजनीतिक-सामाजिक हलचलों के असर का सटीक अंदाज़ा लगाना और सरल भाषा में उसका खुलासा कर देना उनका स्टाइल था।पाखंड से आगे की पत्रकारिता के माहिर थे एसपी।पत्रकारिता के पहले और आखिरी महानायक एसपी के लेखन का संचयन राजकमल ने छापा है। वही लेख आपको यहां मिलेंगे
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