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शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

दलित राष्ट्रपति के बहाने नए समीकरण

लगता है, दलित राष्ट्रपति के प्रश्न पर ही विभिन्न राजनीतिक दलों के आपसी संबंधों पर भी एक बार फिर से विचार हो जाएगा। आवश्यकता तो इसकी शायद सभी दल महसूस कर रहे थे, लेकिन पहल कौन करे की मजबूरी के कारण संभवतः कुछ नहीं कर पा रहे थे। राष्ट्रीय मोर्चे और वाम मोर्चे के लिए तो यह एक तरह से सुनहरा मौका साबित हो सकता है क्योंकि वास्तविकता तो यही है कि पिछले कुछ समय से इनके आपसी संबंध काफी असहज हो चुके थे। अलग-अलग रास्तों पर चलने का फैसला शायद इसलिए नहीं हो पा रहा था क्योंकि इसके लिए इन्हें अब तक कोई समुचित सैद्धांतिक आवरण नहीं मिल पाया था। इस दृष्टि से राष्ट्रपति पद का चुनाव संबंधों की पुनर्व्यवस्था के लिए एक आदर्श अवसर हो सकता है। राष्ट्रीय मोर्चे के विभिन्न घटकों और यहां तक कि जनता दल के परस्पर विरोधी विचार वाले तत्वों के लिए भी यह चुनाव एक ऐसा मौका प्रदान कर सकता है, जहां से आगे यदि उनके रास्ते अलग दिशाओं में चल पड़ें तो इनके लिए यह एक सहज घटना ही होगी।

जनता दल नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह और वामपंथी दलों के बीच इस प्रश्न पर ताजा असहमति के कारण राष्ट्रीय मोर्चा और वामपंथी दलों के बीच पड़ी दरार को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। सचाई यह है कि न तो विश्वनाथ प्रताप सिंह वास्तव में इस बात पर गंभीर हैं कि अगला राष्ट्रपति दलित-आदिवासी ही होना चाहिए, न ही वाम मोर्चे के लिए यह प्रश्न उनकी राजनीतिक प्राथमिकता में सर्वाेपरि है। लेकिन दोनों पक्ष इस प्रश्न को इस सीमा तक खींचने में नहीं हिचकिचाएंगे, जहां से दरार स्थाई बन सकती है, क्योंकि दोनों पक्षों के लिए अपने राजनीतिक हित साधने का यह एक अच्छा मौका है। मुद्दों की तलाश में भटक रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपनी आगामी राजनीति के लिए इसी बहाने कुछ ऐसे स्थाई मुद्दे मिल जाएंगे, जिनके सहारे उनकी रुकी पड़ी राजनीति थोड़ी आगे बढ़ सकती है। वाम मोर्चे को भी एक ऐसा अवसर मिल जाएगा जिस बिंदु से वह कांग्रेस के साथ एक नए सिरे से संबंध भी स्थापित कर पाएगा और यह भ्रम भी बना रहेगा कि वामपंथी अपनी स्वाभाविक राजनीति ही कर रहे हैं। वामपंथियों की राजनीतिक दिशा में कहीं कोई भटकाव नहीं आया है। यह राजनीतिक इंतजाम दोनों पक्षों को माफिक पड़ता है।

सबसे पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजनीतिक कष्ट को समझने का प्रयास करें। जनता दल के गठन में चाहे जितने भी महारथियों का योगदान क्यों न रहा हो, लेकिन उसे एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करने, उसे राष्ट्रीय मोर्चे का एक घटक बनाने तथा उस मोर्चे को वाम मोर्चे के साथ जोड़कर एक राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करने में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान विश्वनाथ प्रताप सिंह का ही था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने शुद्ध राजनीतिक अवसरवाद को एक राजनीतिक दर्शन का मुलम्मा चढ़ाकर देश के सामने पेश करने का एक असंभव कार्य किया था। सर्वथा विपरीतधर्मी राजनीतिक तत्वों को जोड़कर जनता दल का गठन करना, केंद्रीय शक्ति के विरोध में उभरी विभिन्न शक्तियों को संगठित करके राष्ट्रीय मोर्चे का स्वरूप देना और उसे एक ओर वाम मोर्चे से तो दूसरी ओर भाजपा से समर्थन दिलाकर सरकार चलाने के असंभव कार्य को थोड़े समय के लिए ही सही, लेकिन संभव कर दिखाना वास्तव में एक भारी नट-खेल था जिसे ज्यादा दिनों तक चलाया भी नहीं जा सकता था। स्वाभविक है कि वह चला भी नहीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के पतन के साथ वह ताना-बाना जो बिखरना प्रारंभ हुआ, वह प्रक्रिया अब भी जारी है। एक स्तर पर जहां वह विश्वनाथ प्रताप सिंह और वाम मोर्चे के संबंधों में दरार के रूप में सामने आ रही है, तो दूसरे स्तर पर वह जनता दल के अंदरूनी तनाव के रूप में। अनेक स्तर पर हो रहे इस बिखराव का कारण एक ही है कि इन शक्तियों को जोड़ने वाला तंत्रा गैर कांग्रेसवाद अब प्रभावी नहीं रह गया है। कांग्रेस से नेहरू परिवार का वर्चस्व समाप्त होने के बाद अब आगे यह तत्व अनेक विपरीतधर्मी विपक्षियों को जोड़ने का काम कर पाएगा, यह संभव भी नहीं दिखता।

इस तथ्य को तो विश्वनाथ प्रताप सिंह, जनता दल के अन्य नेता तथा वामपंथी सभी स्वीकार करते हैं लेकिन यह सहमति सिर्फ इसी बिंदु तक सीमित है। आगे की राजनीति का स्वरूप क्या होगा और इस ढांचे में विभिन्न राजनीतिक दलों की अपनी स्थिति क्या होगी, इस बिंदु पर सहमति तो है ही नहीं वरन् घोर मतभेद भी हैं। यह तथ्य इन सबको अच्छी तरह पता है कि उनकी अब तक की एकता में भी समानता का कोई विशेष कारक नहीं था। आर्थिक मुद्दों पर इस गठबंधन के विभिन्न घटकों के मतभेद तो जगजाहिर ही थे, जनता दल के अंदर भी कभी इस मुद्दे पर कोई आम सहमति नहीं रही। यही हालत सामाजिक न्याय के प्रश्न की रही जिसे मजबूरन जनता दल ने अपना मुख्य नारा तो बना लिया लेकिन दल के अंदर कभी इस प्रश्न पर एकता नहीं रही। इस प्रश्न पर राष्ट्रीय मोर्चा भी बंटा रहा। वाम मोर्चे ने कभी भी इस विषय को मुद्दे के रूप में मान्यता ही नहीं दी लेकिन अवसरवादिता की वैचारिक बेईमानी के कारण खुलकर कभी भी इस विषय पर अपने विचार भी प्रकट नहीं किए। इस गठबंधन के एजेंडा में विदेश नीति को कभी प्रमुखता दी ही नहीं गई वरना इस विषय पर जितने दल हैं उतनी नीतियां तो होती हीं। यह भी संभव है कि जितने नेता हैं उतनी ही नीतियां भी होतीं। कुल मिलाकर इन्हें बांधने वाला एक ही तथ्य था, जिसकी समाप्ति को ये स्वीकार कर चुके हैं और अब इन्हें ऐसे नए तत्वों की तलाश है जिनसे एक महागठबंधन भले ही न हो पाए लेकिन कम-से-कम आगे की राजनीति चलती रहे।

राष्ट्रपति पद का चुनाव इन तत्वों के लिए शाश्वत तलाश का एक अच्छा अवसर साबित हो रहा है। वाम मोर्चे को गैर कांग्रेसवाद का विकल्प गैर भाजपावाद में दीख रहा है। इस नीति के सहारे वामपंथी, राष्ट्रीय मोर्चा आदि के साथ अपने संबंध समाप्त करके कांग्रेस के साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। यह अवसर इन्हें एक सैद्धांतिक आवरण तो देगा ही, इन्हें शासक दल के साथ जुड़ने का एक आसान मौका भी देगा। वामपंथी हमेशा से इसके आदी भी रहे हैं। वामपंथियों का यह रास्ता जनता दल के भी कई नेताओं को अनुकूल लग रहा है। ये वे लोग हैं जो सिर्फ इस कारण इस गठबंधन में शामिल थे क्योंकि कांग्रेस ने तब इन्हें अपने साथ रखा नहीं था। अब यदि गैर भाजपावाद इन्हें किसी व्यापक गठबंधन में सम्मानपूर्वक शामिल होने का मौका दे रहा है तो ये मुद्दों के अनावश्यक पचड़े में क्यों पड़ें।

दूसरी ओर जनता दल के वे तत्व हैं चाहे-अनचाहे मुद्दों के साथ रहना जिनकी मजबूरी है। विश्वनाथ प्रताप सिंह, शरद-लालू यादव तथा राम विलास पासवान आदि जनता दल की राजनीति को सायास या अनायास उस दिशा में मोड़ चुके हैं जहां से वापस मुड़ने का अर्थ होगा उनका निश्चित राजनीतिक सफाया और आगे का रास्ता और भी कठिन है। वर्तमान जनता दल उत्तर प्रदेश-बिहार के पिछड़ों के एक वर्ग की पार्टी है, जिसे मुसलमानों का समर्थन प्राप्त है। इसके वर्तमान सामाजिक-धार्मिक आधार के कारण इसे उन वर्गों र्का समर्थन नहीं मिल सकता, जो फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के साथ हैं। अब यदि इन्हें अपने आधार को और संकुचित होने से बचाना है तो स्वाभाविक ही इन्हें नए आधार के लिए दलित-आदिवासी वर्ग की ओर देखना होगा। दलित राष्ट्रपति का सवाल इस दिशा में एक प्रयास हो सकता है जिसे जनता दल का यह वर्ग आजमाना चाहता है क्योंकि इन्हें पता है कि आज जो इनका आधार है उसमें धीरे-धीरे कमी ही आनी है। हालांकि इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि दलित-आदिवासी राष्ट्रपति का प्रश्न पिछड़े वर्ग को भी उतना ही आंदोलित करे जितना दलितों-आदिवासियों को। फिर भी यह एक सोच-समझकर उठाया गया जोखिम है।

वाम मोर्चे के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वह भी इस तरह का कोई ऐसा जोखिम उठाए। वामपंथी ढाई राज्यों में सिमटे हुए हैं और उनकी महत्त्वाकांक्षा उस सीमित दायरे से बाहर निकलने की है भी नहीं। दूसरी ओर, यदि सचमुच सामाजिक न्याय का प्रश्न उनके लिए भी गंभीर राजनीतिक प्रश्न बन जाता है तो उनके अपने आधार पर प्रहार की आशंका ज्यादा रहेगी। वामपंथी इसे भले ही न मानें लेकिन वास्तविकता यही है कि जिन दो राज्यों में उनका वर्चस्व है वहां समर्थन भले ही इन्हें समाज के कमजोर तबकों से मिलता हो लेकिन नेतृत्व हमेशा सवर्ण और शहरी मध्य वर्ग के हाथ में रहा है। अतः इस सवाल को छेड़कर आज जनता दल जिन अंतर्विरोधों का सामना कर रहा है, वामपंथी भी उनसे अंततः बच नहीं पाएंगे। अतः वामपंथियों ने सही हिसाब लगाया है कि इस गठबंधन से जो कुछ उन्हें प्राप्त करना था वह प्राप्त कर चुके हैं। अब आगे यदि इस संबंध को बनाए रखा जाता है तो इन्हें भी बेचैनी के उस दौर से गुजरना पड़ेगा जिस दौर से इस गठबंधन के मूल उत्प्रेरक यानी जनता दल को गुजरना पड़ा है। जबकि इनके सामने सांप्रदायिकता के प्रश्न पर भाजपा को अलग-थलग करने के सैद्धांतिक सवाल को आगे कर के कांग्रेस के साथ मधुर संबंध बनाने का आसान रास्ता मौजूद है।

जबकि जनता दल का रास्ता इतना आसान नहीं है। यहां न तो अभी सैद्धांतिक आधार तय हो पाया है और न ही नेतृत्व का प्रश्न। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दलित राष्ट्रपति के प्रश्न को उठाकर दल के इस अंतर्द्वंद्व को ही तीव्र किया है। संभव है, दल इस सवाल पर एक बार और बंटे, लेकिन इस बंटवारे को स्वाभाविक ही मानना चाहिए। देखना है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह-राम विलास पासवान द्वारा उठाए गए इस मुद्दे को जनता दल के भीतर कितना समर्थन प्राप्त होता है। दल के सैद्धांतिक आधार और भविष्य के नेतृत्व की दिशा उसी समर्थन से तय होगी। दलित राष्ट्रपति का प्रश्न तो वास्तव में इनके लिए भी सांकेतिक ही है। इसलिए बहुत संभव है कि यह प्रश्न इस विवाद के दौरान ही कहीं खो जाए। इस बात को जनता दल के अंदर विश्वनाथ प्रताप समर्थक भी समझते हैं और विश्वनाथ प्रताप विरोधी भी। राष्ट्रीय मोर्चे का हर घटक इस तथ्य से वाकिफ है कि यह विवाद उनके भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेगा। वाममोर्चा तो इसी प्रश्न के सहारे अपना अलग कदम तय भी कर चुका है। कांग्रेस के अंदर दलित राष्ट्रपति की बात उठाने वाले तो अब शांत भी हो चुके हैं। यानि कुल मिलाकर इस प्रश्न से जितनी राजनीति साधी जा सकती थी या तो साधी जा चुकी है या उसी रास्ते बढ़ रही है। सिर्फ दलित राष्ट्रपति का प्रश्न वहीं छूट गया लगता है जहां से यह प्रारंभ हुआ था। दलित और दलित राजनीति की यही वास्तविकता है।

4 जून 1992, अमर उजाला

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