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मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

अपनी बात भाग-1

संचयन क्यों और कैसे

“तो ये थी खबरें आजतक, इंतजार कीजिए कल तक।”- 90 के दशक के टेलीविजन दर्शकों को यह जुमला अब भी याद होगा। लेकिन इसे बोलने वाले सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम शायद कम लोगों को याद हो। आजतक के प्रस्तुतकर्ता होने के अलावा आमजन में सुरेंद्र प्रताप सिंह का कोई और परिचय कम ही है। लेकिन पत्रकार-जगत के लोग जानते हैं कि एसपी के नाम से मशहूर सुरेंद्र प्रताप सिंह ने प्रिंट और टेलीविजन दोनों ही माध्यमों में पत्रकारिता के नए प्रतिमान गढ़े, नई परंपराएं शुरू कीं। जन-पक्षधरता और राजनीति की पैनी समझ उनकी अभिव्यक्ति को धारदार बनाती थी। खबर के पीछे की खबर को सूंघ पाने की उनकी काबिलियत ने उन्हें अपने समकालीनों से अलग खड़ा किया। अखबार के किसी कोने की एक सिंगल कॉलम खबर को कवर स्टोरी बना लेने की हिम्मत और प्रतिभा कम ही लोगों में होती है।

एसपी के लेखन को इस पुस्तक में कालखंड में नहीं बल्कि विषयों में बांटा है। लेकिन विषयों के आधार पर बने खंडों में कालखंड के हिसाब से रखे गए उनके लेखों को देखें तो साफ दिखाई पड़ता है कि जब भी एसपी सिंह किसी अखबार या चैनल के प्रमुख कर्ताधर्ता रहे तब उन्होंने या तो नहीं लिखा या बहुत कम लिखा। आम तौर पर जब कोई संपादक होता है तो पूरे अखबार को अपनी जमीन मानता है। इसलिए अमूमन सभी संपादक अपने अखबार में कॉलम लिखते हैं। कुछ संपादक अपने अखबार या पत्रिका में ढेर सारी जगह घेरने के लिए कुख्यात भी रहे हैं। लेकिन ऐसा क्यों हुआ होगा कि जब एसपी सिंह रविवार के कर्ताधर्ता रहे, तब उन्होंने सबसे कम लिखा? एसपी के समकलीनों से बात करने पर पता चला और यह तार्किक भी लगता है कि एसपी सिंह जब-जब संपादक रहे, तब-तब उन्होंने समूची पत्रिका, समाचार पत्र या चैनल के जरिए अपनी बात लोगों तक पहुंचाई। कहा जा सकता है कि एसपी ‘रविवार’ में खुद नहीं लिखते थे, लेकिन वे जिस तरह से लोगों तक बात पहुंचाना चाहते थे, वह काम पूरी पत्रिका करती थी। इस मायने में देखा जाए तो ‘रविवार’ के पन्नों पर एसपी का नाम क्रेडिट लाइन के अलावा शायद ही कहीं छपता हो, लेकिन उनकी सोच पत्रिका के हर पन्ने पर होती थी। संवाददाताओं/लेखकों के नाम चाहे जो भी हों, लेकिन समग्रता में पूरी पत्रिका एसपी की जुबान बोलती नजर आती थी। वे नजर न आते हुए भी सर्वत्र होते थे। इसीलिए ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने के बाद, स्वतंत्र पत्रकार, टिप्पणीकार के रूप में उन्होंने खूब लिखा और कुछ मुद्दों पर पक्ष लेकर सिलसिलेवार लिखा। जब-जब अपनी बात कहने का मौका आया तो उन्होंने साबित कर दिया कि वे न सिर्फ बेहद जोरदार लिखते हैं बल्कि घटनाओं में हस्तक्षेप भी करते हैं। खासकर मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन के दौर में जब पूरा मीडिया आरक्षण के विरोध में बह रहा था, एसपी ने संपादकीय पेज से लेकर फीचर के पन्नों तक पर धारदार तरीके से लेखनी चलाई। सांप्रदायिकता के खिलाफ भी एसपी लगातार सजग रहे और इसका प्रमाण उनकी रचनाओं में मिलता है।

इस पुस्तक के अध्यायों में विषयों की भिन्नता के बावजूद एक निरंतरता है। सभी मुद्दों पर एसपी बिना किसी लाग-लपेट के सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। कई दशक तक फैले पत्रकारीय जीवन में एसपी की यह निरंतरता कभी नहीं टूटती। वे जातिवाद के समर्थन में कभी नजर नहीं आते, सांप्रदायिकता को लेकर नरमी बरतते कभी नहीं दिखते। कांग्रेस विरोध भी उनके लेखन में निरंतरता के रूप में नजर आता है। वे देश भर में चल रहे जनांदोलनों के पक्षधर के रूप में सामने आते हैँ। महिला अधिकारों को लेकर वे कभी भी डगमगाते या चूकते नहीं दिखते। भ्रष्टाचार को लेकर हमेशा बेहद सख्त होते हैं। छद्म और अनावश्यक महिमामंडन से वे परहेज करते हैं और सवाल पूछने और संदेह करने के पत्रकारीय धर्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कभी कमजोर पड़ती नहीं दिखती।

इस मामले में एसपी सिंह के लेखन को एकरेखीय कहा जा सकता है, जिसकी निरंतरता तब भी नहीं टूटती, जब वे माध्यम बदलकर टेलीविजन में कार्यक्रम करते हैं। दूरदर्शन जैसे सरकारी प्लेटफॉर्म पर होने और सेंसर से बंधे होने के बावजूद ‘आजतक’ की छवि कभी सरकारी या कांग्रेसी या जनता दली कार्यक्रम के रूप में नहीं बनी, तो इसका श्रेय एसपी को ही जाता है, जो अक्सर उस व्यक्ति और पत्रकार के रूप में सामने आते हैं जो बेलौस अंदाज में जाहिर कर देता है- जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ। दूरदर्शन पर सभी बाहरी कार्यक्रमों की अनिवार्य स्क्रीनिंग और जरूरत पड़ने पर सेंसरिंग भी होती थी। मगर एसपी आधे घंटे के ‘आजतक’ कार्यक्रम के टेप प्रसारण से पहले स्वीकृति के लिए इतनी देर से दूरदर्शन भेजते थे कि उसे सेंसर करना संभव नहीं हो पाता था। ऐसा करने में जोखिम था। समय पर टेप न भेजने पर दूरदर्शन के अधिकारी कभी भी कार्यक्रम प्रसारित न करने का निर्णय ले सकते थे। लेकिन जोखिम उठाने की वजह से ही तो एसपी, एसपी थे। पत्रकारिता की परंपरागत छवि के खंडित होने के दौर में एसपी एक ऐसे पत्रकार के रूप में याद किए जाएंगे जिन्होंने ‘ज्यों की त्यों चदरिया धर देने’ के सबसे जरूरी लेकिन कठिन पत्रकारीय कर्तव्य को लगातार निभाया।

सुलझे हुए, विचारवान, लोकप्रिय पत्रकार होने और अनेक समाचार संस्थानों के बड़े बैनरों का रुतबा रखने के बावजूद पुराने लोग उन्हें भूलने लगे हैं और नई पीढ़ी के लोगों ने एसपी का नाम भी नहीं सुना है, उनके लिखे को पढ़ना-जानना तो दूर की बात है। पत्रकारिता के छात्र तक उनके लेखन से वाकिफ नहीं। इसका एक बड़ा कारण उनका निर्गुट रहना है। प्रभु-वर्ग के साथ उनकी निर्गुटता सिर्फ व्यक्तियों के ही नहीं बल्कि विचारधाराओं के स्तर पर भी रही है। हालांकि उन्होंने पिछड़ों, कमजोरों की तरफदारी हमेशा की और उनके नजरिए से देश-समाज को देखने और दिखाने की कोशिश की। इस सिलसिले में वे ऐसे किसी गुट के हित-साधक नहीं हो पाए जो उनके जन्मदिन के जलसे मनाता, उनका गुणगान करता और उनके लेखन का व्यवस्थित ढंग से प्रचार-प्रसार करता। इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि उनके लेखन को जाना जाए ताकि उसे और आगे बढ़ाया जा सके।

एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह को गए लंबा वक्त गुजर गया है। उनकी बरसी मुझे अपने करीबियों से जुड़ी तारीखों की तरह हमेशा याद रहती है। हमेशा लगता रहा कि उनके लेखन कार्य को समेट कर एक जगह संजोने और नए पत्रकारों के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य अब तक नहीं हो पाया है। काफी समय तक तो यह उम्मीद रही कि इस मामले में ज्यादा समृद्ध और समर्थ लोग यह कार्य कर रहे हैं। लेकिन इतने समय बाद भी जब कुछ सामने नहीं आया तो जोश में आकर मैंने ऐलान कर दिया कि मैं कर सकती हूं यह काम, और करूंगी। यह थी शुरुआत एक औचक लेकिन दृढ़ फैसले के रूप में। तत्काल ही योजना बननी शुरू हो गई कि एसपी की प्रकाशित सामग्री कहां-कहां से और कैसे इकट्ठी की जाएगी।

सबसे पहले, स्वाभाविक ही था कि नभाटा (नवभारत टाइम्स) का ख्याल आया। टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ में सामाजिक पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान कई बार नभाटा जाते थे, प्रशिक्षु के तौर पर वहां चुनाव डेस्क पर काम किया। हालांकि मैंने इंटर्नशिप ‘दिनमान टाइम्स’ में की थी, लेकिन नभाटा को रोज पढ़ना और उसकी मीमांसा करना हमारी रोज की पढ़ाई का हिस्सा था। और वहीं के वरिष्ठजन हमें पढ़ाने-सिखाने आते थे। इसीलिए आज भी वह ‘अपना घर’, सहज पहुंच वाला दफ्तर लगता है। वहां लाइब्रेरी में फोन किया तो पता चला कि नभाटा की सभी पुरानी फाइलों की माइक्रोफिल्मिंग हो गई है। उनमें से एसपी के लेख ढूंढना खासा मुश्किल होता, क्योंकि तारीख और पेज नंबर बताने पर ही वे लेखों के प्रिंट-आउट दे पाते, और उन तारीखों को जानने का मेरे पास कोई जरिया नहीं था। उन्हींने सुझाया कि दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग (पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने) शाखा में नभाटा की फाइलें मिल जाएंगी। वहां अखबारों को पन्ना-दर-पन्ना अपनी नजरों से स्कैन करना संभव था। साथ ही पता चला कि साप्ताहिक छुट्टी के दिनों- शनिवार, रविवार को भी यह लाइब्रेरी खुली रहती है, पूरे समय के लिए यानी सुबह साढ़े आठ बजे से शाम साढ़े सात तक। और क्या चाहिए था! तब अपरान्ह के चार बज रहे थे। मैं तत्काल निकल पड़ी दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के लिए। वहां नभाटा की फाइलें बड़ी सहजता से देखने को मिल गईं। दो-दो महीनों के अखबारों को एक साथ मोटे गत्तों में बाइंड किया गया था। उन धूल खाई बड़ी-बड़ी फाइलों को उठाना-रखना मेहनत का काम था।

एक मुश्किल यह थी कि उन बड़ी-बड़ी फाइलों के चुने हुए पेजों के लेख वाले हिस्सों की फोटोकॉपी कैसे हो। फिर एक कर्मचारी ने सुझाया कि डिजिटल कैमरे से तसवीर लेकर उनका प्रिंटआउट लिया जा सकता है, कई लोग ऐसा करते हैं। फिर तो सब आसान हो गया। उस दिन जनवरी 1989 से दिसंबर 1991 तक की फाइलें देख डालीं और उनमें छपे एसपी के संपादकीय लेखों के शीर्षकों की तारीखवार फेहरिस्त बना ली। उन पुराने अखबारों से इतने साल बाद दोबारा गुजरना भी एक अनुभव था। उस समय के विषय, विज्ञापन, पेज लेआउट, अपने साथियों और परिचितों के, जाने-माने व्यक्तियों के लेख-खबरें देख-पढ़ कर मैं बार-बार चिहुंक रही थी और उन परिस्थितियों को याद करती जा रही थी। पर रुक कर आनंद लेने का समय नहीं था। अगले दिन रविवार को अपने डिजिटल कैमरे के साथ मैं सुबह ही बड़े उत्साह से वहां पहुंची। जूतों में जैसे स्प्रिंग लग गए थे। पिछले दिन के सूचीबद्ध किए लेखों के लिए मोटी फाइलों को फिर निकालकर चित्र लेने में कतई देर नहीं लगी। आगे की फाइलें भी देख डालीं। अगले सप्ताहांत में ‘अमर उजाला’ के मेरठ दफ्तर की लाइब्रेरी में भी इस सरल डिजिटल तकनीक ने भरपूर मदद की। लेकिन इससे ज्यादा और पहले मदद की मित्र, मेरठ के वरिष्ठ पत्रकार, फोटोजर्नलिस्ट हरिशंकर जोशी ने। मेरठ पहुंचने के पहले ही उन्होंने वहां लाइब्रेरी के इस्तेमाल की सारी व्यवस्था कर दी थी।

इस बीच कुछ मित्रों से भी इस मामले पर चर्चा की और एस पी के लेख दूसरे पत्र-पत्रिकाओं में मिलने की संभावनाएं तलाशीं। ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ‘हस्तक्षेप’ परिशिष्ट में उनके कुछ लेखों और साक्षात्कारों के प्रकाशन का अंदाजा था। इसके लिए वहां सहायक संपादक और ‘हस्तक्षेप’ के प्रभारी दिलीप चौबे से फोन पर बात की तो उन्होंने फौरन मेरे लिए वह सामग्री फोटोकॉपी करके उपलब्ध करा दी। बस, मुझे इतना करना था कि परिशिष्ट के पन्नों से छानकर उपयुक्त सामग्री अलग करनी थी।

उधर लघु पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ में रहे, जन संस्कृति मंच के सुधीर सुमन ने पत्रिका के कुछ पुराने अंकों में प्रकाशित एसपी के लेखों और साक्षात्कारों की फोटोकॉपी तत्परता से दे दी। इसी बीच मैंने दो काम और कर डाले। एक तो, जो सहज ही था- इंटरनेट पर हिंदी-अंग्रेजी में कई संबंधित ‘की वर्ड’ डालकर एसपी से जुड़ी सामग्री ढूंढने की कोशिश की। हिंदी में ‘मीडिया खबर’ वेबसाइट पर 2009 में एस पी की बरसी पर किए गए आयोजन की सामग्री में से एस पी के लिखे दो आलेख संग्रह में शामिल कर लिए। दूसरा, घर पर ही वीएचएस टेप में जाने कब से रखे हुए ‘आजतक’ के कुछ कार्यक्रमों/एपीसोड, को डिजिटल फॉर्म में कन्वर्ट करा लिया। इस टेप में वही दोनों महत्वपूर्ण कार्यक्रम थे जो मैं अपनी पुस्तक में शामिल करना चाहती थी। एक था- गणेश जी के ‘दूध पीने’ की घटना पर और दूसरा एसपी का आखिरी कार्यक्रम जो उपहार सिनेमा हॉल अग्निकांड को समर्पित था। इन दोनों कार्यक्रमों का ट्रांसक्रिप्शन करने में मुझे दो दिन लगे। जरा-जरा सी कोशिशों से रास्ते खुलते गए और सामग्री जुटती गई। कई और जगहों से सामग्री मिलने की उम्मीद थी, जिसे धीरे-धीरे एकत्र करने की कोशिशें लगातार चलती रहीं। साथ ही साथ लेखों के इन फोटो-चित्रों को टाइप करने का काम अशोक मेहता हारी-बीमारी के बाद भी तेजी से करते चले जा रहे थे।

1991 के उत्तरार्ध में एस पी ने ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने के बाद 1992 में ‘इंडिया टुडे’ में एक कॉलम ‘मतांतर’ नाम से शुरू किया, जो महत्वपूर्ण है। बाद में ‘आजतक’ की शुरुआत करने के बाद फिर से उन्होंने ‘इंडिया टुडे’ के लिए ‘विचारार्थ’ नाम से स्तंभ लिखा जिसका पहला आलेख 31 दिसंबर 1995 के अंक में ‘मेहमान का पन्ना’ नाम के स्तंभ में छपा था। ‘विचारार्थ’ 30 अप्रैल 1996 तक ही चल पाया। इन स्तंभों के लिए पत्रिका की फाइलों की खोज शुरू हुई। फेसबुक पर दीक्षा राजपूत ने सुझाया कि नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी, तीन मूर्ति भवन में ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) की फाइलें उपलब्ध हैं। वहां भी काम सहज ही हो गया। इसकी अस्थाई सदस्यता के लिए विभाग के वरिष्ठ राजेश झा का पत्र काम आया। इस काम में ‘इंडिया टुडे’ के लाइब्रेरियन हनुमंत सिंह का भी महत्वपूर्ण मार्गदर्शन मिला। डॉ. श्योराजसिंह ‘बेचैन’ की पुस्तक ‘दलित पत्रकारिता पर पत्रकार अंबेडकर का प्रभाव’ में प्रकाशित उनका एस पी के ‘आजतक’ में आने के बाद का साक्षात्कार और एस एस गौतम और ‘बेचैन’ के संपादन में छपी पुस्तक ‘मीडिया और दलित’ में एसपी का पुनर्प्रकाशित लेख ‘मीडिया हमेशा सवर्णों का पैरोकार रहा है’ भी घरेलू अभिलेखागार में मिल गए। और इसी खजाने में अप्रत्याशित रूप से मिले एसपी का एक लेख और ‘बदलती सामाजिक परिस्थितियों में पत्रकारिता की भूमिका’ पर हुई विचार गोष्ठी के लिए लिखा गया उनका पर्चा। ये दोनों ही, पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के जुलाई 2008 के अंक में प्रकाशित हुए थे। एक और अनायास मिला आलेख था- भारतीय जन संचार संस्थान के पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम (1996-97) के लिए विजय शर्मा का ‘आज तकः एक विश्लेषण’ नाम से शोध कार्य के लिए किया गया एस पी का इंटरव्यू। इसका श्रेय वहां पढ़ा रहे दिलीप मंडल की खोजी नजर को जाता है।

फिर याद आया कि एसपी ने 1984 में आई गौतम घोष की फिल्म ‘पार’ के संवाद भी लिखे थे। इस फिल्म का टाइटिल वाला हिस्सा तो यूट्यूब पर मिला लेकिन फिल्म किसी तरह नहीं मिल रही थी। यहां भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी और फिलहाल पूना के फिल्म एंड टीवी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में रजिस्ट्रार प्रकाश मकदुम ने सहयोग किया और फिल्म के संवाद तो नहीं लेकिन इसकी डीवीडी उपलब्ध करा दी, जिसके कुछ संवाद-सघन हिस्सों का ट्रांसक्रिप्शन करके इस पुस्तक में शामिल कर लिया। पूरी फिल्म के संवाद लेना कठिन था और अव्यावहारिक भी।

इतने पर लगा कि एसपी का ज्यादातर लेखन मिल गया है। सारा नहीं, तो कम से कम इतना तो है कि उस समय के ज्यादातर महत्वपूर्ण विषयों पर उनके विचार पाठक को पता लग सकें। लगा कि उनके लेखन को इकट्ठा पुस्तक रूप में लाने के काम का एक बड़ा हिस्सा पूरा हो गया।

जारी, अपनी बात भाग-2

पत्रकारिता का महानायकः सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन पुस्तक से

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