कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

सामाजिक न्याय पर सर्वसम्मति संभव है

आरक्षण विरोधी आंदोलन के अब करीब दो महीने पूरे होने को आ रहे हैं। एक अहिंसक और काफी हद तक लोकतांत्रिक शुरुआत के बाद यह आंदोलन उत्तर भारत के प्रमुख शहरों में हिंसक, युवा और छात्र वर्ग में आत्मघाती तथा राजनीतिक क्षेत्र में विस्फोटक मोड़ लेता हुआ एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा है जहां आंदोलनकारियों के अपने अलग-अलग उद्देश्य और उनके वास्तविक चेहरे स्पष्ट रूप से सामने आ गए हैं।

एक तरफ आंदोलन की वह मुख्यधारा है जिसका सूत्रपात स्कूल-कालेजों के छात्र शहरी युवा तथा मूल रूप से पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवानों ने जुलूस, धरनों तथा रैलियों के रूप में प्रारंभ किया था। वह अब आत्मदाह तथा आत्महत्या जैसे विकृत रूप में सामने आ रही है। देश के करोड़ों युवाओं के मन में स्वाभाविक रूप से घोर असंतोष है और कुंठा व निराशा की यह भावना मंडल आयोग की घोषणाओं को लागू करने के सरकारी निर्णय से अचानक नहीं पैदा हुई है। असंतोष के इस संचित बारूद में मंडल आयोग ने पलीता लगाने का काम जरूर किया है। असंतोष और निराशा के कारण भी हैं। विकास तथा प्रगति की भ्रामक अवधारणाओं और योजनाओं की विफलता ने आज एक ऐसा समाज तैयार किया है जहां मध्य वर्ग गांवों से शहरों की ओर अंधाधुंध भाग रहा है। लोग अपने पुश्तैनी कामधंधों तथा अपनी जमीन से कट कर सरकारी नौकरी की मृगमरीचिका की तलाश में ऐसी अधकचरी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं जो न केवल उन्हें अपने पारंपरिक हुनर से नफरत सिखाती है बल्कि उन्हें इस योग्य भी नहीं रहने देती कि करोड़ों बेरोजगारों के हुजूम में शामिल हो कर अपने लिए एक सरकारी नौकरी झपट सकें। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में पढ़े-लिखे चार करोड़ से ज्यादा बेरोजगार काम दिलाऊ दफ्तर के रजिस्टर में दर्ज पड़े हैं। सरकार यदि पूरी ईमानदारी से प्रयास करे तो साल में 40 हजार से ज्यादा नौकरियां नहीं दे सकती। ऐसी स्थिति में अंधेरी गुफाओं में भटकते युवाओं को यदि यह लगता है कि कई दिनों की भूख के बाद मिली सूखी रोटी में भी कोई नाजायज़ ढंग से हिस्सा बंटाना चाहता है तो इस तरह की सोच के लिए उन्हें बहुत ज्यादा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ऐसे में यदि उत्तेजित होकर मंडल आयोग के विरुद्ध कोई आंदोलन छेड़ देता है तो उसे बहुत अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में यदि वे यह भी भूल जाते हैं कि समाज के प्रति उनका भी एक दायित्व है और आर्थिक-सामाजिक न्याय तथा गैर बराबरी को दूर करने के लिए उठाए गए कदम का यदि वे विरोध करते हैं तो उनका दोष कम है और उन लोगों का ज्यादा, जो एक तरफ तो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए इस विषम सामाजिक व्यवस्था को जारी रखने में सहायक होते हैं और दूसरे इन दिशाहीन युवाओं को उस अंधेरी सुरंग में और आगे बढ़ाकर उनके आक्रोश की ऊर्जा को विध्वंस की आग में बदलने का षड्यंत्र रचते रहते हैं। आज यदि युवक आत्मदाह और आत्महत्या जैसे असंतोष और आंदोलन के विकृत साधनों का सहारा ले रहे हैं तो इसका मुख्य कारण व्यवस्था की विफलता के कारण उपजी निराशा और कुंठा है न कि मंडल आयोग की सिफारिशें। मंडल आयोग ने तो सिर्फ उत्प्रेरक का काम किया है।

इस मामले में प्रधानमंत्री सिर्फ मीडिया को जिम्मेदार ठहरा कर और यह कह कर बरी नहीं हो सकते कि प्रेस ने मंडल आयोग रिपोर्ट के सिर्फ एक पक्ष् को ही उभारा, इसलिए सामाजिक रूप से स्थिति विस्फोटक हो गई और यदि प्रेस ने संतुलित रवैया अपनाया होता तो जनभावना के इस कदर भड़कने का नजारा सामने नहीं आता। प्रेस के एक बहुत बड़े हिस्से की भूमिका निश्चित रूप से सराहनीय नहीं कही जा सकती, क्योंकि मीडिया ने न केवल आंदोलन के लिए युवाओं को उत्प्रेरित किया बल्कि आत्मदाह के मामले में बलिदान, आहुति या शहीद जैसे शब्दों का प्रयोग कर इस कुकृत्य को इतना महिमा मंडित किया कि पहले से ही कुंठित और निराश युवकों को यह देश और समाज के लिए सचमुच बलिदान का प्रतीक लगने लगा। कुछ समाचार पत्रों का यह कर्म सती के महिमा मंडन जैसे कृत्य से कम जघन्य नहीं था। लेकिन यदि सरकार समय रहते चेत जाती और मंडल आयोग लागू की घोषणा के साथ युवकों के सामाजिक दायित्व और मंडल आयोग की सिफारिशों को आंशिक रूप से लागू करने की बात को समझा कर सामने रखती तो लोग इस तरह के आत्मघाती कदम कतई नहीं उठाते।

इस बात पर विवाद हो सकता है, पर यदि मंडल आयोग के प्रतिवेदन को लागू करने की घोषणा अचानक न की जाती और पहले से विचार-विमर्श करके माहौल बनाने का काम किया जाता तो इसे लागू करना नितांत असंभव कर्म होता। लेकिन सच यह भी है कि इसे लागू करने की घोषणा के बाद जिस व्यापक स्तर पर सरकार को जन शिक्षण का कार्यक्रम प्रारंभ करना चाहिए था, उसमें वह पूरी तरह से विफल रही। सरकारी घोषणा के महीने भर बाद तक लोगों को धीरे-धीरे छन-छन कर यह बात पता चलती रही कि मंडल आयोग की ढेर सरी सिफारिशों में से सरकार ने सिर्फ एक केंद्रीय सरकार की नौकरियों में पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की बात को ही माना है कि शिक्षण संस्थाओं में यह आरक्षण नहीं लागू होगा कि तरक्की में भी आरक्षण नहीं होगा आदि। जानकारी के अभाव में छात्र युवाओं का आंदोलन उग्र से उग्रतर होता रहा और सरकार इसे शांत करने के प्रशासनिक कर्म में भी विफल रही।

आंदोलन के उग्र होने की प्रतीक्षा में दूर बैठे तत्वों के लिए इस स्थिति में घुसपैठ करने का यह स्वर्ण अवसर था। कहीं व्यक्तिगत कारणों से रुष्ट सत्तापक्ष के राजनीतिज्ञ तो कहीं अवसर की तलाश में समाज विरोधी तत्व और सरकार की परेशानियों से लाभ उठाने के लिए सदा तत्पर विपक्षी राजनीतिक पार्टियों, सबके लिए यह आंदोलन अपने स्वार्थ साधन का हथियार मात्र बन कर रह गया। छात्र, युवा, बेरोजगार पीछे रह गए। सामने आ गए राजनीतिक नेता। सारी मांगें पीछे रह गईं, सिर्फ एक मांग ही बची कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दें। सड़कों पर आंदोलन कर रहे युवा छात्रों के निर्मल चेहरों की जगह मंजे हुए अपराधियों के चेहरे छा गए। कहीं छात्र स्वेच्छा से आत्मदाह कर रहे थे तो कहीं-कहीं उनकी इच्छा के विरुद्ध मानव दहन होने लगे। शराब की दुकानें लूटना, पुलिस की कनपटी पर रिवाल्वर रख कर गोली मारना और सारी-सारी रात लूटपाट का तांडव मचाना निश्चय ही छात्रों का काम नहीं हो सकता। वे सारे चेहरे अब सामने आ गए थे जिन्होंने सन 84 में लोगों को जिंदा जलाने का अभ्यास किया था या जिन्हें दहेज के लालच में अपनी निर्दोष बहुओं को जलाने में हिचक नहीं होती। इसके लिए सभी दोषी हैं। सामाजिक न्याय के प्रति हिंदू समाज की घोर असहिष्णुता, मीडिया और बौद्धिक वर्ग की गैर जिम्मेदार और खतरनाक भूमिका, लेकिन इनसे भी कहीं ज्यादा सरकार की असफलता प्रशासन के क्षेत्र में भी और जन शिक्षण के मामले में भी। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की घोषणा से लेकर आंदोलन के राजनीतिज्ञों और समाज विरोधियों के हाथ पहुंचने के बीच सरकार के पास पर्याप्त समय था। वह यदि चाहती तो युवाओं, छात्रों की आशंकाओं को दूर कर सकती थी। शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों के साथ मिल-बैठ कर एक सर्वसहमति का रास्ता निकाल सकती थी और बहुत थोड़ी सी कोशिश से यह धारणा भी दूर कर सकती थी कि इस कदम के पीछे सरकार की सामाजिक न्याय दिलाने की सदिच्छा नहीं, बल्कि राजनीतिक गोटी बिठाने की वासना है। कांग्रेस, भाजपा तथा वामदलों सहित सभी प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में इस बात पर सहमति तो पहले दिन से ही है कि पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिलना चाहिए। मतभेद सिर्फ इन मुद्दों पर है कि वर्ग निर्धारण का आधार क्या हो और कितना आरक्षण दिया जाए। थोड़ी सी चेष्टा में इस पर भी सर्वसम्मति हो सकती है। प्रश्न सामाजिक-आर्थिक न्याय का न्यूनतम समान स्तर दिलाने का है, मंडल आयोग की रिपोर्ट को शब्दशः लागू कराने का नहीं। यदि यह लक्ष्य आम सहमति से संभव है और मुख्य राजनीतिक दलों के बीच सह सहमति है भी तो एक सर्वसम्मत समाधान में बाधा कहां है।

20 अक्तूबर 1990 नवभारत टाइम्स

1 टिप्पणी:

अपनी प्रतिक्रिया यहां दर्ज करें।