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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

दलितों-वंचितों की राजनीतिः चेतावनी की घंटी

कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव में किसी भी दलित, महिला या आदिवासी के न चुने जाने से
उत्पन्न संकट ने इस वास्तविकता को गहरे रेखांकित किया है कि कांग्रेस की राजनीति का
सामाजिक आधार क्रान्तिकारी रूप से परिवर्तित हो चुका है, जबकि कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व
इस तथ्य से अनभिज्ञ बना रहना चाहता है। कांग्रेस अध्यक्ष की विशेष चिंता स्वाभाविक
है। दक्षिण भारतीय होने के नाते नरसिंह राव इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के साक्षी रहे हैं, इसलिए
वे इसे समझ भी पा रहे हैं, जबकि कांग्रेस का उत्तर भारतीय नेतृत्व अब भी अपनी पारम्परिक
राजनीति-शैली से चिपके रहना चाहता है।

यह संकट सिर्फ कांग्रेस का निजी राजनैतिक संकट नहीं है, यह संकट भारतीय राजनीति
में आ रहे आन्तरिक उफान का प्रतीक भी है। शायद ही कोई राजनैतिक दल इससे अछूता
बचा है। एक लोकतान्त्रिाक व्यवस्था में बहुसंख्य वर्ग को समुचित और व्यापक राजनैतिक
प्रतिनिधित्व कैसे मिले, यह प्रश्न अधिकांश राजनैतिक दलों के पिछड़े, दलित, आदिवासी
कार्यकर्ताओं को मथ रहा है। विभिन्न दलों में इस दर्द की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न रूप से
हो रही है। इस प्रक्रिया को यदि इस संदर्भ में देखा जाए तो भारतीय राजनीति के वर्तमान
संकट को शायद सही परिपे्रक्ष्य में देख पाना संभव हो।

भाजपा जैसा अनुशासित दल बिहार में टूट गया। ध्यान देने की बात है कि दल से
टूटकर अलग हुए अधिकांश कार्यकर्ता पिछड़े वर्ग के थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे घोर वामपंथी
विचारधारा वाले दल में टूट हुई। वहां भी टूटने वाले लोग पिछड़े वर्ग के ही थे। महाराष्ट्र
में शिवसेना जैसे अधिनायकवादी दल में भी टूट कुछ इसी प्रकार हुई। छगन भुजबल के नेतृत्व
में पिछड़े वर्ग के कार्यकर्ताओं का एक समूह शिवसेना से अलग हो गया और कांग्रेस में शामिल
हो गया।

जनता दल के विखंडन का पैटर्न थोड़ा अलग है। यहां हर विघटन के बाद अवर्णों का
वर्चस्थ थोड़ा और बढ़ रहा है। नेतृत्व हालांकि अब भी सवर्ण-बहुल है लेकिन अब वह शायद
प्रतीकात्मक ज्यादा रह गया है, वास्तविक कम। सभी राजनैतिक दलों के दलित-आदिवासी
सांसदों की इस मांग को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए कि कोई दलित ही इस बार भारत
का राष्ट्रपति बने। संस्कृति से जोड़ने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी में भी कल्याण
सिंह और उमा भारती जैसे नेताओं को ही क्यों लांछित होना पड़ता है? इस सचाई को भी
इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। मामला यहां भी व्यापक राजनैतिक प्रतिनिधित्व तथा अवर्णों
की प्रगति से उत्पन्न सवर्ण रोष का ही है लेकिन भाजपा चूंकि अभी तक इस कसौटी पर
कसे जाने की आदी नहीं है, इसलिए इस विषय को भविष्य के लिए सुरक्षित रखकर फिलहाल
कांगे्रस के वर्तमान संकट को समझने की चेष्टा से ही ढेर सारे अनसुलझे प्रश्नों का एक संबद्ध
उत्तर मिल सकता है।

यह सच है कि कांग्रेस अध्यक्ष की इस चिंता के पीछे मूल कारण राजनैतिक है, जो
सीधे कांग्रेस की शिखर राजनीति से जुड़ा हुआ है, वरना क्या कारण है कि राव ने चुनाव
हो जाने के बाद ही अपनी चिंता को अभिव्यक्ति देना उचित समझा। यह तो ब्लॉक स्तर
के प्रारम्भिक चुनाव से ही स्पष्ट होने लगा था कि कांग्रेसी नेतृत्व समाज के कमजोर वर्ग
के स्वार्थ की उपेक्षा कर रहा है। विभिन्न प्रदेश कांग्रेस कमेटियों तथा अखिल भारतीय कांग्रेस
कमेटी के सदस्यों की सूची देख डालिए। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि कम-से-कम हिंदी
भारत का कांग्रेस नेतृत्व इस बात की कतई चिंता नहीं कर रहा था कि समाज के विभिन्न
वर्गों के लोगों को कैसे हर स्तर पर समुचित प्रतिनिधित्व मिले। उत्तर प्रदेश में दलित और
आदिवासी सम्पूर्ण आबादी के करीब 24 प्रतिशत हैं और पिछड़े 60 प्रतिशत के करीब, लेकिन
उत्तर प्रदेश की सूची पर गौर करें तो पता चलेगा कि इस वर्ग का प्रतिनिधित्व इसमें दस
प्रतिशत भी नहीं है।

यही हालत बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा सहित सम्पूर्ण हिंदी भारत की है।
यह अचानक नहीं हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष निश्चित ही इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं होंगे।
इसलिए उचित तो यह होता कि चुनाव प्रक्रिया से अपने आपको निरपेक्ष रखते हुए भी राव
कम-से-कम इस तथ्य की ओर चुनाव से पहले ही लोगों का ध्यान आकृष्ट करते कि कांग्रेस
की मतदाता सूची विकृत है और इसमें समाज के सभी वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं
हुआ है। जिस क्षत्राप को जहां मौका मिला है, वहीं उसने अपनी स्थिति मजबूत करने की
कोशिश की है। इस बात से बिल्कुल बेखबर कि उसका यह कर्म कांग्रेस के वास्तविक सामाजिक
आधार के हितों के सर्वथा विपरीत जा रहा है। समाज के वंचित वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व
देने के लिए राव यदि चुनाव से ऐन पहले एक आधिकारिक सूची प्रसारित करते, जिसमें
केवल दलित, महिला, आदिवासी सहित समाज के वंचित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की अपील
होती, तो उनकी आज की चिंता ज्यादा वास्तविक और सार्थक दिखती। चुनाव प्रक्रिया में
अनावश्यक दखलअंदाजी का आरोप भी उन पर नहीं लगता, न ही उनकी निरपेक्षता पर
कोई प्रश्नचिद्द लगता। इसलिए आज जब दबी जबान यह कहा जा रहा है कि राव अपने
इस कदम से क्षत्रापों की बढ़ती शक्ति का मुकाबला करना चाहते हैं, तो इसकी सचाई से
इनकार भी नहीं किया जा सकता। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि राव ने वर्तमान
भारतीय राजनीति में कमजोर वर्ग की आकांक्षा को भी सही समझा है। यह बात दीगर है
कि अपनी इस समझ का वे अपने राजनैतिक हित में भी इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए जब
वे कह रहे होते हैं कि कांग्रेस जैसी संस्था भी यदि दलित, आदिवासी, महिला जैसे वंचित
वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं दे सकती, तो फिर वे और कहां से उम्मीद करें, तब वे
भारतीय राजनीति के वर्तमान यथार्थ से भी साक्षात्कार करा रहे होते हैं, शिखर राजनीति
की उनकी अपनी विवशताएं चाहे कुछ भी क्यों न हों।

इसीलिए इस मसले को दलित राष्ट्रपति के सवाल या भाजपा-शिवसेना जैसी पार्टियों
से पिछड़ों-दलितों के मोहभंग के प्रश्न से जोड़कर देखना भी सार्थक होगा। उसे इस संदर्भ
में भी देखना चाहिए कि आरक्षण का बंधन ढीला करते ही समाज के वंचित तबकों को वह
न्यूनतम प्रतिनिधित्व भी क्यों नहीं मिल पाता, जितना उन्हें आरक्षण दिला देता है। इसलिए
ये प्रश्न बेमानी हैं कि राव शिखर राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करने या सिर्फ कमजोर
वर्ग के बीच लोकप्रिय होने के लिए इस सवाल को छेड़ रहे हैं। इस बात का भी कोई अर्थ
नहीं कि जो आज दलित राष्ट्रपति चुनने की बात कर रहे हैं, उनका उद्देश्य दलित राष्ट्रपति
प्राप्त करना नहीं बल्कि इस मुद्दे का राजनीतिक शोषण करना तथा दलित समस्या को विकृत
करने की कोशिश करना है।

पर यह घटनाचक्र यह सिद्ध करता है कि जैसे-जैसे भारत में लोकतंत्रा की जडें मजबूत
होंगी, समाज के वंचित लेकिन बहुसंख्य वर्ग को ईंधन बनाकर उसकी आंच पर सवर्ण राजनीति
की रोटी सेंकना शायद अब लंबे अरसे तक संभव न रह पाए। यदि लोकतांत्रिाक व्यवस्था
कायम रहती है, तो यह वर्ग उसमें अपना समुचित हक भी लेकर रहेगा। चेतावनी की यह
घंटी हर राजनीतिक दल के अंदर घनघना रही है। जो सुन पा रहे हैं, वे वास्तविक सत्ता में
बहुसंख्य वर्ग की हिस्सेदारी के रास्ते में रुकावट नहीं बनेंगे, जो नहीं सुन पा रहे हैं या
सुनकर भी अनसुनी कर रहे हैं, उनकी राजनीतिक मंजिल सिर्फ इतिहास की कचरा पेटी ही
हो सकती है।

15 मई 1992, मतांतर, इंडिया टुडे

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