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बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

सामाजिक विषमता की खाई पाटनी है

मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने के सरकारी निर्णय के विरोध में तीन तर्क काफी महत्त्वपूर्ण ढंग से उभरकर सामने आए हैं। पहला, यह निर्णय संविधान प्रदत समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है; दूसरा, संविधान शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को एक सीमित समय के लिए आरक्षण की बात करता है, पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की बात नहीं कही गई है; तीसरा, यदि नैसर्गिक प्रतिभा और योग्यता को दरकिनार कर, पिछड़ेपन के आधार पर सरकारी नौकरियों में नियुक्ति होती रही, तो हमारी कार्यपालिका के उच्च स्तर का क्या होगा?

सबसे पहले संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के प्रश्न को लें। यह सही है कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 29 इस बात की गारंटी देते है कि किसी भी प्रकार की सरकारी नौकरी या शिक्षण संस्थान में प्रवेश के मामले में धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, भाषा या जन्म-स्थान के आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं किया जाएगा। साथ ही, अनुच्छेद 16 (4) यह गारंटी भी देता है कि राज्य पिछड़े हुए नागरिकों के पक्ष में, यदि राज्य की मान्यता है कि उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, तो पदों व नियुक्तियों के आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है। आज जो लोग विधि के समक्ष समता या लोक नियोजन में अवसर की समता की संविधानिक गारंटी की बात उठाकर आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, वे एक तरफ तो अनुच्छेद 16 (4) को जान-बूझकर अनदेखा करने की कोशिश कर रहे हैं, दूसरे, समता के अधिकार की भ्रामक व्यवस्था कर ऐसा मकड़जाल फैला रहे हैं, जिसमें वास्तविकता ओझल हो जाए। यह सवाल बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल के समक्ष भी उठाया गया था, जिसका समुचित जवाब उन्होंने यों दिया था कि समता के समान अवसर के मौलिक अधिकार की बात उठाते हुए हम यह भूल जाते हैं कि समाज का यह पिछड़ा वर्ग सैकड़ों सालों से सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक तथा आर्थिक वंचना का शिकार है, इसलिए इस वर्ग की समस्याएं भी विशिष्ट हैं। ऊपरी तौर पर समता का सिद्धांत बहुत ही उचित और न्यायसंगत लगता है, लेकिन इसमें एक बड़ी फांस है। सामाजिक न्याय की यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उक्ति है कि समानता सिर्फ समान लोगों के बीच ही हो सकती है।

असमान लोगों के बीच समानता की बात करना वस्तुतः असमानता को बढ़ावा देने का ही एक तरीका है। जब हम कमजोर और मजबूत के बीच समानता के सिद्धांत के आधार पर प्रतियोगिता की छूट देते हैं, तब हमें पता होता है कि कमजोर इसमें निश्चित हारेगा। वस्तुतः यह प्रतियोगिता नहीं, सिर्फ उसका नाटक रह जाता है। इस तरह की बात सामाजिक न्याय कर समाज में हम परोक्ष रूप से जंगल के उस न्याय की ताईद कर रहे होते हैं, जहां बलिष्ठतम को ही सारे अधिकार मिले होते हैं। जो विद्वान आज अचानक समता के अधिकार की मूल भावना की बात कर रहे हैं, वे इस तथ्य से परिचित नहीं, ऐसा नहीं है, यह सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि इस सामाजिक असमानता की धारा को सदियों तक निर्बाध चलाने के लिए उन्हें कुछ नैतिक तथा तथाकथित विधिसम्मत तर्क मिल सकें। जबकि वास्तविकता यह है कि न तो यह आरक्षण संविधान विरुद्ध है, न ही संविधान की मूल भावना के विपरीत जाता है।

आरक्षण विरोधियों का दूसरा तर्क है कि चलिए, यह मान लिया जाए कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए इस प्रकार के आरक्षण की बात कही गई है, पर पिछड़ी जातियों के आरक्षण की बात तो कहीं नहीं है, इसलिए जाति के आधार पर किया गया आरक्षण संविधान सम्मत नहीं हो सकता। चूंकि संविधान ‘पिछड़े वर्ग’ के आरक्षण की बात करता है, इसलिए यह तर्क आर्थिक पिछड़ेपन को ही आरक्षण का एक मात्रा आधार बनाने के बिंदु पर पहुंचकर समाप्त होता है। इस प्रक्रिया में ढेर सारे ऐसे मुद्दे अनावश्यक रूप से घसीट लिए जाते हैं ताकि तर्क धुंधलाएं और बहस का रुख गलत दिशा की ओर मुड़ जाए। इस दौरान अपनी सहूलियत को ध्यान में रखते हुए हम यह भी भूल जाते हैं कि इसी संविधान के तहत अनुसूचित जातियां और जन जातियां आरक्षण पा रही हैं। जाहिर है कि इन्हें आरक्षण प्रदान करते समय भी, उसका आधार ढूँढा गया था और जाति के अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा मजबूत आधार नहीं मिला, जिससे हिन्दू समाज के सर्वाधिक पिछड़े वर्ग की पहचान की जा सके।

यह ध्यान देने की बात है कि मंडल आयोग या अन्य दस राज्यों में लागू विभिन्न आयोगों ने शैक्षिक और सामाजिक पिछड़े वर्ग को रेखांकित करने के लिए ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ की सूची बनाई है। चूंकि पिछड़ी जातियां पहले ही अनुसूचित जातियों के रूप में चिद्दित की जा चुकी हैं, इसलिए इन ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ की सूची, ताकि इन्हें आरक्षण देकर इनका सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन दूर किया जा सके। इसलिए यह कहना कि संविधान वर्ग की बात करता है, जाति की नहीं, यह सिर्फ अर्धसत्य है क्योंकि यही संविधान इससे पहले भी जाति को ही वर्ग का आधार मान चुका है। रही बात आर्थिक आधार पर आरक्षण की, तो यह तो आरक्षण और संविधान, दोनों की मूल भावना के विरुद्ध जाने वाली बात है। आरक्षण की आवश्यकता इसलिए नहीं महसूस की गई कि इससे समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता दूर होगी, न ही आरक्षण का प्रावधान करने वालों ने कभी यह सोचा था कि यह कोई रोजगार दिलाऊ योजना होगी, आरक्षण की आवश्यकता समाज में व्याप्त शैक्षिक और सामाजिक गैर बराबरी दूर करने के लिए महसूस की गई थी, इसलिए इस आधार से हटकर किसी नए आधार पर आरक्षण की बात करना संविधान की मूल भावना के विपरीत होगा और फिलहाल यह विचारणीय भी नहीं है।

आरक्षण के विरोध का तीसरा और सबसे मजबूत तर्क योग्यता दिया जाता है। जो आरक्षण विरोधी यह स्वीकार करते हैं कि हमारे समाज में असमानता है और यह तत्काल संभव नहीं कि पिछड़े इतनी बड़ी खाई को लाँघकर अगड़ों की बराबरी कर पाएं, इसलिए निश्चय ही इन्हें कुछ विशेष प्रोत्साहन मिलना चाहिए मसलन, मुफ्त और व्यापक शिक्षा तथा और सारी छूट, जिनसे ये समाज में आगे आ सकें, लेकिन इसका अर्थ तो यह नहीं हुआ कि सवर्ण छात्रा 75 प्रतिशत अंक पाकर भी मेडिकल, इंजीनियरिंग या अन्य तकनीकी शिक्षा में दाखिला न पा सकें और पिछड़े या दलित 40 या 45 प्रतिशत अंकों के सहारे ही इन विशिष्ट पाठ्यक्रमों में दाखिल हो जाएं। ऐसे में योग्यता का क्या अर्थ रह जाएगा और क्या इसे उचित कहा जाएगा कि अयोग्य लोग ऊंची-ऊंची डिग्रियां लेकर बड़े पदों पर पहुंचें और योग्य लोग सिर्फ इसलिए भटकते रहें, क्योंकि उनका जन्म सवर्ण कोख से हुआ है।

निश्चय ही बहुत जोरदार तर्क है और आज हमारे शहरी मध्य और उच्च मध्य वर्ग के सवर्ण अभिभावकों को सबसे ज्यादा विचलित करने वाला भी है। लेकिन, जैसा कि बी.पी. मंडल ने सोदाहरण अपनी रिपोर्ट में साबित किया है कि ऊपर से यह बात चाहे जितनी शक्तिशाली लगे, लेकिन यदि थोड़ी गहराई में उतरें तो पता चलेगा कि यह विचार कितने बड़े तर्क दोष से ग्रस्त है।

श्री मंडल ने मोहन और लल्लू नामक दो बालकों के उदाहरण से इस बात को सिद्ध किया है कि श्रेष्ठ समाज में योग्यता जन्मना दान तथा परिवेशगत विशेषाधिकार से प्राप्त होती है। मोहन के मां-बाप मध्यवर्गीय शिक्षित लोग हैं। वह शहर के एक बड़े स्कूल में पढ़ता है, जहां पढ़ने के अलावा वह स्कूल की ढेर सारी अन्य गतिविधियों में भाग लेता है। घर में उसके लिए एक अलग कमरा है और उसके अध्ययन में उसके मां-बाप, दोनों सहायता करते है। घर में रेडियो और टेलीविजन है। पिता ढेर सारे अखबार और पत्र-पत्रिाकाएं लाते है। मोहन क्या पढ़ेगा, कौन-सा कोर्स करेगा, इस बाबत उसके अभिभावक हमेशा उससे चर्चा करते हैं और निर्देश देते है। मोहन के मित्रा भी उस वर्ग के हैं और उसे यह भी पता है कि भविष्य में उसे कहां पहुंचना है। जबकि लल्लू गाँव में रहता है। पिछड़ी जाति के उसके मां-बाप की गाँव में सामाजिक स्थिति निम्न है। गाँव में उसके चार एकड़ खेत हैं, जिसके उपार्जन से उसका आठ सदस्यीय परिवार दो कमरों के कच्चे मकान में जीवन-यापन करता है। किसी तरह वह गाँव से प्राइमरी शिक्षा पूरी करके पास के कस्बे से हाईस्कूल करता है और उच्च शिक्षा के लिए तहसील मुख्यालय में अपने दूर के चाचा के घर रहकर पढ़ाई करता है। परिवार, अभिभावक या अपने मित्रों से उसके कैरियर के बारे में कभी कोई बात नहीं होती, न ही कोई सहायता मिलती है। किन्हीं सांस्कृतिक गतिविधियों में वह भाग नहीं ले पाता और किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी कर लेता है। ग्रामीण वातावरण में पलने-बढ़ने के कारण उसके स्वभाव में एक अनगढ़ता है, उसका उच्चारण भ्रष्ट, व्यवहार अकुशल और आत्मविश्वास की उसमें थोड़ी कमी है।

मान लें कि जन्म के समय दोनों की बुद्धिमत्ता का स्तर यदि समान था, तो भी, वातावरण, परिवार, रहन-सहन तथा परिवेश के कारण किसी भी प्रतियोगिता में मोहन लल्लू से मीलों आगे रहेगा। यदि लल्लू का जानकारी कोश मोहन से बहुत ज्यादा भी रहा होता, तो भी मोहन अब किसी भी प्रतियोगिता में अपनी ‘योग्यता’ के आधार पर लल्लू से बहुत काबिल सिद्ध होगा। इसलिए सिर्फ योग्यता की बात करना या योग्य बनाने के लिए सही शिक्षा और अवसर की बात करना एक तरह से इस सामाजिक विषमता का बढ़ाने में ही मदद करेगा, क्योंकि आज यदि लल्लू जैसे लोगों को योग्य बनाने के लिए ईमानदारी से और ठोस प्रयास प्रारंभ भी किए जाएं, तो जब तक लल्लू मोहन के ‘स्तर’ पर पहुंचेगा, मोहन योग्य से योग्यतर और योग्यतम तक पहुंच चुका होगा। इसलिए फिलहाल आवश्यकता यह है कि इस तथाकथित योग्यता के तर्क को थोड़ी देर के लिए परे रखकर इस समस्या पर नए सिर से विचार किया जाए। मंडल आयोग को लागू करना इस सामाजिक विषमता की खाई को पाटने का एक तरीका हो सकता है, यदि इसकी भावना को समझकर इसे ईमानदारी से लागू होने दिया जाए।

28 अगस्त 1990, नवभारत टाइम्स

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