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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

वि.प्र. को कसौटी पर खरा उतरना होगा

मोहलत शब्द इन दिनों चर्चा में आम है। खासकर वे लोग, जो मानते हैं कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का सरकारी फैसला शुद्ध राजनीतिक उद्देश्य से किया गया था, इस बात पर बार-बार बल दे रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय के आदेश से आरक्षण विरोधी आंदोलन की उग्रता और तीव्रता में जो कमी आई है सरकार इस वास्तविकता को देखे, समझे और इस अवसर का लाभ उठाते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फैसले को वापस लेने का व्यावहारिक कदम उठाए। यह समाज के उस प्रभावशाली तबके का तर्क है जो यह भी मानता रहा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह का यह फैसला मूलतः देवीलाल की किसान रैली की हवा निकालने के एक तुच्छ प्रयास के रूप में उठाया गया एक ऐसा बगैर सोचा समझा हड़बड़ी में उठाया गया कदम था, जिसने देश को जातियुद्ध के भयानक दावानल में ठेल दिया। यह वह वर्ग है जो यह भी मानता है कि इसका दूरगामी उद्देश्य पिछड़े और दलित तबके को सामाजिक न्याय दिलाने का कतई नहीं है, उसका वास्तविक उद्देश्य तो सिर्फ पिछड़ों के बीच अपने वोट बैंक का आधार मजबूत करना है, इसके लिए चाहे कितनी भी मासूम जानें बलि क्यों न चढ़ जाएं, हृदयहीन प्रधानमंत्री को इसकी कोई चिंता नहीं है। मूलतः आरक्षण की परिकल्पना का विरोधी यह वर्ग जब उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई इस मोहलत का जिक्र करता है, तो एक तरफ जहां इसमें प्रच्छन्न धमकी होती है कि देखिए, यदि अब भी आप अपनी इस गंदी राजनीति से बाज नहीं आए तो देश में हिंसा का एक ज्यादा भयानक दौर प्रारंभ हो सकता है, जिसके जिम्मेवार आप होंगे और यह कहते हुए कहीं न कहीं कनखी मार कर यह भी साफ कर रहा होता है कि इस तरह की आग लगाने और बुझाने में इस वर्ग की भूमिका को भी कृपया आप समझने का प्रयास करें।

यह सच है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह और उनकी सरकार को उच्चतम न्यायालय की कृपा से एक बड़ी मोहलत मिली है वरना समाज में भावनाओं का अतिरेक उस सीमा पर पहुंचा हुआ था, जहां सच तो क्या कुछ भी सुनने के लिए लोग तैयार नहीं दीख रहे थे अब मौका है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह अपनी स्थिति स्पष्ट करें कि क्या सचमुच उनका उद्देश्य सिर्फ यही था कि वेदेवीलाल की किसान रैली की हवा निकाल दें। यदि हां, तो अब भी देर नहीं हुई है। कृपया मंडल आयोग तत्काल वापस कर लें। या यदि उनका उद्देश्य सिर्फ यही था कि इसे लागू करने से उनको वोट बैंक का नया आधार मिलेगा तो उनकी राजनीतिक सूझबूझ पर तरस खाना आना चाहिए क्योंकि पिछड़ी जातियों का वोट बैंक तो इस सरकार के साथ था ही और न ही दूर दूर तक इस बात की कहीं आशंका थी कि यह आधार खिसक कर कहीं और जाने वाला है। यह कहा जा सकता है कि यह वोट बैंक विश्वनाथ प्रताप का अपना नहीं था। इस आधार को बनाने में कहीं लालू-मुलायम, तो कहीं शरद-रामविलास जैसे क्षत्रपों का उन्हें सहारा लेना पड़ता था, इसलिए अपना निजी ठोस आधार बनाने के चक्कर में विश्वनाथ प्रताप ने अपने जनमोर्चा आधार की सारी जमा पूंजी दांव पर लगा कर इस पिछड़े वोट बैंक के व्यापक जनाधार को जीतने का जुआ खेला। यदि सचमुच विश्वनाथ प्रताप की इतनी सीमित महत्वाकांक्षा थी, जिसके लिए उन्होंने छात्र, शिक्षक, वकील, बुद्धिजीवी जैसे मुखर समर्थक वर्ग को तथाकथित जाति युद्ध में झांक दिया, तो उनके राजनीतिक ज्ञान और निर्वाचनी समीकरण का भगवान ही मालिक है। यदि सचमुच ऐसा ही है तो कृपया मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के अपने फैसले को तत्काल निरस्त करने के आदेश जारी कर दें। अभी बहुत देर नहीं हुई है। यदि महत्वाकांक्षाओं के अपने इस नितांत निजी समुद्र में ही वे डूब उतरा रहे हैं, तो सचमुच उनके लिए मोहलत शब्द तिनके का सहारा साबित हो सकता है उसे छोड़े नहीं, सामाजिक न्याय भले ही पीछे पड़ जाए।

लेकिन यदि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा इन टुच्चे स्वार्थों के लिए नहीं बल्कि जैसा कि वे कह रहे हैं पिछड़े वर्गों में तेजी से बढ़ रहे आक्रोश और शहर तथा अभिजात्य वर्ग विरोधी भावना को रोकने के लिए यह समाज में व्याप्त उग्रविभाजन की भावना को कम करने के लिए या पिछड़े वर्ग को राज्य संचालन में उनकी उचित निर्णायक भूमिका दिलाने के लिए या सिर्फ सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने की दिशा में उठाए गए पहले कदम के रूप में यह कार्रवाई की गई है, तो प्रधानमंत्री को इस दिशा में निस्संकोच आगे बढ़ना चाहिए।(मोहलत दिलाने वाले उस वर्ग को धन्यवाद देते हुए) क्योंकि वातावरण निश्चय ही इतना विषाक्त हो गया था और माहौल में चलते मानव मांस की चिराइन गंध कुछ इस कदर हावी थी कि उसमें सामाजिक न्याय दिलाने की बात तो दूर, किसी भी प्रकार का सार्थक-असार्थक संवाद संभव ही नहीं था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्वनाथ प्रताप फिलहाल समाज के सबसे प्रभावशाली और मुखर वर्ग में घोर अलोकप्रिय हो रहे हैं। वे निश्चय ही इस तथ्य से भी अवगत होंगे कि इस महत्वपूर्ण वर्ग को अपनी ओर रख कर इस देश में निर्वाचनी राजनीति सफलतापूर्वक करना असंभव तो नहीं, लेकिन कठिन अवश्य है। अब तक तक किसी भी राजनेता ने इस कठिन रास्ते को अपनाने की कोशिश भी नहीं की। ऐसी स्थिति में यदि विश्वनाथ प्रताप अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता पर डटे रहते हैं तो यह तय है कि इस देश की राजनीति की दिशा और इस समाज के पारंपरिक ढांचे में ऐसे मूलभूत परिवर्तन आएंगे, जिसकी इस देश-समाज ने कल्पना भी नहीं की होगी। हो सकता है कि इस महती प्रक्रिया से विश्वनाथ प्रताप और उनकी पार्टी अगला चुनाव हार जाए, लेकिन यदि वे सचमुच समता मूलक समाज के निर्धारण के लिए प्रतिबद्ध हैं तो देश इस बलिदान के लिए उनका कृतज्ञ रहेगा और उनके खुद के दामन पर जो टुच्ची राजनीति के छींटे डाल दिए गए हैं, उनसे भी वे मुक्त हो पाएंगे। विश्वनाथ प्रताप यदि पिछड़े एवं दलित वर्गों के शोषण के कुचक्र को तोड़ कर वास्तविक सामाजिक-आर्थिक बराबरी की दिशा में बढ़ने के प्रयास के रूप में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कर रहे हैं तो मंडल आयोग के प्रश्न पर पीछे नहीं हटें, और इस मोहलत का उपयोग सरकार की इस प्रतिबद्धता को और दृढ़ करने के एक अवसर के रूप में करें।

कानूनी लड़ाई मूलतः तीन मुद्दों पर लड़ी जाएगी। एक, संविधान सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की गारंटी देता है, पिछड़ी जातियों को नहीं। दो, जातियों की गणना और उनकी पहचान का आधार चूंकि 60 साल पुराना है, इसलिए अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है। तीसरी, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की उच्चतम सीमा क्या हो- क्या 50 प्रतिशत नौकरियों को आरक्षित कर देना उचित होगा? ये तीनों प्रश्न कई मुकदमों में कई उच्च न्यायालयों द्वारा विवेचित हो चुके हैं और इनके आधार पर दिए गए निर्णयों के बावजूद देश के अनेक राज्यों में आरक्षण-व्यवस्था सफलतापूर्वक बिना सड़कों पर खून बहाए, सुचारू रूप से चल रही है। यदि विश्वनाथ प्रताप की सरकार सिर्फ राजनीतिक उद्देश्य से मंडल आयोग का दुरुपयोग नहीं कर रही है तो उसके लिए सचमुच यह एक ऐसा अवसर है, कि सामाजिक न्याय के आवश्यक अस्त्र के रूप में आरक्षण व्यवस्था को वह वैधानिक, नैतिक और अंततः व्यावहारिक स्वरूप दिलवा सकती है। वह मंडल आयोग के रूप में भी हो सकता है और मुंगेरी लाल आयोग के रूप में भी या दक्षिण में लागू अन्य किसी भी आरक्षण व्यवस्था के रूप में इसे लागू कर सकते हैं। शर्त सिर्फ यही है कि सरकार सदाशयी हो और ईमानदारी से न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करे। साथ ही, आंदोलनकारी युवा छात्रों को यह विश्वास दिलाने में भी सफल हो सके कि वह सिर्फ सामाजिक न्याय दिलाने के लिए ही प्रतिबद्ध नहीं है, बल्कि वह इस दिशा मं भी सार्थक कदम उठाने जा रही है, जिससे देश के युवाओं में व्याप्त हताशा और कुंठा की ऊर्जा का राष्ट्र निर्माण में सदुपयोग किया जा सके, न कि आत्मदाह या आत्महत्या जैसे पलायनवादी कर्म में। सरकार की विश्वसनीयता फिलहाल शून्य के बराबर है, इसलिए शब्द चाहे वे कितने ही पवित्र क्यों न हों अभी खोखले ही लगेंगे, इसलिए सरकार इस मोहलत को चाहे तो कर्म के रूप में सार्थक उपयोग कर सकती है। सार्थक संवाद तभी बन सकेगा।

9 अक्टूबर 1990, नव भारत टाइम्स

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