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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

मुसलमान सोच में भी पिछड़ रहे हैं

क्या मुस्लिम मध्य वर्ग पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही कट्टर और अनुदार हुआ है? एक के बाद एक घटनाएं जिस तरह से घट रही हैं, उनसे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि मुसलमानों के मध्य वर्ग या बुद्धिजीवी वर्ग का बहुमत पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा दकियानूस और पुरातनपंथी होता जा रहा है या फिर मुस्लिम समाज में असुरक्षा की बढ़ती भावना उसके मध्य वर्ग के बीच इस प्रकार से प्रकट हो रही है।

जामिया मिलिया इस्लामिया और प्रोफेसर मुशीरूल हसन का मामला तो अब काफी चर्चित हो चुका है, लेकिन मुस्लिम शिक्षा जगत के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण केंद्र, विशेषतः अलीगढ़, बम्बई और पटना में जिस तरह की घटनाएं पिछले दिनों घटी हैं, उनसे यदि कोई इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि आज का शिक्षित मुसलमान जिस रास्ते चल रहा है, उससे समाज थोड़ा और पीछे हटेगा तो ऐसे किसी निष्कर्ष को स्वाभाविक ही मानना चाहिए।

सबसे पहले अलीगढ़ के मामले को लें। यह मामला भी कुछ-कुछ जामिया के मामले की तरह ही है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि अलीगढ़ विवाद में धार्मिक मुद्दे प्रमुख नहीं हैं, लेकिन इस विवाद ने जिस तरह से विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों को प्रभावित किया है, इसका अर्थ सिर्फ यही हो सकता है कि आज मुस्लिम समाज का शिक्षित तबका एक भारी मानसिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है जिसकी अभिव्यक्ति इस तरह से हो रही है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने आई.टी.आई दिल्ली के प्राध्यापक एस एम याह्या को विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति के रूप में नियुक्त किया था। प्रोफेसर याह्या ने थोड़े दिनों बाद तय किया कि विश्वविद्यालय में शिक्षण का उचित माहौल नहीं है, इसलिए वे आई.टी.आई. वापस चले जाएंगे। विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों ने उनकी विदाई का समारोह आयोजित किया, जिसमें प्रोफेसर याह्या ने वही बातें दोहराईं कि किस प्रकार अमुवि में शिक्षण का माहौल खराब हो रहा है। नतीता यह हुआ कि छात्रों का एक हिंसक वर्ग प्रतिवाद करने पहुंचा, जो अंततः मारपीट तथा अध्यापकों को लांछित करने से लेकर कुलपति के निवास पर हमले के रूप में बदल गया और विश्वविद्यालय एक अनावश्यक आन्दोलन का शिकार हो गया।

कुल मिलाकर मामला जामिया की तरह का ही बना कि क्या शिक्षण संस्थाओं में भी लोग अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से कर पाएंगे या नहीं। जामिया के प्रोफेसर मुशीरूल हसन ने सलमान रश्दी की विवादास्पद पुस्तक ‘शैतानी आयतों’ को प्रतिबंध मुक्त करने की बात नहीं की थी। उन्होंने एकदम जायज बात कही थी कि पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाना या कहें कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का हनन करना इस तरह की किन्हीं भी समस्याओं का समाधान नहीं है। परिणाम यह निकला कि न केवल जामिया के छात्रों-शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग प्रोफेसर हसन के हिंसक विरोध पर उतारू हुआ बल्कि देश भर के पढ़े-लिखे मुस्लिम समाज के बहुमत ने भी कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की।

प्रोफेसर याह्या ने तो जो बातें कही थीं, उनका तो दूर-दूर तक धार्मिक आस्था से कोई संबंध नहीं है, लेकिन वहां भी छात्रों-शिक्षकों के एक बड़े वर्ग की प्रतिक्रिया जामिया जैसी ही रही। इससे क्या यह अर्थ नहीं निकलता कि नया मुस्लिम समाज उस हद तक अपने को अनुदार बनाए रखना चाहता है कि उसे बाहर की बात तो छोड़ ही दें, अपने समाज से उठी हुई आलोचना का हल्का-सा तेवर भी अपने ही समाज के विरुद्ध षड्यंत्र लगने लगता है। वरना अलीगढ़ के छात्रा उस तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते जैसा कि पिछले दिनों हुआ, बल्कि प्रोफेसर याह्या के विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए इसे आत्ममंथन का कुछ ऐसा स्वरूप देते कि यह विवेचना अलीगढ़ विश्वविद्यालय से प्राप्त छात्रों की उपलब्धियों के लेखा-जोखा के रूप में सामने आती कि क्या कारण है कि आज इस विश्वविद्यालय के छात्र प्रतियोगिताओं में कहीं टिक नहीं पा रहे हैं। जिस विश्वविद्यालय ने मुस्लिम समाज की कई सारी ऐसी पीढि़यां तैयार की, जो योग्यता और क्षमता में देश के किसी भी विश्वविद्यालय के छात्रों से उन्नीस नहीं रहीं, आज मुस्लिम समाज को एक पढ़े-लिखे बेकार की फौज देने के अलावा कोई सार्थक काम क्यों नहीं कर पा रहा?

यदि मुस्लिम समाज का पढ़ा-लिखा तबका सचमुच इस बात से चिन्तित होता कि देश में बेकारों की बढ़ती फौज में सबसे ज्यादा मुसलमान क्यों हैं या गरीबी की रेखा से नीचे भारतीयों में मुसलमानों का प्रतिशत हर साल क्यों बढ़ता जा रहा है तो वे प्रोफेसर मुशीरूल हसन और प्रोफेसर एस.एम. याह्या के विचारों को वितंडा का वह स्वरूप कतई नही देते, जिससे लोगों की इस अवधारणा को और बल मिलता कि मुस्लिम मध्य वर्ग, या कहें कि समाज को नेतृत्व प्रदान करने वाला तबका सचमुच मुसलमानों की गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के बारे में कतई चिन्तित नहीं है बल्कि वे भी उन्हीं हवाई मुद्दों को ज्यादा महत्त्व देते हैं, जिनके कारण मुसलमान आजादी के बाद देश में पिछड़ता ही गया है।

बम्बई का विद्या भवन-अंजुमन विवाद इस प्रवृत्ति का सबसे अच्छा उदाहरण कहा जा सकता है। बम्बई में भारतीय विद्या भवन द्वारा परिचालित जनसम्प्रेषण और प्रबंधन का राजेन्द्र प्रसाद संस्थान अपने क्षेत्रा की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है, जिसने हजारों की संख्या में युवाओं को आधुनिक सम्प्रेषण की तकनीक में प्रशिक्षित किया है, जो देश में महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं। भारतीय विद्या भवन भारत की प्राचीन संस्कृति के गौरव को पुनजीर्वित करने में विश्वास करता है। उसके पिछले कार्यकलाप को देखते हुए यह बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि हिन्दू विचारधारा की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने वाला यह संस्थान किसी भी कोण से साम्प्रदायिक नहीं है। यही बात बम्बई के अंजुमन-ए-इस्लाम के बारे में भी कही जा सकती है, जिसने बम्बई में मुस्लिम समाज को शिक्षित करने के क्षेत्र में अलीगढ़ या जामिया के टक्कर का काम किया है। इस्लामी सभ्यता और मुस्लिम समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर चलाया जाने वाला यह संस्थान अनुदार और पुरातनपंथी नहीं है, यह बात भी विश्वास के साथ कही जा सकती है।

इन परिस्थितियों में विद्या भवन की इस पहल की प्रशंसा होनी चाहिए थी कि वह राजेन्द्र प्रसाद संस्थान की एक शाखा अंजुमन-ए-इस्लाम के बोरीबंदर स्थित स्कूल में प्रारंभ करना चाहता है, जहां तीस प्रतिशत स्थान मुसलमान छात्रों के लिए सुरक्षित रखे जाएंगे। इस प्रस्ताव के दूसरे चरण में अंजुमन में संस्कृत तथा विद्या भवन में अरबी तथा फारसी पढ़ाने की योजना थी, लेकिन बम्बई के मुस्लिम समाज में हंगामा हो गया और इस प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा। आश्चर्य की बात यह है कि इस प्रस्ताव का विरोध करने वाले पुरातनपंथी मुल्ला-मौलवी नहीं, बल्कि वे लोग थे जिन्हें मुस्लिम समाज के प्रगतिशील वर्ग का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। इस प्रस्ताव का सबसे मुखर विरोध बम्बई से प्रकाशित ‘उर्दू टाइम्स’ महाराष्ट्र के भूतपूर्व शिक्षा सचिव तथा अंजुमन की प्रबन्ध समिति के सदस्य ए.यू. शेख तथा प्रख्यात मुस्लिम समाज सुधारक स्व. हमीद दलवई के भाई तथा महाराष्ट्र जनता दल के अग्रणी नेता हुसैन दलवई ने किया। मुखालफत का मुख्य आधार यह था कि विद्या भवन जैसी भारी-भरकम संस्था के प्रवेश से अंजुमन का अल्पसंख्यक चरित्र समाप्त होने का खतरा है। इस तरह शिक्षित मुस्लिम बेकार युवाओं के सामने एक अवसर आते-आते रह गया।

मुस्लिम मध्य वर्ग जिस तरह से अपने खोल में सिमटकर पीछेदेखू बनने की कोशिश कर रहा है, इसका एक अन्य उदाहरण है- पटना स्थित खुदाबख्श लाइब्रेरी के निदेशक का मामला। इस पुस्तकालय के निदेशक डॉ. आबिद रजा बेदार इन दिनों विवादों के घेरे में हैं। उन पर इस्लाम और मुसलमान विरोधी होने के आरोप लगाकर उन्हें पुस्तकालय से निकाल बाहर करने का एक आन्दोलन पटना में उग्र रूप धारण कर रहा है। वर्तमान विवाद का विषय हालांकि ‘काफिर’ शब्द की व्याख्या करते हुए उनकी ताजी टिप्पणी है, लेकिन दो प्रमुख इस्लामी संस्थाओं द्वारा उन्हें काफिर घोषित करते हुए ‘दोजख की आग’ में डालने का फतवा उनकी एक 23 वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक के कारण जारी किया गया है। डॉ. बेदार ने सन् 1969 में एक पुस्तक ‘सीमा की तलाश’ प्रकाशित कराई थी, जिसमें उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ, जुम्मे की तमाज, हिन्दू उपासना स्थलों को ढहाकर वहां बनाई गई मस्जिदों का मामला तथा इस्लामी कर्तव्य के बारे में अपने विचार प्रकट किए थे। आज उस पुस्तक के प्रकाशन के 23 वर्ष बाद डॉ. बेदार को काफिर घोषित करते हुए उन्हें पुस्तकालय के निदेशक पद से हटाने का आन्दोलन किया जा रहा है, जिसमें धीरे-धीरे अब उग्र धार्मिकता का प्रवेश हो रहा है।

इन चारों घटनाओं में एक बात मार्के की है कि इन विवादों के केंद्र में मुस्लिम समाज का कोई ऐसा व्यक्ति है, जो समझदारी की बात करने के कारण अपने समाज के बहुमत का कोपभाजन हो रहा है। जामिया में प्रोफेसर हसन, अलीगढ़ में प्रोफेसर याह्या, अंजुमन में डॉ. इसहाक जामखानवाला तथा पटना में डॉ. बेदार सिर्फ थोड़ी समझदारी की बात करके अपने समाज के उस वर्ग के आक्रमण का निशाना बन रहे हैं, जो संस्थानों की स्थानीय राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए मुस्लिम समाज के अंदर गहरे पैठे असुरक्षा तथा भय की भावना को भड़काकर इसे पूरे समाज के संकट का रूप दे रहे हैं। इस प्रकार एक समाज को थोड़ा और पीछे धकेल रहे हैं, जो ऐतिहासिक कारणों से वैसे ही पिछड़ता जा रहा है।

असल में भारतीय मुस्लिम समाज की यही विडम्बना रही है कि असुरक्षा की भावना को और हवा देकर हमेशा उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र तथा मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि को ही मुसलमानों की वास्तविक समस्या बनाया जाता रहा है ताकि इस बात की ओर उनका ध्यान न जाए कि मुसलमान आज देश में सबसे ज्यादा गरीब, सबसे ज्यादा अशिक्षित तथा सबसे ज्यादा असुरक्षित क्यों है। कम-से-कम इस समाज के पढ़े-लिखे वर्ग से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे इस वर्ग की वास्तविक समस्याओं को समझें और उस वर्ग का हथियार न बनें जिसका स्वार्थ इस समाज को बनाए रखकर अपनी राजनीति चमकाने में है। यह प्रक्रिया वास्तव में बहुसंख्य समाज की साम्प्रदायिकता के हाथ ही मजबूत करती है।

8 जुलाई 1992, अमर उजाला

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