कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

मेरी नजर में सुरेंद्र - जुगनू शारदेय

सुरेंद्र से मेरी मुलाकात जुलाई 1974 के पहले हफ्ते में 2 या 3 जुलाई को हुई थी। तब वह अपने समय के सबसे बड़े और लोकप्रिय साप्ताहिक धर्मयुग में उप संपादक हुआ करते थे। उस मुलाकात से पहले मैंने सुरेंद्र का नाम नहीं सुना था। उन दिनों नाम सुनने का मतलब होता था कवि–कथाकार होना या समाजवादी होना या धर्मयुग या साप्ताहिक हिंदुस्तान में खूब छपना। सुरेंद्र इसमें से कुछ भी नहीं था, हालांकि उस समय तक सुरेंद्र धर्मयुग में खूब छपा करता था। लेकिन मेरी बदकिस्मती कि 1974 आते=आते तक जिस विषय पर सुरेंद्र लिखता था, उसका तिलिस्म मैं समझ गया था। इसलिए उसे पढ़ता नहीं था। आज भी उस विषय पर लिखने वाले तीसमार खां माने जाते हैं। वह विषय है विदेश। अब तो इंटरनेट की मेहरबानी से विदेश संबंधी विश्लेषण और समाचार आसानी से उपलब्ध है। तब विदेश के कुछ समाचार पत्र बड़े शहरों में आते थे और उन्हें पढ़ कर लोग अपने अखबारों का विदेश का पन्ना भर दिया करते थे। हम हिंदुस्तानी आज भी इसे खूब पढ़ते हैं। कलकत्ता के लोगों की तो आदत ही होती है विदेश समाचार पढ़ने की। मेरी बदकिस्मती कि सुरेंद्र का लिखा धर्मयुगीय विदेश मैंने कभी नहीं पढ़ा। औरों की भी नहीं पढ़ता– क्यों नहीं पढ़ता यह बात फिर कभी।

उन दिनों धर्मयुग में 1969 से सिर्फ गणेश मंत्री को जानता था। पुराने समाजवादी थे। उनसे पहली मुलाकात भी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के जबलपुर सम्मेलन में हुई थी। मेरा नाम कुछ वजहों से लोग जानने लगे थे। एक वजह तो समाजवादी युवजन सभा में होना और जन में लिखना था, दूसरी वजह दिनमान में लिखना और सबसे बड़ी वजह बिहार आंदोलन समेत फणीश्वरनाथ रेणु के प्रभामंडल में शामिल होना था। सो सुरेंद्र मेरा नाम जानता था। हालांकि 1972 में मेरा नाम धर्मयुग में छप चुका था। तब के बांबे और आज के मुंबई में जाने का कारण भी फणीश्वरनाथ रेणु की प्रेरणा थी कि देख–सुन माध्यम सिनेमा को समझा जाए।

धर्मयुग के कुछ और लोगों का नाम मैंने सुना था। कुछ का नहीं सुना था। परिचय सबसे हुआ, पर मन को भाया सुरेंद्र– शायद उसकी वजह उसके चेहरे पर मेरी तरह दाढ़ी चस्पा होना थी या मेरी समझ से धर्मयुग का मेरा सबसे लोकप्रिय पन्ना ‘बालजगत’ (स्तंभ के नाम में भूल हो सकती है) रंग और व्यंग्य तथा हास परिहास का उप संपादक होना था। एक और बात भायी थी कि सुरेंद्र के बिहार आंदोलन से जुड़े सवाल सटीक होते थे। तब तक गणेश जी बिहार का दौरा कर लौट भी चुके थे। अब उनके लेखन का ब्योरा याद नहीं, पर उसमें हमेशा की तरह समाजवादी भावुकता तो होती ही थी । हम सब उस समाजवादी भावुकता के दौर से गुजर रहे थे। पर सुरेंद्र उस भावुकता से मुक्त था। शायद इसीलिए उसके सवाल बड़े सटीक थे। अब 2010 में न सवाल याद है, न मेरा जवाब।

उस दिन मैंने महसूस किया कि बंबई में घर भागने की जल्दी क्या होती है। कोई सूचना आ चुकी थी कि बड़ी भारी बारिश होने वाली है। लोग घर की तरफ भाग रहे थे। मेरी मंजिल मेरे सामने थी टाइम्स ऑफ इंडिया के सामने सड़क पार का वीटी स्टेशन (विक्टोरिया टरमिनस– आज कल इसे छत्रपति शिवाजी टरमिनस के नाम से जाना जाता है) जिसके बाम्बे–हावड़ा मेल के थ्री टायर के डिब्बे में मेरा रिजरवेशन, उस वक्त के रिजरवेशन विशेषज्ञ पत्रकार की मेहरबानी से पक्का था। मुझे वक्त काटना था। बड़ी मुश्किल थी क्योंकि जिन लोगों के साथ शाम गुजारने की सोची– वह सब घर की ओर भाग रहे थे। तब एक ही उपाय था कि वीटी के सामने के कॅपिटल सिनेमा घर में सिनेमा देखा जाए। मैं टिकट खरीदने जा ही रहा था कि बगल में सुरेंद्र खड़ा था। उसने पूछा, बीयर पीने का मन है। मेरे मुंह से हां ही निकला। बिहार आंदोलन के कारण बीयर या शराब बंद कर रखी थी। बस यूं समझिए कि बीयर की बोतल के साथ धर्मयुगीन जान पहचान दोस्ती में बदल गई। और सुरेंद्र के जाने के बाद भी मरी नहीं क्योंकि मेरी हर बोतल के साथ सुरेंद्र का मंद मंद मुस्कानी चेहरा होता है।

मार्च 1975 में फिर एक लेखक सम्मेलन में शामिल होने के लिए बंम्बई जाना हुआ। इस बार मैं रेणु जी का लटक था। तब बहुत सारे लोगों से और मुलाकात हुई। गोरेगांव के केशव गोरे स्मारक न्यास में रेणु जी का भाषण हुआ था। सुरेंद्र उस भाषण को टेप कर रहा था। मुझे उस भाषण की याद फिर जून – जुलाई 77 में हुई, जब पता चला कि वही भाषण रविवार के प्रथम अंक का आवरण कथा है। अगस्त 1977 के रविवार के पहले अंक के पहले बम्बई की बहुत सारी यादें हैं क्योंकि जून 1975 में मैं बम्बई में था। अबकी बार इरादा बंम्बई में रहने का और फिल्मकारिता समझने – सीखने का था। यहां यह स्वीकार कर लूं कि मैं यह मान कर चल रहा था कि बिहार आंदोलन भी अन्य आंदोलनों के समान अपनी सहज मृत्यु की ओर बढ़ रहा था। तभी इमरजेंसी लग गई। यह समझ में ही पहले नहीं आया कि यह क्या बला है। तुरत तबीयत थी कि पटना चला जाऊं। तब दो लोगों ने पटना नहीं जाने के लिए समझाया, पहले सुरेंद्र ने और बाद में बाबुराम इशारा ने। तब तक मैं उनका निर्देशन विभाग में इंटर्ननुमा सहायक हो चुका था। मुझे उसमें मजा भी आ रहा था। मगर मानसिक अवसाद बहुत ज्यादा था। उस अवसाद से बाहर निकलने में मदद की बीयर ने– रम ने भी, बीआरइशारा की लाइब्रेरी में पढ़ी जे. कृष्णमूर्ति की किताबों ने और सुरेंद्र की समझदार बातों में। समझदार बातों का तफसील मुझे याद नहीं, पर इतना याद है कि गिरफ्तारी जान बूझ कर अपनी अभिव्यक्ति को बांधना है। बिना जेल जाए भी इमरजेंसी के खिलाफ लिखा–बोला जा सकता है। बस वह तरीका समझना होगा कि आदमी बोल भी दे और लिख भी दे। बहरहाल, मेरा लेखन उस बात को उस समय नहीं समझ पाया। हम सब लोग 1975 का दिन काटते रहे।

अभी ठीक से याद नहीं कि जेपी को जसलोक 1975 के अंत में भेजा गया या 1976 की शुरुआत में। शायद 1975 के अंत में ही। डर के मारे लोग उन दिनों जेपी से मिलना भी पसंद नहीं करते थे। जो लोग हिम्मत के साथ जेपी से मिलने गए उनमें सुरेंद्र भी था। विजय तेंडुलकर की बेटी प्रिया थी और कन्नड फिल्मों का एक्टर अनंत नाग भी था। अनंत अभी भी है। सुरेंद्र और प्रिया नहीं रहे। सुरेंद्र लगभग रोजवालों में था। बस दिन कट रहे थे। हम सब इमरजेंसी में भी जी रहे थे। एक दिन पता चला कि सुरेंद्र कलकत्ता जा रहा है– संपादक हो कर। अनेक लोग दुखी थे कि उनके बीच का एक उप संपादक कलकता जा रहा है संपादक हो कर। चूंकि मैं फ्रीलांसर था, और सुरेद्र का मित्र भी, इसलिए मुझे कुछ ज्यादा ही खुशी थी। चलो एक और दुकान खुली। 1976 में ही सुरेद्र कलकता चला गया। 1977 में जब चुनाव की घोषणा हो गई तो मेरे और सुरेंद्र के बीच लगभग रोज ही खतबाजी होती थी। उन खतों का लब्बोलुबाब यह था कि सुरेंद्र के मुताबिक बिहार में 54 की 54 लोकसभा सीटें जनता पार्टी को मिल रहीं थीं। मैं इसे 50 मानता था। जीत उसी की हुई। बहुत सारे कारणों से मैं मानसिक अवसाद का बहुत पुराना रोगी था। मेरे अवसाद में मृत्यु की बड़ी भूमिका थी। 1975 में मेरे गुरुदेव ओमप्रकाश दीपक की मृत्यु हो चुकी थी। 1977 में– याददाश्त सही है तो, 11 अप्रैल 1977 को रेणु जी की मृत्यु हो गई। बहुत बचपन में भी एक प्रियजन की मौत हो गई थी। डिप्रेशन क्या चीज होती है, तब मैं नहीं समझता था। समझा 1997 में जब जून में सुरेंद्र की और सितंबर में भारती जी चले गए। बाद में एक सायक्रियाट्रिस्ट ने कुछ उपाय बताए थे– तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस बीच 1982 में मेरे पहले और आखिरी लगाव की भी मानसिक मौत हो गई। उदासीनता के उन क्षणों से उबरने में सुरेंद्र ने मेरी बहुत मदद की।

मैं जीवन आज में नहीं, अभी में नहीं बल्कि क्षणों में जीता था। अपने आप से उदासीन मैं असामाजिक और आवारा हो चुका था। मगर सुरेंद्र के साथ बिताए क्षणों में आसामाजिकपन और आवारापन से बाहर निकलता था। सुरेंद्र का दिमाग किस तरह से काम करता था, इसका एहसास मुझे रविवार के पहले अंक रेणु के हिंदुस्तान से हुआ। यह वही भाषण था जो रेणु जी ने 1975 में केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट बंबई में दिया था। मैं इसे पहले अंक में छापने के खिलाफ था। पर सुरेंद्र ने छापा। बाकी एक इतिहास भर ही है।
इतिहास यह भी है कि सुरेंद्र ने नवभारत टाइम्स की नौकरी छोड़ दी। कपिलदेव की सीढ़ियों से ले कर सिंडिकेटेड कॉलम, आनंदबाजार पत्रिका का दिल्ली में ब्यूरो चीफ उर्फ सम्मानजनक शब्द पोलिटिकल एडिडर होना और आजतक की एंकरिंग करना – सब के सब इतिहास ही तो हैं। बीच में कुछ दिनों के लिए वह टाइम्स टेलीविज़न में भी रहा। 1997 से 2010 के बीच उसे याद करते हुए भूल जाना भी तो इतिहास है कि विजेता का इतिहास भी लोग भूल जाते हैं।

कैसा लिखता था सुरेंद्र – यह तो इस संग्रह से ही पता चलेगा। मेरे लिए तो वह मेरी शाम की बीयर का आज भी पार्टनर है क्योंकि आजतक के सुरेंद्र प्रताप सिंह– सॉरी एसपी ने प्रेस क्लब के बाहर मुझे छोड़ते हुए छलछलायी आंखों के साथ कहा था, चुतिए किस्मत वाले हो कि अभी भी बीयर पी लेते हो।

हां, सुरेंद्र अभी भी बीयर पी लेता हूं– और मरने के लिए हर पल जीता हूं।

(जुगनू शारदेय (जन्म- दिसंबर 1949) हिंदी के जाने-माने पत्रकार हैं। 'जन', 'दिनमान' और 'धर्मयुग' से शुरू कर वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे। पत्रकारिता संस्थानों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में शिक्षण/प्रशिक्षण का भी काम किया। अपने बेबाक विचारों की वजह से उन्होंने कहीं भी ज्यादा समय टिकना उचित नहीं समझा, लिहाजा वे लगातार यहां-वहां भटकते रहे। उनके इस घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया। जंगलों के प्रति यह लगाव वहाँ के जीवों के प्रति लगाव में बदला। सफेद बाघ पर उनकी चर्चित किताब ‘मोहन प्यारे का सफ़ेद दस्तावेज़’ (रेनबो पब्लिशर्स, 2004) हिंदी में वन्य जीवन पर लिखी अनूठी किताब है. इस किताब को पर्यावरण मंत्रालय ने 2007 में प्रतिष्ठित ‘मेदिनी पुरस्कार’ से नवाजा है। फिलहाल पटना में रह कर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अपनी प्रतिक्रिया यहां दर्ज करें।