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बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

उत्तराखंड अपवाद है

उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों में आरक्षण के विरोध में एक व्यापक जनांदोलन छिड़ गया है। आंदोलन इतना व्यापक और सर्वग्राह्य है कि करीब-करीब सभी दल, जो राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण का समर्थन करते हैं, इस क्षेत्रा में मजबूरन इसका विरोध कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा मूलतः सवर्ण मानसिकता की पार्टियां हैं। मंडल आयोग के विरुद्ध जो हिंसक आंदोलन हुआ था उसमें निजी तौर पर इन्हीं दलों के नेताओं की सक्रिय भागीदारी थी। पर बाद में, जब मंडल आयोग लागू करने के अलावा कोई चारा नहीं था, तब सार्वजनिक और सैद्धांतिक रूप से आरक्षण के समर्थन में भी आगे आ गईं।

उत्तराखंड में जो पिछड़ों को आरक्षण दिए जाने के विरुद्ध आंदोलन छिड़ा हुआ है, उसमें इस तरह की भी कोई मजबूरी नहीं है। सभी राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां तथा छात्र-अध्यापक-बुद्धिजीवी इस आंदोलन में सक्रिय हैं। वे भी जो हर क्षेत्रा में आरक्षण का बढ़-चढ़कर समर्थन करते हैं, इस बार यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार के इस निर्णय का समर्थन आखिर कैसे करें। उत्तराखंड की सामाजिक संरचना मैदानी क्षेत्रों से बिल्कुल अलग है। यह बात सिर्फ उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों पर ही लागू नहीं होती, सारे पर्वतीय क्षेत्रों की सामाजिक संरचना मैदानों से भिन्न है। चाहे वह हिमाचल प्रदेश हो या पश्चिम बंगाल का पर्वतीय क्षेत्रा। इन क्षेत्रों में पिछड़ी जातियों के लोगों की संख्या नगण्य है। या तो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के रूप में सवर्ण हैं या दलित, अनुसूचित जातियों के लोग। बीच की जातियां यहां सिरे से नदारद हैं।

इसलिए यदि इन क्षेत्रों में भी मैदानी क्षेत्रों की तरह ही आरक्षण का प्रावधान किया गया तो इससे अनेक परेशानियां पैदा होंगी। एक अंदाज के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के कुमाऊं तथा गढ़वाल क्षेत्रा में अन्य पिछड़ी जाति के लोगों का प्रतिशत डेढ़ से दो के करीब है और ये लोग भी हाल के दिनों में ही मैदानों से चलकर पहाड़ों पर पहुंचे हैं। अब यदि उतर प्रदेश में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा जाता है और उसे पहाड़ी जिलों पर भी लागू कर दिया जाता है तो इसका अर्थ यह होगा कि मैदानी क्षेत्रा के लोग आरक्षण का लाभ लेकर पहाड़ी क्षेत्रा की नौकरियों पर कब्जा कर लेंगे।

इसमें कई मसले हैं। एक, एक ही राज्य में दो तरह के विधान कैसे चल सकते हैं कि जो नियम पूरे राज्य पर लागू होगा वह कुछ जिलों में नहीं लागू किया जाएगा। इस तर्क में दम है लेकिन इसकी अपनी सीमाएं भी हैं। यह तर्क तब दमदार होता, जब पूरे राज्य को एक इकाई के रूप में माना जाता। यहां तो यह स्थिति है कि इन जिलों के लोग अरसे से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं। आप उत्तराखंड कह लें या उत्तरांचल, इसकी मांग लंबे समय से चल रही है और इसे इस क्षेत्रा की आम जनता का व्यापक समर्थन भी मिल रहा है। अलग राज्य बनाने के लिए सक्रिय उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) को व्यापक समर्थन इसलिए नहीं मिलता कि उस क्षेत्र के राष्ट्रीय दल भी अलग राज्य का ही समर्थन करते हैं। पिछली सरकार ने विधासनसभा में प्रस्ताव पास करके केंद्र सरकार के पास भेज दिया था कि उत्तरांचल राज्य शीघ्र गठित कर दिया जाए।

पिछले चुनाव में भले ही मुलायम सिंह के गठबंधन को इस क्षेत्रा से सिर्फ एक सीट मिली हो पर वे भी सार्वजनिक रूप में उत्तराखंड निर्माण के पक्ष में रहे हैं और प्रशासनिक कार्यवाही का भी आश्वासन देते रहे हैं। यानी कुल मिलाकर राज्य में एक तरह की सर्वानुमति रही है कि पहाड़ी जिलों की आवश्यकताएं अलग हैं इसलिए इनकी व्यवस्था भी अलग होनी चाहिए। अलग उत्तराखंड राज्य भले ही अब तक न बना हो पर राज्य इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है कि वह एक न एक दिन अवश्य बनेगा तथा उसकी आवश्यकता भी है। ऐसी स्थिति में आरक्षण के प्रावधान को उसी तरह उस क्षेत्रा में भी लागू करने का क्या तुक है जहां अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों की संख्या दो प्रतिशत भी नहीं है। यदि ऐसा होता कि मुलायम सिंह यादव उत्तराखंड को अलग करने के विरोध में होते तो उनका यह तर्क समझ में आता कि एक राज्य में वे अनेक तरह के कानून नहीं लागू कर सकते, पर ऐसा भी नहीं है।

इसका मसला और भी गंभीर है। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रा की अर्थनीति भी बिल्कुल भिन्न है। वहां न तो ढंग के उद्योग धंधे हैं और न ही खेती। कोई भी व्यक्ति किसानी के सहारे अपनी जिंदगी नहीं चला सकता। हिमाचल प्रदेश में भी अलग राज्य बनने से पहले यही स्थिति थी, लेकिन अब बागवानी और उससे सम्बद्ध उद्योगों के कारण परिस्थितियां भिन्न हैं। चूंकि उत्तर प्रदेश की सारी राजनीति का केंद्र मैदानी क्षेत्रा रहे हैं इसलिए पहाड़ी क्षेत्रों पर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। इसलिए उस क्षेत्रा में आमदनी का साधन सिर्फ सरकारी नौकरियां हैं। काफी लोग सेना या पुलिस में हैं। बड़ी संख्या में लोग क्षेत्रा के बाहर नौकरियां करते हैं। इसलिए कभी-कभी मजाक में इस क्षेत्रा की अर्थनीति को मनीऑर्डर अर्थनीति भी कहते हैं। इस स्थिति में यदि यहां की नौकरियों में आरक्षण के कारण बाहर के लोग भरे गए तो निश्चय ही सामाजिक संतुलन बिगड़ जाएगा और यदि यह आरक्षण शिक्षा संस्थानों में भी लागू होता है तो पहाड़ी युवाओं का भविष्य और अंधकारमय हो जाएगा।

मुलायम सिंह को इस विशेष परिस्थिति को समझना चाहिए और धमकी तथा चेतावनी की भाषा से बचना चाहिए। यह सामाजिक न्याय का रास्ता नहीं है। यह सच है कि हमारे देश में आरक्षण की अत्यंत आवश्यकता है। इसमें भी कोई बुराई नहीं कि आरक्षण को आबादी के औसत तक भी पहुंचा दिया जाए, पर यह करते हुए यह ध्यान भी रखना पड़ेगा कि इसे लागू करने की मूल इकाई क्या हो, राज्य या जिला? स्वाभाविक है कि यह इकाई राज्य ही हो सकती है, पर कुछ क्षेत्रों में अपवाद बनाने होंगे। पश्चिम बंगाल के पहाड़ी क्षेत्रा या बिहार, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों के लिए इस विधान में संशोधन करना ही पड़ेगा, वरना अनेक सामाजिक तनाव होंगे।

तमिलनाडु यदि आरक्षण बढ़ाकर 69 प्रतिशत करना चाहता है तो उसमें दम है। उस राज्य में सिर्फ ब्राह्मण ही ऊंची जाति है बाकी सारी आबादी या तो पिछड़ी है या अनुसूचित। इसी तरह बिहार में यदि लालू प्रसाद यादव आरक्षण को 80 प्रतिशत तक ले जाने की धमकी दे रहे हैं तो उसके पीछे भी एक तर्क है। कर्नाटक में भी कमोबेश यही स्थिति है। यदि संविधान में संशोधन करके इसे लागू किया जाता है तो कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। पर लालू प्रसाद को यह ध्यान तो रखना ही पड़ेगा कि इस आरक्षण नीति के कारण कहीं छोटा नागपुर के आदिवासी बहुल इलाकों में उनके भाईबंद तो थोक में नहीं पहुंच रहे हैं। सामाजिक न्याय की तार्किक परिणति यही है कि हर व्यक्ति को उसके समाज में उसका उचित और तर्कसंगत स्थान मिले। इसलिए यह देखना पड़ेगा कि यदि पूरे राज्य में 80 प्रतिशत आरक्षण लागू होता है तो उन क्षेत्रों में जहां आदिवासी ज्यादा हैं, वहां कम-से-कम उनकी आबादी के अनुपात में तो स्थान मिले।

जब तक उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बन जाता तब तक उत्तर प्रदेश में रहते हुए भी इसका समाधान हो सकता है। उत्तर पूर्व के कई राज्यों की तरह पहाड़ के मूल लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जा सकता है। फिर उनका आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के अनुपात तक बढ़ाकर इस समस्या का समाधान हो सकता है। इसके लिए थोड़ी-सी समझदारी और दूर-दृष्टि से काम लेना होगा, न कि धमकी की भाषा से। इस तरह की भाषा बोलकर मुलायम सिंह न सिर्फ अपनी राजनीति का कबाड़ा कर रहे हैं बल्कि सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर भी प्रहार कर रहे हैं। वैसे ही कोई कम विरोध नहीं है।

24 अगस्त 1994, अमर उजाला

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