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शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

गलत परम्परा मत डालिए

राष्ट्रपति पद के प्रार्थी का चयन करते समय राजनैतिक दल व्यक्ति के किस गुण और योग्यता
को ध्यान में रखें। अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति फोरम सभी राजनैतिक दलों
के सांसदों का संयुक्त मंच है। इस फोरम ने मांग की है कि राष्ट्रपति पद पर इस बार किसी
दलित या वनवासी को चुना जाए। अब तक जितने भी हिन्दू राष्ट्रपति हुए हैं, उनमें से कभी
किसी दलित, वनवासी या पिछड़ी जाति के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनने का मौका नहीं मिला है।

सोच-समझ से सरोकार रखने वाले अधिकांश लोगों ने राष्ट्र के इस सर्वोच्च पद को
जाति से बाँधने की कोशिश को अनुचित माना है। अधिकांश राजनैतिक दलों की भी यही
मान्यता है, लेकिन कुछ व्यावहारिक कारणों से सर्वदलीय फोरम की इस मांग को राजनैतिक
दल एकबारगी नामंजूर भी नहीं कर पा रहे है। भाजपा और माकपा जैसी काडर अनुशासित
पार्टियों का मामला अलग है। कांगे्रस में भी कुल मिलाकर यही माहौल है कि राष्ट्रपति पद
के प्रार्थी की योग्यता का आधार सिर्फ जाति न हो।

यह अच्छी बात है। किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि समाज के सभी वर्गों
को समुचित और बराबरी का प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की आवश्यकता पड़े, तो
यह मानना चाहिए कि या तो उस समाज की सभ्यता में कहीं कोई कमी है या उस लोकतांत्रिाक
व्यवस्था में कोई खोट है। हमारे यहां लगता है कि दोनों ही बातें हैं, वरना आजादी के 45
साल बाद दलित-वनवासी जातियों के सांसदों को फोरम बनाकर इस तरह की मांग नहीं करनी
पड़ती। यह चिंता का विषय है, एक अलग और व्यापक चिंता का विषय। इसे सिर्फ किसी
एक पद से जोड़ देना इस अति महत्त्वपूर्ण विषय को अनावश्यक रूप से संकीर्ण दृष्टि से
देखना होगा।

सिर्फ जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त नहीं माना
जा सकता। इस तर्क के आधार पर धर्म, भाषा, वर्ग या क्षेत्रा भी राष्ट्रपति पद के प्रार्थी की
योग्यता के आधार नहीं हो सकते। भारतीय गणराज्य के पहले राष्ट्रपति की बात छोड़ दें
तो पता चलेगा कि इस पद के प्रार्थी के चयन में सिर्फ योग्यता या क्षमता का आधार उसके
बाद शायद ही कभी ईमानदारी से लागू हुआ हो। भारत के पहले प्रधानमंत्री और पहले राष्ट्रपति,
दोनों ही सवर्ण हिन्दू थे। दोनों हिंदीभाषी थे और कमोबेश एक ही वर्ग का प्रतिनिधित्व करते
थे। सिर्फ इन्हीं कारणों से उनमें से किसी एक को चुनने की बात तब नहीं उठी। शायद
इसलिए कि तब पद प्राप्त करने के लिए सिर्फ योग्य होना ही काफी होता था।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बाद राष्ट्रपतियों के चयन का आधार सिर्फ योग्यता ही रही, इस
बात को दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। डॉ. राधाकृष्णन की योग्यता और क्षमता के
बारे में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। वे विश्वस्तर के दार्शनिक, विद्वान तथा शिक्षाशास्त्री
थे। एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसे निस्संदेह राष्ट्रपति पद की गरिमा के सर्वथा उपयुक्त कहा
जा सकता है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और डॉ. राधाकृष्णन तक आते-आते राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी
चुनने में इतना अन्तर अवश्य आ गया था कि योग्यता और पात्राता के अतिरिक्त भी कुछ
और ढूंढ़ा जाने लगा। कहा गया कि प्रधानमंत्री चूंकि उत्तर का है, इसलिए राष्ट्रपति दक्षिण
का होना चाहिए। यह अतिरिक्त योग्यता की मांग की शुरुआत थी।

भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन भले ही डॉ. राधाकृष्णन जैसे अंतर्राष्ट्रीय
स्तर के विद्वान व शिक्षाशास्त्री तथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे विख्यात विधिवेत्ता और संविधान
सभा के सभापति वाली हैसियत के व्यक्ति न रहे हों, पर उनकी विद्वत्ता, निष्पक्षता, दलगत
राजनीति से उनका परे होना तथा मुस्लिम समाज के सांस्कृतिक- सामाजिक नेता की हैसियत
उनकी अवश्य थी।

उनके चुने जाने के पीछे एक बड़ा कारण उनका मुसलमान होना भी था। यानी क्षेत्रा
और भाषा के बाद अब एक अतिरिक्त योग्यता धर्म बन रहा था। जाहिर है, जब सर्वथा
योग्य लोगों को चुनने के बाद भी धर्म, क्षेत्र और भाषा के रूप में योग्यता की कुछ अतिरिक्त
कसौटियां काम में लाई जाती रहीं तो जाति के प्रश्न को बहुत दिनों तक कैसे दबाया जा
सकता था। अतिरिक्त योग्यता को ही प्राथमिक योग्यता मानने की प्रवृत्ति अब थोड़ी और
ज्यादा विकृत दिखाई देने लगी है।

इस विकृति का प्रारंभ इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रिात्व काल में हुआ। राष्ट्रपति के रूप
में वराहगिरि व्यंकट गिरि कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति की देन थे। उनका चयन करते समय
राष्ट्रपति पद की गरिमा को नहीं, बल्कि इस बात को ध्यान में रखा गया था कि कांग्रेस
की अंदरूनी राजनीति में राष्ट्रपति पद के इस चुनाव से श्रीमती गांधी को कितना लाभ
मिलेगा।

गिरि के बाद ऐसी परम्परा चली कि राष्ट्रपति पद की सारी वांछित योग्यताएं एक ओर
धरी रह गईं और सबसे महत्त्वपूर्ण योग्यता यह बनी कि राष्ट्रपति का कद किसी भी हालत
में प्रधानमंत्री के कद से ऊंचा न हो। वे प्रधानमंत्री की सही-गलत हर बात को स्वीकार
कर लें। भारत के पांचवें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इमर्जेंसी के आदेश पर बिना
चूं-चपड़ किए दस्तखत करके इसे सिद्ध भी कर दिया कि राष्ट्रपति का कद अब उतना ही
होगा, जितना प्रधानमंत्री चाहेंगे।

योग्यता, क्षमता तथा पात्राता के आधार पर भारत के सातवें और आठवें राष्ट्रपति की
बात जितनी कम करें, उतना ही बेहतर होगा। यह राष्ट्रपति पद की पतनगाथा की पराकाष्ठा
थी। यहां तक आते-आते प्रार्थी की अतिरिक्त योग्यता ही मुख्य योग्यता बन चुकी थी। पंजाब
समस्या को जटिल बनाने वाले जैल सिंह और पनडुब्बी-तोपकांड की लीपापोती के लिए प्रसिद्ध
वेंकटरामन आखिर किन योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति चुने गए।

ऐसी स्थिति में यदि एक वर्ग यह मांग करता है कि वह समाज का बहुसंख्य वर्ग है
और उसे आज तक इस पद से वंचित रखा गया है, अतः उसे सिर्फ इसी आधार पर यह
पद मिलना चाहिए, तो वह कोई बहुत गैरवाजिब बात नहीं कर रहा होता है। योग्यताओं
की कसौटी तो तहस-नहस हो चुकी है। ज्यादा से ज्यादा हम यह कह सकते हैं कि इस तरह की मांग पतनगाथा की धारावाहिकता को और जीवन प्रदान करेगी। ऐसी स्थिति में वे पलटकर
पूछ सकते हैं कि योग्यता की मांग आखिर आज ही क्यों, इससे पहले क्यों नही?

इसलिए सिर्फ जाति के आधार को विनम्रता से अस्वीकार करते हुए भी इन जातियों
के दर्द को समझना पड़ेगा, क्योंकि यह पीड़ा वास्तविक है। इस वर्ग का विश्वास समाज को
वापस मिले, इसके लिए आवश्यक है कि इस बार ऐसा राष्ट्रपति चुना जाए जो न सिर्फ संविधान
के पालक और संरक्षक के रूप में सक्षम हो, बल्कि सक्षम दिखे भी। दलगत राजनीति से
वह ऊपर हो। राष्ट्र उसे परिवार के एक ऐसे उदार मुखिया के रूप में देखे, जिसके लिए
हर राजनैतिक मतवाद, क्षेत्रा, भाषा, जाति तथा धर्म के लोग समान हों। फिर वह किसी भी
जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रा का क्यों न हो, सम्पूर्ण राष्ट्र उसे स्वीकार करेगा।

इस चयन में जब तक पारदर्शी ईमानदारी नहीं होगी, देश-समाज के वंचितों को यह
लगता रहेगा कि जब उन्हें कुछ देने की बारी आती है, तभी योग्यता सर्वोपरि होती है वरना
नहीं। दलितों-वंचितों की इस मांग से पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी उन्हें यह समझाया जाना
आवश्यक है कि उनकी मांग को ज्यों का त्यों मान लेने का अर्थ होगा, एक गलत परम्परा
को और आगे बढ़ाना। इस पर पूर्णविराम कर्म से ही लगाया जा सकता है, सिर्फ शब्दों की
चालाकी से नहीं। देखना है कि नरसिंह राव क्या इंदिरा गांधी की इस परम्परा को तोड़ पाएंगे?
15 जून 1992, मतांतर, इंडिया टुडे

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