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बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

बदलाव से नावाकिफ कांग्रेस-भाजपा

मंडल आयोग की रिपोर्ट करीब करीब सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के गले की फांस बन गई है। पार्टिया न तो इसे अंतर से स्वीकार कर पा रही हैं, न ही दिल खोल कर इसका विरोध कर पा रही हैं। सब से विकट स्थिति भाजपा और कांग्रेस की है क्योंकि इन पार्टियों का नेतृत्व तो अब भी पारंपरिक श्रेष्ठी वर्ग के हाथों में है, जबकि इनके जनाधार का वर्ग चरित्र धीरे-धीरे खिसक कर नीचे चला गया है। यही कारण है कि इन पार्टियों का नेतृत्व निजी बातचीत में इस मुद्दे पर जो रुख अखितयार करता है, सार्वजनिक जीवन और व्यवहार में उसी आधार पर टिक नहीं पा रहा है क्योंकि जनाधार का दबाव नेतृत्व को कहीं न कहीं मजबूर कर रहा है कि वह कोई आरक्षण विरोधी रवैया अख्तियार न कर सके। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि राजीव गांधी पहले तो कोशिश करते हैं कि वे कुछ बोलें ही नहीं, फिर जब बोलते हैं तो जो राजीव फार्मूला बड़े धूमधाम से जनता के सामने पेश किया जाता है दूसरे दिन खुद उससे दूर खड़े दिखते हैं। फिर (मणि शंकर अय्यर आदि सहयोगियों के अथक प्रयास से) वे लोकसभा में तीन घंटे का एक भाषण देते हैं जिसका लब्बोलुआब यह निकलता है कि आरक्षण का आधार केवल आर्थिक ही हो सकता है लेकिन जब उन्हें याद दिलाया जाता है कि आंध्र और कर्नाटक जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में जाति पर आधारित आरक्षण सफलतापूर्वक चल रहा है तो घबरा कर दूसरे दिन फिर वे अपनी बात बदल देते हैं। कुल मिला कर राजीव गांधी और उनके दल के वरिष्ठ नेताओं के वक्तव्यों और भाषणों के आधार पर कोई भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि आरक्षण के मामले में कांग्रेस आखिर कहां खड़ी है।

कारण यह है कि भारतीय राजनीति का सामाजिक चेहरा किस जाति से बदला है, मुख्य राजनीतिक दलों के नेताओं को संभवतः इसका अंदाजा ही नहीं है। सन 1984 की लोकसभा के कुल 543 में 210 यानी 40 प्रतिशत सदस्य ब्राहमण थे, जबकि 1989 की लोकसभा के कुल 525 में सिर्फ 76 यानी 15 प्रतिशत सदस्य ब्राह्मण हैं। लोकसभा में ब्राहमणों का प्रतिशत इतना कम इससे पहले कभी नहीं रहा है। 1977 में जब कांग्रेस हारी थी तब भी 25 प्रतिशत ब्राह्मण चुन कर आए थे और 1957 में तो लोकसभा के कुल सांसदों का 47 प्रतिशत स्थान ब्राह्मणें के कब्जे में था। इसमें पहले की आठों लोकसभाओं में ब्राह्मण सदस्यों का प्रतिशत हमेशा ही 40 के आसपास रहा है जो नौंवी लोकसभा में घट कर 15 पर आ गया है जबकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मणें को टिकट देने में कोई कोताही नहीं की। भाजपा के कुल 226 में से 113 प्रत्याशी ब्राह्मण जाति के थे, जिनमे से 24 जीत कर भी आए और इतने ही कांग्रेस से भी जीत कर आए जबकि इन दलों के नेताओं को शायद इसका अहसास भी नहीं हुआ और कांग्रेस तथा भाजपा के क्रमशः 82 तथा 37 सदस्य इस बार पिछड़ी जातियों से चुन कर आ गए और पहली बार इन पार्टियों के संसदीय दल का एक नया चेहरा सामने आया। इन पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व शायद इस तथ्य को अभी ठीक से आत्मसात नहीं कर पाया है इसीलिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के सवाल पर वे पार्टियां कोई ठोस मन नहीं बना पा रही हैं क्योंकि मन जो कहता है पार्टी की आंतरिक शक्ति तत्काल उस पर हावी हो कर उसे बदलवाने के लिए बाध्य कर देती है। मंडल आयोग के तत्काल बाद इन पार्टियों के कुछ नेताओं ने चेतावनी दी कि इस निर्णय से भीषण जातीय तनाव बढ़ेगा, जो अंततः गृह युद्ध में परिणत हो सकता हैं मजे की बात है कि जातीय तनाव तो बढ़ा परंतु गृह युद्ध गुप्त रूप से इन पार्टियों के अंदर लड़े जा रहे हैं, समाज में नहीं।

कांग्रेस की तो और भी दुर्दशा है, क्योंकि इस पार्टी के नेतृत्व में सामाजिक परिवर्तन के कई बड़े महत्वपूर्ण संघर्ष दक्षिण और पश्चिम भारत में शांतिपूर्वक छेड़े गए, जिन्होंने न केवल उन राज्यों में एक सामाजिक क्रांति की, बल्कि उन राज्यों का राजनीतिक स्वरूप भी पूरी तरह से बदल दिया और आज यही पार्टी उत्तर भारत के कुछ नेताओं के बहकावे में आकर आरक्षण और राजनीति में पिछड़ी जातियों के उभार के प्रश्न पर ऐसा प्रतिगामी सोच सामने ला रही है जिससे उत्तर भारत में इस पार्टी का आधार तो संकुचित होगा ही, दक्षिण भारत में भी इसकी जीम जमाई जड़ भी हिल सकती है। जाति आधारित आरक्षण और उससे उपजी राजनीति के बल पर ही कर्नाटक में कांग्रेस ने पिछड़ी दलित और अल्पसंख्यक जातियों तथा वर्गों का एक ऐसा मोर्चा बनाया था कि देवराज अर्स को लिंगायतों तथा वोक्कालिगाओं जैसी शक्तिशाली जातियों को राज्य की राजनीति में दरकिनार कर देने में सफलता मिली। पिछले 25 सालों से कांग्रेस तमिलनाडु में किसी द्रविड़ पार्टी से जुड़ी रही है जो पिछड़ी दलित जातियों की उग्र राजनीतिक आकांक्षाओं की देश में सबसे बड़ी अभिव्यक्ति कही जा सकती है। आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस को इस जाति आधारित रणनीति के कारण ही सत्ता वापस मिली है, इस तथ्य को कांग्रेस नेतृत्व झुठला नहीं सकता। आंध्र की राजनीति में एन टी रामाराव के उदय से पहले राज्य राजनीति की बागडोर रेड्डी जाति के हाथों में थी और यह जाति पूरे तौर पर कांग्रेस के साथ थी। इस वर्चस्व को एन टी आर ने कम्मा और कापू जाति के नेतृत्व में बने नए राजनीतिक समीकरण से तोड़ा और तब तक शक्तिशाली बने रहे जब तक कांग्रेस को कापुओं के रूप में एक नई शक्तिशाली पिछड़ी जाति समूह का समर्थन नहीं प्राप्त हो गया। रेड्डी-कापू सहयोग के कारण ही आज चन्ना रेड्डी की कांगेस सरकार हैदराबाद में स्थापित दीख रही है। दक्षिण भारत तथा महाराष्ट्र और गुजरात में पिछड़ी जातियों के वोट बैंक के आधार पर बने राजनीतिक समीकरणों से अपनी गोटी लाल करने वाली कांग्रेस पार्टी को ब्राह्ण वर्चस्व वाला स्वरूप हमेशा से उत्तर भारत देता रहा है। इस बार उत्तर भारत में कांग्रेस धराशायी है लेकिन नेतृत्व बरकरार है जबकि लोकसभा में इस पार्टी के कुल सांसदों का 40 प्रतिशत पिछड़ी जातियों से चुन कर आ गया है। आरक्षण के प्रश्न पर पार्टी के इस विरोधाभासी कदम का मुख्य कारण यही है कि पार्टी नेतृत्व जब जगन्नाथ मिश्र की ओर देखता है तो आरक्षण के सवाल पर उत्तर भारत में लाभ उठाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता और तभी जब शिवशंकर का चेहरा सामने आता है तो अपनी पार्टी की जमीनी वास्तविकात का स्वरूप सामने उभर आता है और राजीव गांधी यह कहने के लिए विवश हो जाते हैं कि उनकी पार्टी सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने के विरुद्ध नहीं है। लेकिन आर्थिक आधार पर भी विचार किया जाए और अगले दिन फिर अपने विचार बदल देते हैं। राजीव गांधी और लालकृष्ण आडवाणी जब तक अपनी राजनीतिक विवशताओं को अनदेखी करने का स्वांग करते रहेंगे उनके विरोधाभास इसी तरह सामने आते रहेंगे।

11 सितंबर 1990, नव भारत टाइम्स

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