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शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

जद-भाजपा एक छायायुद्ध लड़ रहे हैं

भारतीय जनता पार्टी कुछ विचित्र सशोपंज में है। न तो उसे राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार को निगलते बन रहा है और न ही उगलते। कश्मीर-पंजाब समस्या हो या रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का समाधान ढूंढ़ने की चेष्टा, चाहे मंडल आयोग की सिफारिशें लागू या न लागू करने का मामला हो या मूल्यवृद्धि के प्रश्न पर सरकार की असफलता का सवाल। भाजपा करीब हर महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार के काम या नीतियों से नितांत अप्रसन्न है। पर विडम्बना कुछ ऐसी है कि सरकार से हाथ खींचने की बात तो दूर, वह जमकर आलोचना भी नहीं कर पा रही है।

भाजपा भले ही यह कहे कि इस सरकार को गिराने से कांग्रेस को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि गैर-कांग्रेसी पार्टियां सरकार चला नहीं सकतीं, इसलिए वह अपने सीने पर मजबूरन पहाड़ ढो रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस सरकार की रीति- नीति के कारण भाजपा का अंकगणित थोड़ा गड़बड़ा गया है। उसे लग रहा है कि आज यदि सरकार गिर जाती है, तो सबल एवं एकल विकल्प बनने का भाजपा का सपना पूरा नहीं हो सकता, जिसके लिए यह पार्टी सरकार बनने के पहले दिन से ही कोशिश कर रही है। सच तो यह है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार और उसका जनता दल तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सारे ऊपरी प्रेम और सौहार्द्र के बावजूद अंदर ही अंदर लगातार एक-दूसरे को काटने में लिप्त रहे हैं।

इन लोगों ने यह सोचा कि राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस विफल हो चुकी है और यह पार्टी अगले चुनाव तक इस काबिल नहीं रह पाएगी कि सार्थक चुनौती के रूप में उभर सके। इसलिए अगली लड़ाई तो विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व पर धर्मदीप्त राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी शक्तियों के बीच लड़ी जाएगी। यही सोचकर दोनों पक्ष सरकार गठन के पहले दिन से ही अगले निर्वाचन को लक्ष्य बनाकर अपनी गतिविधियां संजो रहे हैं। फर्क सिर्फ यह है कि एक नंगी लड़ाई लड़ने की बजाए दोनों पक्ष शतरंज बिछाकर एक अच्छे मित्रा की तरह अपनी-अपनी चाल चल रहे हैं और क्षमतानुसार अगली तीन-चार चालों के बारे में सोच रहे हैं।

मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए सरकारी निर्णय के ठीक पहले तक शतरंज का यह खेल अपने अपने प्यादों को एक-एक कर आगे सरकाने तथा सिर्फ घेरेबंदी करने तक सीमित था। भाजपा का कहना था कि लामबंदी थोड़े दिनों तक इसी तरह चलती रहेगी कि अचानक मंडल आयोग के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इनका एक महत्त्वपूर्ण प्यादा मार डाला और इस तरह खेल को खूनी दौर तक पहुंचाने की पहल कर डाली। भाजपा ने जवाबी हमले के रूप में सोमनाथ से अयोध्या तक 10 हजार किलोमीटर की रथयात्रा का अपना इरादा घोषित किया और पहली बार विश्वनाथ प्रताप सिंह को भाजपा ने शह देने की कोशिश की।

रामजन्म भूमि के प्रश्न पर भारतीय जनता पार्टी बहुत चतुराई से अब तक अपना खेल खेलती रही है। ऐसे सारे काम, जिनसे एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा की साख बढ़े और अगले चुनाव तक यह पार्टी देश में एक सक्षम विकल्प के रूप में उभर सके, भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व खुद करता रहा है। अन्य सारे काम, जिनसे हिंदू उग्रवाद को बढ़ावा मिले और देश में हिंदू एकता का ऐसा माहौल बने, जो आगे चलकर भाजपा के लिए मजबूत और विश्वसनीय वोट बैंक बन सके, विश्व हिंदू परिषद के जिम्मे है। इस खेल में तीसरा महत्त्वपूर्ण भागीदार है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो इन दोनों संगठनों से थोड़ी पृथक राय रखता है, लेकिन उसके क्रिया-कलाप अंततः उसी दिशा की ओर ले जाते हैं। अपने समर्थन, विरोध, आलोचना, प्रत्यालोचना तथा नरम- गरम नीतियों के बीच में तीनों संगठन राम जन्मभूमि के प्रश्न को अपनी वांछित दिशा में ले जाकर इसका सम्पूर्ण लाभ सिर्फ अपने पक्ष में उठाने का योजनाबद्ध काम कर रहे थे कि मंडल आयोग के रूप में इस योजना से भारी व्यवधान आ गया।

हो सकता है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिशों को ताबड़तोड़ लागू करने की घोषणा की, उस समय उनके सामने एक सीमित लक्ष्य सिर्फ यही रहा हो कि कैसे अगले दिन देवीलाल की रैली फ्लाॅप कर सकें और इसके दूरगामी परिणामों के बारे में उन्होंने ध्यान न दिया हो। पर अब जो बौखलाहट भाजपा नेतृत्व में लक्ष्य की जा रही है, उससे ऐसा नहीं लगता कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सिर्फ देवीलाल को ठिकाने लगाने के लिए ही यह मंडलास्त्र छोड़ा था।

अब तो इस विश्वास के लिए पूरा आधार दीख रहा है कि जो लड़ाई विश्वनाथ प्रताप सिंह और भाजपा शतरंज के बिसात पर सद्भावनापूर्ण वातावरण में लड़ रहे थे, उसकी अगली कड़ी निश्चय ही मंडल आयोग को लागू करने का निर्णय थी। अगस्त का पूरा महीना मंडल आयोग के उदर में समा गया और यह वही महीना है जिसे विश्व हिंदू परिषद ने कार सेवकों की सेना इकट्ठी करने, उन्हें ग्राम, शहर, ब्लॉक तथा जनपद स्तर पर संगठित करने तथा गांव स्तर पर उन वीरों का स्वागत करने के लिए चुना था। देशभर में यह कार्यक्रम कितना सफल-असफल हुआ, इसके बारे में कोई आधिकारिक जानकारी फिलहाल उपलब्ध नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश से जो सूचनाएं आई हैं वे विश्व हिंदू परिषद तथा उससे सहानुभूति रखने वालों को निश्चय ही चिंता में डालने वाली हैं। इस राज्य के 63 जिलों में से 16 में ही जिला स्तर पर स्वयंसेवकों का जत्था संगठित किया जा सका। बाकी राज्य आरक्षण के विरोध-समर्थन के माध्यम से बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था से उपजे असंतोष तथा अन्य सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक पिछड़ेपन तथा गैर बराबरी की सार्थक बहस में शामिल हो गया और रामजन्म भूमि का मामला पीछे पड़ गया। आरक्षण का विरोध या उसके समर्थन में आयाजित जुलूस और रैलियां आज भले ही एक जाति युद्ध का आभास दे रही हों लेकिन वास्तविकता यही है कि इस प्रक्रिया से ही वह सार्थक बहस प्रारंभ होगी जो सदियों से जड़ हिंदू समाज में कोई हलचल पैदा कर पाएगी। यह काम कोई राम शिला या राम ज्योति नहीं कर सकती, यह एहसास ही विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रमों की उत्तर प्रदेश में विफलता का मुख्य कारण है।

वि.हि.प. के कार्यक्रमों की विफलता की परिणति अंततः भाजपा और आरएसएस के राजनीतिक सपने के धराशायी होने में होगी, भाजपा नेतृत्व इस बात को अच्छी तरह समझता है। यही कारण है कि हर मोर्चे पर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की असफलता भाजपा के लिए अचानक मुखर चिंता का विषय हो गई है। सोमनाथ से अयोध्या तक की लंबी रथयात्रा का नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी खुद करें और अपने विधायकों-सांसदों को रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण में सक्रिय भागीदारी की अनुमति दें, यह राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के प्रति भाजपा के उग्र और नए आक्रामक तेवर की शुरुआत है। प्रश्न भविष्य में सत्ता की पूर्ण भागीदारी का है, इसलिए देश को इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि यह छायायुद्ध उग्र से उग्रतर भी हो सकता है, पूर्ण युद्ध में भी परिणत हो सकता है या फिर एक ऐसे यादवी संघर्ष का रूप ले सकता है जिसके अंत में सिर्फ वही कांग्रेस बची रह सकती है जिसका अंत अंतिम मानकर यह लड़ाई छेड़ी गई है।

(18 सितंबर 1990, नवभारत टाइम्स)

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