सुरेंद्र प्रताप सिंह से कुमार नरेंद्र सिंह की बातचीत
प्र.- पत्रकारिता में आने के पीछे आपका क्या उद्देश्य था?
उ.- पत्रकारिता में मैं दुर्घटनावश ही आया। इसलिए कहूं कि कोई महान
उद्देश्य लेकर आया था तो यह झूठ होगा। हां, आने के बाद धीरे-धीरे उद्देश्य मेरे सामने स्पष्ट होने लगे। पत्रकारिता का जीवनदर्शन खुलने लगा। यह प्रक्रिया आज भी चल रही है।
प्र.- सफल पत्रकार आप किसे कहेंगे?
उ.- सफल पत्रकार मैं उसे कहूंगा जो देश, समाज और व्यक्ति (मैं समाज में अंतिम व्यक्ति की बात कर रहा हूं) के हित में इस काम को करता है या जो उसे करना चाहिए, उसमें वह सफल है। सफलता के कई मानदंड हो सकते हैं। हो सकता है कि कोई व्यक्ति पत्रकार के रूप में सफल न हो, पर पत्रकार का रूप धर कर सफल व्यक्ति बन जाए। बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके लिए पत्रकारिता ‘अन्य कुछ’ प्राप्त करने का
साधन है। पत्रकारिता के जरिए कोई राजनीति में जाना चाहता है, कोई पैसा बनाना चाहता है और कोई नाम कमाना चाहता है। मैं समझता हूं कि इस तरह की सफलता पत्रकारिता की नहीं, बल्कि व्यक्ति की
सफलता के मानदंड हैं। पत्रकार तो वही सफल है जो उसका सफलतापूर्वक संप्रेषण करता
है, जिसे वह कहना चाहता है। यानि जो कुछ वह कहता है लोग उसे उसी तरह ग्रहण करते
हैं। उसके कहने के पीछे कोई दूसरा कारण नहीं ढूंढते। इस मायने में मैं अरुण शौरी को
एक सफल
पत्रकार मानता हूं। (यद्यपि उनके विचारों से मैं घोर असहमति रखता हूं।)
वे जो कुछ कहते हैं उसको लोग गंभीरता से लेते हैं।
प्र.- पत्रकारिता में आप अपने को कितना सफल मानते हैं?
उ.- मैंने पत्रकारिता का लंबा और टेढा रास्ता चुना। सीधा रास्ता यह है कि
अपने विचारों को धड़ाधड़ लिखकर पत्रकारिता में अपनी जगह और पहचान बना लें। लेकिन पता
नहीं किन कारणों से मैंने यह रास्ता नहीं चुना। जो रास्ता मैंने चुना, वह जरा कठिन है। यह
बात मैं कोई शहीदी मुद्रा या प्रशंसा पाने के उद्देश्य से नहीं कह रहा हूं।
मुझे लगा कि मेरे लिए यही रास्ता ठीक है। पाठक तक एक व्यक्ति की बात पहुंचाने की बजाय मैंने
सोचा कि हम ऐसा साधन विकसित करें जिससे बात संस्थागत रूप में पाठक तक पहुंचे। मैं
रहूं या न रहूं, व्यक्ति रहे या न रहे, लेकिन वह बात लोगों तक पहुंचती रहे। इसमें मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि मैं क्या लिख रहा हूं बल्कि मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण था कि
और लोग क्या लिख रहे हैं। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हम किस तरह की पत्रिका
निकाल रहे हैं या हमने किस तरह की टीम बनाई है। पत्रकारिता के अपने शुरुआती दिनों में मैं
खूब लिखता था। पर जैसे-जैसे समझ बढ़ी, मुझे लिखने से डर लगने लगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं। मुझे लगा कि लेखकों की पत्रकारिता में पूरी-की-पूरी पहचान बनाने का काम
एक टीम के
रूप में ही किया जा सकता है। ‘रविवार’ के माध्यम से
थोड़ा-बहुत ऐसा करने का प्रयास मैंने किया। ‘नवभारत टाइम्स’ में आने के बाद भी
मैंने इस काम को जारी रखा। पर ‘नवभारत टाइम्स’ एक बहुत बड़ा अखबार
है। इसका एक जमा हुआ तंत्र है इसलिए उसमें काफी समय लगा। मुझे खुशी है कि आज पत्रकारिता उसी दिशा में बढ़ रही है जिस दिशा में
मैंने उसे बढ़ाने का प्रयास किया था। अच्छी पत्रकारिता की दिशा में मैंने ठोस कदम
उठाने का प्रयास किया, इसे ही आप मेरी
सफलता या उपलब्धि मान सकते हैं।
प्र.- अखबार की कोई निश्चित विचारधारा होनी चाहिए या नहीं?
उ.- अखबार का मतलब मैं दैनिक समाचार पत्र समझता हूं और अगर वह किसी
विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में माना जाता है तो यह उसकी असफलता है। इसमें मैं
थोड़ा परंपरावादी हूं। मैं मानता हूं कि समाचारपत्र के तीन काम हैं- सूचना देना, जन शिक्षण करना और
मनोरंजन करना। सूचना के भी दो अंग हैं- समाचार और विचार। समाचार के मामले में मैं
चाहता हूं कि पत्रकार बहुत ही वस्तुनिष्ठ हों, निर्मम और निरपेक्ष हों। उस घटना का समाचार भी, जिसका प्रभाव लोगों पर भिन्न-भिन्न रूपों में पड़ता हो, चाहे वह घटना कितनी
भी बड़ी क्यों न हो, और उसका प्रभाव बड़े
से बड़े समूह पर क्यों न पड़े, पत्रकार को निरपेक्ष होकर देना चाहिए। बड़ा दुख होता है कि पत्रकार ऐसी घटनाओं के प्रति निरपेक्ष नहीं रह
पाते। देश के अंदर की घटनाओं पर तो निरपेक्ष रहते भी हैं, पर जहां भारत और
पाकिस्तान का मामला आता है, हम निरपेक्ष नहीं
रह पाते। विचार के मामले में बहुत वस्तुनिष्ठ नहीं हुआ जा सकता। पत्रिकाएं निश्चित विचारधारा की हो सकती हैं और होनी भी चाहिए। इसमें कोई
बुराई नहीं है। ‘पांचजन्य’ निकलने से मुझे कोई
परेशानी नहीं होती, क्योंकि हमें मालूम
है कि वे कौन लोग हैं, उनकी विचारधारा
क्या है और वे किस उद्देश्य से निकाल रहे हैं। इसी तरह अन्य दलों या व्यक्तियों की पत्रिकाएं भी हो सकती हैं।
प्र.- अखबार में क्या छपे, इसका अंतिम अधिकार मालिकान को होना चाहिए या संपादक को? संपादकीय विभाग की स्वतंत्रता के आप किस हद तक पक्षधर हैं?
उ.- देखिए, इस अधिकार का
निर्णय रोज-रोज नहीं होता। मालिकान और संपादकों के संबंध का भी निर्धारण रोज-रोज नहीं होता। वैज्ञानिक तरीका यह है कि मालिक
जिस दिन संपादक को नियुक्त करता है उसी दिन उसे बता देता है कि हमारे अखबार की
नीति क्या है। उस गाइडलाइन के अंदर अखबार को कैसे निकाला जाएगा, कौन सा समाचार
जाएगा, यह सारा कार्य संपादक का होता है, उसमें मालिक कहीं नहीं आता। निर्धारित गाइडलाइन्स के अनुसार संपादक काम कर रहा है या नहीं, यह देखने का काम मालिक का है। जहां तक संपादकीय विभाग की स्वतंत्रता का सवाल है, तो उसमें बहुत साफ
लाइनें खिंची हुई हैं यानि समाचार देने में वे स्वतंत्र नहीं हैं। समाचार जो हैं, वे हैं और उन्हें
जाना चाहिए। पर कहीं न कहीं स्वतंत्रता की सीमारेखा खींचनी होगी और वह
सीमारेखा है संपादक। पत्रकारिता के नाम पर दुकान चलाने की स्वतंत्रता का मैं पक्षधर नहीं हूं।
तर्कपूर्ण ढंग से
और सुसंस्कृत भाषा में लिखे गए विचारों को समाचारपत्रों में स्थान मिलना
चाहिए- चाहे
वे जैसे भी विचार हों।
प्र.- संपादकीय विभाग और प्रबंधकों के बीच विवाद की मुख्य वजह क्या है और
इसका समाधान क्या है?
उ.- मैं समझता हूं कि इसकी मुख्य वजह संपादकीय नीति का अभाव है, जिसके चलते प्रबंधकों एवं संपादकों के विचारों में टकराहट होती है। अपने देश में
दिक्कत यह है कि प्रबंधक कोई संपादकीय नीति नहीं बनाना चाहते। संपादकीय नीति बनाना तलवार
की धार पर चलने के समान है। इसमें प्रबंधकों को कहना पड़ेगा कि उनके संस्थान की
संपादकीय नीति यह है या यह नहीं है, पर उनमें इतना साहस नहीं है। वे तो ‘गंगा आए गंगादास,
जमुना आए जमुना दास’ होते हैं। नरसिंह
राव की सरकार है तो नरसिंह राव का गुणगान, आडवाणी जी आएंगे तो आडवाणी जी महान और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसा कवि तो देखा ही
नहीं। यानि जिसकी सत्ता उसका खेल उन्हें खेलना होता है। इसमें जो द्वंद्व चलता
है, वह अखबार में भी प्रकट होता है। पश्चिम के देशों में संपादकीय नीति है। उदाहरण के
लिए, इंग्लैंड में जब चुनाव होते हैं तो संपादक संपादकीय लिखता है कि वह अमुक पार्टी या
अमुक उम्मीदवार का समर्थन करता है। मतदाताओं से उस दल के उम्मीदवार को वोट देने की अपील
भी
करता है। पर यह बात रिपोर्टिंग में नहीं झलकनी चाहिए। अपने यहां तो
संपादक सबको खुश करने की नीति अपनाते हैं। अखबार से पैसा भी कमाएंगे, मिशन भी बनाएंगे, उसे अंधेरे में बेच भी देंगे और पवित्रता की बात भी करेंगे। प्रबंधक और संपादक, दोनों ही नहीं
चाहते कि कोई संपादकीय नीति बने।
इसका समाधान मैं समझता हूं कि अखबार का नियंत्रण पेशेवर (प्रोफेशनल)
लोगों के हाथ में होना चाहिए। अन्य प्रोफेशनल्स जैसे डाक्टर, वकील, चार्टर्ड एकाउंटेंट
आदि अपनी शर्तों पर काम करते हैं पर अखबारी पेशे का समीकरण कुछ इस तरह बना और
बिगड़ा कि प्रोफेशनल्स अखबार के नियंत्रण में हैं। इसका समाधान तभी होगा जब ऐसी
संस्थाएं बनेंगी, जिनमें कुछ संपादक या लेखक ही अखबार निकालंगे। मुझे दीख रहा है कि यह दिन
दूर नहीं है। इसमें सब कुछ खुला होगा। पांच संपादक बैठकर तय कर लेंगे कि उनकी
संपादकीय नीति क्या होगी। जिनके लिए अखबार निकाला जाता है, जो अखबार निकालते
हैं या जिन्हें निकालना चाहिए- उस पर यदि उनका नियंत्रण होगा तो स्थिति सुधरेगी, वरना ऐसे ही चलती रहेगी छापामार लड़ाई।
प्र.- आप अखबार के प्रबंधन को अन्य उत्पाद इकाइयों के समान ही मानते हैं
या उससे भिन्न? आप पत्रकार को एक विशिष्ट बुद्धिजीवी कर्मचारी मानते हैं या अन्य के
समकक्ष एक सामान्य कर्मचारी?
उ.- मैं समझता हूं कि हर उत्पाद का प्रबंधन दूसरे से अलग होता है। उस
मायने में अखबार का प्रबंधन भी दूसरे से अलग होता है। आखिर जूता बनाने और डालडा बनाने का
प्रबंधन एक तो नहीं हो सकता। मैं इस तरह का वर्गीकरण नहीं कर सकता कि अखबार के
प्रबंधन का एक वर्ग और बाकी उत्पाद इकाइयों का दूसरा वर्ग। अखबार को एक उत्पाद के
रूप में तो देखना ही पड़ेगा, पर अखबार निकालने का उद्देश्य सिर्फ बेचना नहीं हो सकता। क्योंकि अगर सिर्फ बेचना ही उद्देश्य होता तो वह अन्य उत्पाद इकाई भी बैठा सकता
है। किसी ने अखबार निकाला है तो निश्चित रूप से उसका उद्देश्य सिर्फ बेचना नहीं है, कुछ और भी है और यही उद्देश्य इसे अन्य उत्पादों से अलग करता है।
मैं पत्रकार को कोई विशिष्ट बुद्धिजीवी कर्मचारी नहीं मानता। क्या डाक्टर, वकील, इंजीनियर और कुशल मजदूर बुद्धिहीन होते हैं? पत्रकार लिखने का
विशिष्ट कार्य अवश्य करता है पर वह अकेला बुद्धिजीवी नहीं है।
प्र.- अखबारों में सेवा शर्तों के संबंध में प्रबंधकों के मनमानेपन की
स्थिति बरकरार क्यों है?
उ.- यह स्थिति हर क्षेत्र में है। मैं प्रबंधकों की मनमानी को डिफेंड
नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि जिस तरह का समाज हमने बनाया है, उसमें मजदूरी करने वाले लोगों के साथ लगातार अन्याय होता आ रहा है, चाहे वह कोई भी
क्षेत्र या धंधा हो। यह सिर्फ अखबारों की स्थिति नहीं है। पत्रकार संगठित रूप से उनके
मनमानेपन का विरोध नहीं कर रहे हैं। अखबारों में मजबूत ट्रेड यूनियन की परंपरा रही है। वह
परंपरा नष्ट हो रही है इसलिए प्रबंधकों के मनमानेपन की स्थिति बरकरार है।
प्र.- इस संदर्भ में आखिर बछावत आयोग की सिफारिशें क्यों लागू नहीं की
जातीं?
उ.- बछावत आयोग अपने आप में इस समस्या का समाधान नहीं है। बछावत तो उनके लिए है जो नियम मानने के लिए तैयार हैं। आज पत्रकारिता में, खासकर हिंदी पत्रकारिता में, ऐसी स्थिति है कि
जो लोग अखबार निकाल रहे हैं, सेवा शर्तों की बात तो छोड़ दीजिए, वे किसी भी नियम-कानून को नहीं मानते।
बछावत आयोग इसलिए लागू नहीं होता कि मालिक पैसा नहीं देना चाहते हैं।
बहुत साधारण बात है कि अगर मालिक का काम दो पैसे देकर चल जाता है तो वह पचास
पैसे क्यों देगा? इस देश में कौन सा
कानून लागू होता है? आप जिस समाज में
रहते हैं उसी का तो कानून लागू होगा। ऐसा तो है नहीं कि पत्रकारिता के लिए अलग स्थिति
है।
प्र.- अखबार में क्या आप यूनियन के पक्षधर हैं?
उ.- मैं हमेशा यूनियन का पक्षधर रहा हूं, क्योंकि मैं समझता हूं कि यूनियन एक ऐसी संस्था है जो दूसरे पक्ष को वैज्ञानिक तरीके से सामने लाती है। समझौते
में अगर दूसरा पक्ष संस्था के रूप में सामने नहीं बैठेगा तो प्रबंधन के किसी निर्णय की
प्रतिक्रिया कई रूपों में प्रकट होगी और इससे सिर्फ ऊर्जा का नाश होगा। मैं समझता हूं कि किसी
संस्था में यूनियन का होना उतना ही आवश्यक है, जितना एक अच्छे प्रबंधक का होना।
प्र.- अखबार में सत्ता के राजनीतिक दखल को क्या उचित मानते हैं? क्या आप मानते हैं
कि सत्ता से तालमेल किए बिना आसानी से अखबार नहीं चलाया जा सकता?
उ.- अखबार में सत्ता के राजनीतिक दखल को मैं बहुत अनुचित मानता हूं। वैसे
बहुत सारे अक्षम लोग इसे अपने निकम्मेपन की ढाल भी बनाते हैं। अपने 20-22
सालों की पत्रकारिता में ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं पड़ता जब मेरे ऊपर सत्ता का दबाव
पड़ा हो। अगर आप बेईमान नहीं हैं, राजनीतिकों से पैसा नहीं लेते या उनकी राजनीति नहीं करते, तो आपके ऊपर सत्ता का दबाव नहीं डाला जा सकता। लेकिन आप अगर ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ हैं तो आप पर सत्ता का दबाव पड़ेगा। मैं ऐसा कतई नहीं मानता कि सत्ता से तालमेल
किए बिना अखबार नहीं चलाया जा सकता।
प्र- आप पर भी सत्ता की राजनीति करने के आरोप लगाए जाते हैं, खासकर जनता दल का
समर्थन
करने के लिए। इस संदर्भ में आपका क्या कहना है?
उ.- जब तक जनता दल सत्ता में रहा, तब तक के अखबार निकालकर देख लीजिए, पता चल जाएगा कि मैं जनता दल का समर्थन कर रहा था या नहीं। यह तो ऐसी चीज़ है कि जिसे आप चाहकर भी छिपा नहीं सकते। मैं जनता दल का समर्थक हूं या
नहीं, यह तो अखबार से ही देखा जा सकता है। सौभाग्य या दुर्भाग्यवश उस समय मैंने
बहुत कम लिखा। मैं तो सिर्फ समाचारों का संयोजन करता था, वह भी पूर्वाग्रह
से मुक्त होकर। मैंने लिखना तब शुरू किया जब मंडल और मंदिर का मुद्दा सामने आया। उस समय जनता दल के समर्थक तो क्या, जनता दल के खुद के नेता जनता दल के विरोधी हो गए थे। अगर कोई यह समझता है कि मैं मंडल का समर्थन कर रहा था इसलिए जनता दल का
समर्थन कर रहा था तो उससे बड़ा मूर्ख मैं किसी को नहीं समझता। वह तो मेरे लिए
अलोकप्रियता
के पाताल में ले जाने वाला कदम था, पर मैंने वह कदम इसलिए उठाया क्योंकि मैं वैचारिक रूप से उसे उचित मानता था। उसमें भी मैं समाचारों में कोई दखलअंदाज़ी नहीं
करता था। संपादकीय नीति राजेन्द्र माथुर तय करते थे और चूंकि मेरी राय भी उनसे
मिलती थी, इसलिए एक तरह की नीति चलती थी। वैसे संपादकीय नीति निर्धारण में सूर्यकांत बाली, विष्णु खरे या राजकिशोर आदि भी सहयोगी होते थे। मैं जो उचित समझता था, उसे मैं अपने नाम से लिखता था और इसके लिए मुझे कहीं कोई शर्म या मलाल नहीं है। आपको सूचित
कर दूं कि सत्ता की राजनीति करके पूरे जनता दल के शासन काल में मैं विश्वनाथ
प्रताप सिंह से एक बार भी नहीं मिला।
प्र.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रसार क्या हिंदी पत्रकारिता के लिए
चुनौती नहीं है? इन चुनौतियों का सामना कैसे किया जा सकता है?
उ.- यह चुनौती खुद पत्रकारिता के लिए है। हां, हिंदी पत्रकारिता
कोई विशेष पत्रकारिता है, ऐसा मैं नहीं समझता। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया छपे हुए शब्दों के लिए चुनौती है। मैं इसे खतरा नहीं मानता। मैं सूचना के मुक्त बहाव में विश्वास करता हूं, चाहे वह किसी भी स्रोत से प्राप्त हो। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौती का सामना करने के लिए समाचारपत्रों को और विश्वसनीय बनाना पड़ेगा, इसे समाज से और जोड़ना पड़ेगा। समाचारपत्र के विचार पक्ष को और सुदृढ़ करना होगा क्योंकि दृश्य-श्रव्य माध्यम की सबसे बड़ी कमजोरी
यह है कि दर्शक के दिमाग से शब्द बड़ी तेजी से गायब होते हैं। यहीं पर प्रिंट
माध्यम की भूमिका शुरू होती है। अखबार की बात को महीनों, वर्षों और सदियों तक सुरक्षित रखा जा सकता है पर इसके लिए आपको तय करना होगा कि अखबार से आपपरचून की दुकान चलानी है या विचारों का लेन-देन करना है।
प्र.- क्या आप पत्रकारिता जगत में आई चारित्रिक गिरावट की बात स्वीकार
करते हैं? अगर हां, तो इसकी वजह क्या है?
उ.- चारित्रिक गिरावट से आपका क्या मतलब है? क्या आप कहना चाहते
हैं कि पत्रकार चरित्रहीन हो गए हैं, सवाल को थोड़ा स्पष्ट कीजिए।
प्र.- मेरा मतलब है कि पत्रकारिता के जरिए कुछ पत्रकार अन्य सुविधाएं और
उद्देश्य हासिल करने में लगे हुए हैं।
उ.- इस तरह की चारित्रिक गिरावट निश्चित रूप से आई है, पर यह गिरावट समाज के हर अंग में आई है। अखबार पलटकर देख लीजिए, आपको पता चल जाएगा
कि कानून की रक्षा करने वाली पुलिस स्वयं हर प्रकार के संगीन जुर्म में शामिल है।
ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जो पत्रकार के रूप में नेतागिरी करते हैं और नेता बनने के बाद पत्रकारिता
करते हैं। पत्रकार कोई देवदूत नहीं होता। इनमें भी बहुत सारे दलाल घुसे हुए हैं।
समाज के बाहर रहकर पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह कैसे हो सकता है कि समाज तो भारत का हो
और पत्रकारिता फ्रांस की हो? समाज में आई चैतरफा गिरावट पत्रकारिता में भी परिलक्षित हो रही है। पत्रकारों की विश्वसनीयता अवश्य कम हुई है पर मेरे लिए यह कोई
ज्यादा चिंताजनक बात नहीं है। मेरे लिए चिंताजनक बात यह है कि लोगों का विश्वास राज्य की
सत्ता से ही उठता जा रहा है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन और सरकार पर से लोगों का विश्वास उठ रहा
है। मैं इसे पत्रकारिता की विशेष समस्या नहीं मानता।
प्र.- कई संस्थानों में मालिक ही संपादक भी हैं। संपादकीय कामों के बगैर
किसी कार्यानुभव के क्या किसी को संपादक होना चाहिए?
उ.- मालिक संपादक हो, इसके खिलाफ मैं नहीं हूं। ऐसे बहुत से अच्छे संपादक हैं जो मालिक भी हैं। एन राम (हिंदू), हरि किशोर (डेक्कन हेराल्ड), कर्पूर चन्द्र कुलिश (राजस्थान पत्रिका), लाला जगत नारायण, विजय कुमार (पंजाब
केसरी), नरेन्द्र मोहन
(जागरण) आदि अच्छे संपादक रहे हैं और हैं। लेकिन जो लोग संपादक के रूप में सिर्फ अपना
नाम देना चाहते हैं या जिनके लिए संपादक का नाम छपने से मंत्रियों के दरवाजे खुल
जाते हैं, उस पर मुझे आपत्ति है।
प्र.- मौजूदा समस्याओं मसलन सांप्रदायिकता, जातीयता आदि को बढ़ाने में क्या प्रेस की भी भूमिका रही है? इस संदर्भ में उसे
किस तरह की नीति अख्तियार करनी चाहिए?
उ.- बहुत बुरी भूमिका रही है। मैं समझता हूं कि एक दौर, जिसमें सैंकड़ों
नौजवानों ने अपने को जलाकर मार डाला, के पीछे सबसे बड़ी भूमिका अखबारों की रही है। कुछ अखबारों ने बाकायदा इस पर ‘कैम्पेन’ चलाया। मंडल का
विरोध उन्हें तब तक संतुष्ट नही कर पाया जब तक नौजवान जलकर मरने नहीं लगे। जलकर मरने वालों का समाचार जब न्यूज़रूम में पहुंचता था तो वहां जैसे उल्लास का एक वातावरण बन जाता था। उसी तरह
राम मंदिर मामले में भी देखने को मिला कि पत्रकार कार सेवक बन बैठे। मैं यह नहीं
कहता कि पत्रकार धार्मिक भावना से अछूता रहे, पर इतना मैं जरूर सोचता हूं कि पत्रकार को चाहिए कि इस भावना को दबाकर,
समेटकर रखे। इसका प्रचार
अखबार के माध्यम से न करे।
प्र.- प्रभाष जोशी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघवादी जैसे संगठनों को कमजोर करने के लिए पत्रकारों को भाजपा
का समर्थन करना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो सारे देश में पंजाब जैसी
स्थिति हो जाएगी। उनकी इस टिप्पणी पर आप क्या सोचते हैं?
उ.- मैं चूंकि यह नहीं जानता हूं कि प्रभाष जोशी जी ने किस संदर्भ में यह
बात कही है। वैसे इतना मैं जरूर कहूंगा कि विहिप, बजरंग दल, आरएसएस को भाजपा से अलग मानकर अगर वे कोई विश्लेषण करते हैं तो मैं विनम्रतापूर्वक इससे असहमत
होना चाहूंगा। मैं भाजपा को विहिप, आरएसएस और बजरंग दल से अलग कोई सत्ता नहीं मानता और न मैं यह मानता हूं कि भाजपा में आडवाणी जी खराब हैं या अटल जी अच्छे
हैं। मैं इन सबको एक ही परिवार, संघ परिवार का सदस्य मानता हूं।
(15 नवंवर 1992,
राष्ट्रीय सहारा
हस्तक्षेप)